चंद महीने पहले तक कोई सोच भी नहीं सकता था कि शिवसेना और बाल ठाकरे परिवार को अलग किया जा सकता है. लेकिन अब शिवसेना ठाकरे परिवार का नहीं रहा और इसके लिए पूरी तरह से उद्धव ठाकरे ही जिम्मेदार हैं. शिवसेना उनके पिता बाल ठाकरे की विरासत है. लेकिन उद्धव ठाकरे की राजनीति की वजह से अब मातोश्री शिवसेना का केंद्र बिन्दु नहीं रह गया है.


सत्ता पर बैठने और सत्ता चलाने में अंतर


सत्ता पर बैठना और सत्ता को चलाना, ये दो अलग-अलग चीजें हैं. बाल ठाकरे इस अंतर को बखूबी समझते थे. इस मंत्र और सूझ-बूझ की वजह से ही बाल ठाकरे की अहमियत हमेशा बनी रही. लेकिन इस बारीक अंतर को शायद उद्धव ठाकरे न तो अपने पिता से सीख पाए और न तो अपने राजनीतिक अनुभव से समझ पाए. आज उसी का हश्र है कि शिवसेना ठाकरे परिवार के हाथ से निकल गई. उद्धव ठाकरे की राजनीतिक अदूरदर्शिता पर बात करने से पहले शिवसेना की राजनीतिक विचारधारा और उसके विकास क्रम को समझना होगा. साथ ही बाल ठाकरे की दूरदर्शिता पर भी बात करनी होगी कि आखिर वो कौन से पहलू थे जिसकी वजह से शिवसेना को ठाकरे परिवार का पर्याय माना जाता था.


बाल ठाकरे की सोच थी अलग


जब 1966 में बाल ठाकरे ने शिवसेना के नाम से नई पार्टी का गठन किया था, तब किसे पता था कि आने वाले वक्त में यही बाल ठाकरे महाराष्ट्र की राजनीति के केंद्र बिन्दु कांग्रेस को हाशिए पर ला देंगे. बाल ठाकरे करीब 4 दशक तक महाराष्ट्र की राजनीति के ऐसे चेहरे बने रहे, जिनको शिवसेना का पर्याय समझा जाता था.  बाल ठाकरे की राजनीति अलग तरह की थी. उनकी इच्छा हमेशा रही कि शिवसेना महाराष्ट्र की सत्ता पर काबिज रहे. लेकिन बाल ठाकरे खुद सत्ता की कुर्सी पर बैठने की कभी मंशा नहीं रखते थे और इस रणनीति की वजह से ही शिवसेना के नेताओं, कार्यकर्ताओं और समर्थकों के बीच ठाकरे परिवार का रुतबा हमेशा से ही सर्वोपरि रहा था. 


कांग्रेस विरोध ही था राजनीतिक आधार


बाल ठाकरे ने मराठी अस्मिता को मुद्दा बनाकर ऐसे तो 19 जून 1966  को ही शिवसेना के नाम से नई पार्टी बना ली थी, लेकिन महाराष्ट्र की चुनावी राजनीति में शिवसेना का पदार्पण 1972 के विधानसभा चुनाव में हुआ. उस वक्त शिवसेना ने अपने 26 उम्मीदवार उतारे और पहली बार एक सीट पर शिवसेना को जीत मिली. 1978 के विधानसभा चुनाव में शिवसेना को एक भी सीट पर जीत नहीं मिली. शिवसेना को मनमुताबिक सफलता नहीं मिलता देख बाल ठाकरे ने मराठी अस्मिता के साथ हिन्दुत्व की भावना को अपनी राजनीति का हथियार बनाया. बाल ठाकरे को समझ में आने लगा था कि महाराष्ट्र की सत्ता से कांग्रेस को बेदखल करने के लिए बीजेपी को साथ लेना होगा और उन्होंने 1989 में बीजेपी के साथ हाथ मिलाकर लोक सभा चुनाव लड़ा. बीजेपी को सहयोगी बनाने का असर 1990 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में दिखा. इस चुनाव में 52 सीटें जीतकर शिवसेना कांग्रेस के बाद दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनी. वहीं शिवसेना की सहयोगी बीजेपी को 42 सीटें हासिल हुई. कांग्रेस 147 सीट जीतकर बहुमत हासिल करने में तो कामयाब रही. लेकिन महाराष्ट्र की सत्ता पर 4 दशक से काबिज कांग्रेस को 1990 में बाल ठाकरे ने ये एहसास करा दिया कि आने वाले वक्त में उसका विकल्प सूबे की जनता को दिखने लगा है.


