हिंदी सिनेमा का एक ऐसा मसीहा जिनके गीत, कविताएं कई दशकों से दर्शकों के लिए किसी कीमती तोहफे से कम नहीं है. गुलज़ार के हर नग्में में उनके दिल का दर्द झलकता है, जिसके पीछे उनकी कुछ यादें हैं जिन्हें वो चाह कर भी भुला नहीं सकते. कुछ यादें ऐसी होती हैं जो गुज़रते वक्त के साथ धुंधली तो पड़ जाती हैं मगर मिटती नहीं. ऐसा ही एक हादसा गुलज़ार के साथ भी हुआ, जिसे वो अपने दिल और दिमाग से कभी निकाल ही नहीं पाए और वो था बंटवारे का दर्द.



साल 1947 में जब भारत का बंटवारा हुआ तब गुलज़ार की उम्र सिर्फ 11 साल थी. बंटवारे का वो खतरनाक मंज़र उनके दिलों दिमाग पर गहरी छाप छोड़ गया. शायद इसी वजह से उनकी कई कविताओं में देश के विभाजन का दर्द छलकता है. इस बात का जिक्र एक बार खुद गुलज़ार ने अपने इंटरव्यू में भी किया था. उन्होंने कहा था कि ' देश का विभाजन मेरी लेखनी का बहुत खास पहलू है, क्योंकि मैं अपने बचपन में वो वक्त देख चुका हूं और उसे कभी भूल नहीं सकता. आज भी अगर मैं कहीं सांप्रदायिक दंगे देखता हूं, तो मुझे वहीं 1947 के बंटवारे का मंजर दिखाई देता है जिससे मुझे वाकई में बहुत तकलीफ होती है'.



बचपन से ही गुलज़ार पढ़ने-लिखने में तेज़ थे, मगर घर की आर्थिक स्थिती खराब होने की वजह से उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी और मुंबई आ गए. मुंबई में काम की तलाश में उन्होंने कई मुश्किलों का सामना किया, पैसों की जरूरत की वजह से उन्‍होंने गैराज में मेकेनिक का काम भी किया.



जब गुलज़ार के पिता का देहांत हुआ तब वो मुंबई में काम कर रहे थे, लेकिन परिवार वालों ने पिता के देहांत की खबर उन तक पहुंचने ही नहीं दी. बताया जाता है कि उस वक्त उनके बड़े भाई भी मुंबई में ही रहते थे. पिता के देहांत की खबर पड़ने पर वो तुरंत हवाई जहाज से दिल्ली पहुंच गए. गुलज़ार को पिता की मौत की ख़बर रिश्तेदारों से लगी, मगर तब तक बहुत देर हो चुकी थी. गुलज़ार अपने पिता के अंतिम दर्शन भी नहीं कर पाए थे.