संवैधानिक पदों से दूर रहे बाल ठाकरे


इन सबके बीच बाल ठाकरे एक बात को लेकर बिल्कुल स्पष्ट थे. उन्होंने कभी भी महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बनने की लालसा नहीं पाली या खुद को मुख्यमंत्री का चेहरा नहीं बताया. 1990 के विधानसभा चुनाव में भी शिवसेना की ओर से सीएम पद के लिए मनोहर जोशी को ही प्रोजेक्ट किया जाता रहा. हालांकि इसकी नौबत नहीं आ पाई और कांग्रेस किसी तरह से बहुमत हासिल करने में कामयाब रही. फरवरी-मार्च 1995 का विधानसभा चुनाव महाराष्ट्र के लोगों के साथ ही बाल ठाकरे और शिवसेना के लिए भी ऐतिहासिक साबित हुआ. आजादी के बाद से ही महाराष्ट्र की सत्ता किसी न किसी रूप में कांग्रेस के पास ही रही थी. 1960 से पहले महाराष्ट्र को बॉम्बे के नाम जाना जाता था. ऐसे तकनीकी तौर से देखे तो 1978 में  शरद पवार महाराष्ट्र के पहले गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्री थे. वे उस वक्त कांग्रेस से ही अलग हुए एक धड़े का नेतृत्व कर रहे थे, जो बाद में फिर से कांग्रेस का ही हिस्सा बन गया. 1995 में वो वक्त आया जब महाराष्ट्र में शिवसेना और बीजेपी गठबंधन बहुमत के करीब पहुंच गया और कांग्रेस सत्ता से पहली बार बाहर हो गई. गठबंधन में शिवसेना को 73 सीटें और बीजेपी को 65 सीटें मिली और निर्दलीय विधायकों की मदद से शिवसेना-बीजेपी की सरकार बनी. बाल ठाकरे को अच्छे पता था कि बहुमत मिलने पर वे महराष्ट्र के मुख्यमंत्री आसानी से बन सकते थे, लेकिन उन्होंने एक बार भी ऐसे संकेत नहीं दिए. चुनाव से पहले ही मनोहर जोशी शिवसेना-बीजेपी गठबंधन के मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित कर दिए गए थे और चुनाव बाद वहीं मुख्यमंत्री भी बने.


सत्ता से जुड़े पद और संवैधानिक पदों से खुद को दूर रखने की बाल ठाकरे की सूझ-बूझ ने ठाकरे परिवार और शिवसेना को एक-दूसरे का पर्याय बना दिया. बाल ठाकरे अपनी इस नीति से हमेशा बंधे रहे और वक्त-वक्त पर एहसास कराते रहे कि ठाकरे परिवार के लिए पद से बड़ा पार्टी है. यहीं वजह थी कि बाल ठाकरे ने अपने भतीजे राज ठाकरे के पद की महत्वाकांक्षा को भांपते हुए 2003 में अपने बेटे उद्धव ठाकरे को शिवसेना का कार्यकारी अध्यक्ष बना दिया. इसी फैसले के बाद दिसंबर 2005 आते-आते तक राज ठाकरे ने अपनी राह शिवसेना से अलग कर ली.


'कांग्रेस विरोध और बीजेपी का साथ'


जब तक बाल ठाकरे जीवित रहे, शिवसेना की राजनीति मराठी अस्मिता के साथ-साथ हिन्दुत्व की भावना के अलावा दो और बिन्दुओं को लेकर आगे बढ़ते रही. इनमें पहला था कांग्रेस का विरोध और दूसरा पहलू था बीजेपी का साथ. बाल ठाकरे ताउम्र कांग्रेस का विरोध करते रहे. शिवसेना का मकसद ही था महाराष्ट्र की सत्ता से कांग्रेस को बाहर करना और जब बाल ठाकरे को लगा कि वे इस काम को अकेले दम पर नहीं कर सकते हैं तो 1990 से ही महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव बीजेपी के साथ मिलकर लड़ने लगे. नवंबर 2012 में बाल ठाकरे का निधन हो गया और यहीं से उद्धव ठाकरे ने शिवसेना की राजनीतिक विचारधारा और आधार के साथ छेड़छाड़ करना शुरू कर दिया, जिसकी परिणति 2023 में इस रूप में हुई कि ठाकरे परिवार के हाथ से शिवसेना छिटक गई.


2014 में अकेले चुनाव लड़ने का फैसला


2014 में उद्धव ठाकरे ने एक ऐसा फैसला किया जिससे महाराष्ट्र में शिवसेना की बड़े भाई की हैसियत हमेशा के लिए खत्म हो गई. अक्टूबर 2014 के विधानसभा चुनाव में शिवसेना ने सीटों के बंटवारे पर सहमति नहीं बनने के बाद बीजेपी से 25 साल पुराना नाता तोड़ दिया. शिवसेना और बीजेपी अलग-अलग चुनाव लड़ी. 122 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर बीजेपी ने दिखा दिया कि शिवसेना के बगैर भी वो महाराष्ट्र की राजनीति में बड़ी ताकत है और अब वो शिवसेना को बड़ा भाई नहीं मानने वाली. हालांकि नतीजों के बाद फिर से बीजेपी-शिवसेना गठबंधन की सरकार बनी. लेकिन उद्धव ठाकरे की राजनीतिक अदूरदर्शिता की वजह से सूबे में पहली बार शिवसेना का कद बीजेपी से छोटा हो गया.


2019 में तो उद्धव ने हद ही कर दी


अक्टूबर 2019 में महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव हुआ. शिवसेना, बीजेपी के साथ मिलकर ही चुनाव लड़ी. गठबंधन के तहत ये पहली बार था जब बीजेपी ज्यादा और शिवसेना कम सीटों पर चुनाव लड़ रही थी. बीजेपी 105 और उद्धव ठाकरे की पार्टी 56 सीटों पर जीतने में सफल रही. इस गठबंधन को स्पष्ट बहुमत भी हासिल हो गया. यहां सरकार बनाने के फॉर्मूले पर पेंच फंस गया. उद्धव ठाकरे महाराष्ट्र में बीजेपी और शिवसेना का ढाई-ढाई साल तक मुख्यमंत्री रहने की मांग पर अड़ गए. बीजेपी ने इसे स्वीकार नहीं किया. उसके बाद उद्धव ठाकरे ने बीजेपी से जुदा होने का फैसला किया. उद्धव ठाकरे इतने पर भी नहीं रूके और सत्ता की लालच में ऐसा फैसला कर लिया, जो शिवसेना की राजनीतिक विचारधारा से कतई मेल नहीं खाता था. उन्होंने सूबे में सरकार बनाने के लिए कांग्रेस और एनसीपी के साथ मिलकर महा विकास अघाड़ी बना लिया और इस गठबंधन के तहत उद्धव ठाकरे खुद नवंबर 2019 में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बन बैठे.


ठाकरे परिवार से बढ़ने लगी दूरी


उद्धव ठाकरे के इन फैसलों से शिवसेना के नेताओं, कार्यकर्ताओं और समर्थकों के बीच मौजूदा ठाकरे परिवार को लेकर दशकों से बने मान-सम्मान में कमी आने लगी. बाल ठाकरे तो कभी सपने में भी नहीं सोच सकते थे कि शिवसेना सत्ता के लिए कांग्रेस से हाथ मिला सकती है. आम शिवसैनिकों के लिए भी ये अजीबोगरीब स्थिति थी. यहीं से ठाकरे परिवार और शिवसैनिकों के बीच के रिश्तों में दरार ज्यादा बड़ी होने लगी, जिसका फायदा एकनाथ शिंदे ने जून 2022 में उठाया और पार्टी के ज्यादातर विधायकों को अपने साथ लेकर उद्धव ठाकरे गुट से अलग हो गए.


रुतबा बढ़ा नहीं, मनमर्जियां रही जारी


बाल ठाकरे के निधन के बाद से ही उद्धव ठाकरे ने पार्टी के भीतर और बाहर कई ऐसे फैसले लिए, जो बाल ठाकरे और शिवसेना की सोच से बिल्कुल अलग थे. 2013 में खुद को कार्यकारी अध्यक्ष की जगह पार्टी प्रमुख नियुक्त कर दिया. 2018 में पार्टी के संविधान में ही बदलाव कर दिया. चुनाव आयोग ने भी एकनाथ शिंदे गुट को ही असली शिवसेना बताने के अपने फैसले में इस बात का जिक्र किया है कि 2018 में शिवसेना ने अपने संशोधित संविधान की प्रति आयोग के पास जमा नहीं कराई थी. एकनाथ शिंदे जून 2022 में बगावत से पहले इसी बात को मुद्दा बनाकर पार्टी के विधायकों और सांसदों को अपने पक्ष में लामबंद करने में जुटे थे. उनका कहना था कि बाल ठाकरे ने जिस शिवसेना का गठन किया था, उद्धव ठाकरे उस शिवसेना के उद्देश्यों और लक्ष्यों से विचलित हो गए थे और इसी विचलन का नतीजा था कि उन्होंने 2019 में कांग्रेस से दोस्ती कर ली और मुख्यमंत्री पद को भी स्वीकर कर लिया.


बाल ठाकरे के जाने के बाद से जिस तरह की राजनीति उद्धव ठाकरे कर रहे थे, उसी का नतीजा है कि पिछले 10 साल में महाराष्ट्र की जनता के बीच भी शिवसेना की पकड़ कमजोर होते गई. साथ ही धीरे-धीरे शिवसेना भी ठाकरे परिवार के दायरे से बाहर होते गई. भले ही अब उद्धव ठाकरे ये आरोप लगाएं कि किसी और गुट ने शिवसेना का नाम और चुनाव चिह्न 'धनुष तीर' चोरी कर लिया है, लेकिन उन्हें ये नहीं भूलना चाहिए कि पिछले 10 साल में उन्होंने ही उसकी नींव भी तैयार कर दी थी और वैसे हालात भी बनाते जा रहे थे, जिससे शिवसेना धीरे-धीरे ठाकरे परिवार से फिसलते जा रही थी.


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