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ब्लॉग: 'तीन तलाक़' पर पाबंदी की पहल खुद मुसलमानों की तरफ से होनी चाहिए
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मुस्लिम समाज में एक साथ दी जाने वाली ‘तीन तलाक’ के मुद्दे पर क़रीब साल भर से देश भर में चर्चा हो रही है. बहस हो रही है. इस कुप्रथा के खिलाफ़ मुस्लिम महिलाओं ने बड़ा आंदोलन छेड़ा हुआ है. सुप्रीम कोर्ट ने संविधान पीठ बनाकर इस मुद्दे पर 11 मई से रोज़ाना सुनवाई का फैसला किया है.
सुप्रीम कोर्ट की गंभीरता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि आज़ाद भारत के इतिहास में पहली बार सुप्रीम कोर्ट ने जजों की छुट्टियां रद्द करके उन्हें तीन तलाक के मुद्दे पर सुनवाई की ज़िम्मेदारी सौंपी है. ये अब पूरी तरह राष्ट्रीय मुद्दा बन चुका है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में हुए पांच राज्यों के चुनाव को दौरान भरोसा दिलाया था कि उनकी सरकार जल्द ही मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक जैसी बुराई से निजात दिलाकर उन्हें इंसाफ दिलाएगी. माना जाता है कि प्रधानमंत्री की इस अपील पर मुस्लिम महिलाओं ने भाजपा को वोट भी दिया. यूपी में प्रचंड बहुमत से भाजपा की सरकार बनने के बाद से ही मुस्लिम महिलाएं मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से तीन तलाक पर पाबंदी लगाने की मांग कर रही हैं. मुस्लिम महिलाओं का एक प्रतिनिधि मंडल राज्य की महिला कल्याण मंत्री रीता बहुगुणा जोशी से मिल चुका है. साथ ही तीन तलाक की पीड़ित एक महिला ने खुद मुखयमंत्री योगी के जनता दरबार में आकर अपना दुखड़ा सुनाते हुए इंसाफ मांगा है.
हैरानी की बात ये है कि देश भर में तीन तलाक पर इतना बवाल मचने के बावजूद तीन तलाक के अजीबो-गरीब मामले सामने आ रहे है. ताजा मामलों में एक शख्स ने अपना पत्नी को सिर्फ इस लिए तलाक दे दिया कि उसने लड़की को जन्म दिया था. ये मामला लखीमपुर खीरी का है. इस मामले की शिकार महिला ने यूपी के मुख्यमंत्री से मुलाक़ात करके अपने पति के खिलाफ कार्रवाई की मांग की है. दूसरे मामले में बिजनौर में तैनात असिस्टेंट लेबर कमिशनर नासिर खान ने अपनी पत्नी आलिया सिद्दीकी को स्पीड पोस्ट से एक साथ तीन तलाक भेज दिया. आरोप है कि नासिर ने दहेज की मांग पूरी नहीं होने पर अपनी पत्नी को तलाक दिया. बरेली में भी 24 घंटे के अंदर तीन तलाक के दो मामले सामने आए हैं. वहीं वाराणसी में एक महिला को उसके पति ने महज इस लिए तलाक दे दिया क्योंकि वो मोटी हो गई है.
मुस्लिम समाज में तीन तलाक के मामलों का संगीन अपराधों की तरह लगातर सामने आना बेहद चिंताजनक है. ये घटनाएं इस बात का सबूत हैं कि मुस्लिम समाज शादीशुदा महलिओं पर किस तरह तलाक की तलवार लटकी रहती है. मुस्लिम समाज के रहनुमा इस सच्चाई को क़ुबूल करने की हिम्मत नहीं जुटाते लेकिन हकीकत ये है कि तीन तलाक के चलन ने समाज में मुस्लिम महिलाओं की स्थिति काफी कमज़ोर कर रखी है. ज्यादातर पुरुष इसे कोई समस्या नहीं मानते लिहाज़ा उनकी तरफ से इस बुराई के खिलाफ कभी मज़बूत आवाज़ नहीं उठी. महिलाओं ने सुप्रीम कोर्ट में एक साथ दी जानी वाली तीन तलाक को चुनौता दी तो भी पुरुषों की तरफ से इस क़दम को व्यापक समर्थन नहीं मिला. उल्टे महिलाओं की नीयत पर सही सवाल उठाए गए. अब तो उन्हें धमकियां मिलने की भी खबरें सामने आ रही है.
हाल ही में जिस तरह तीन तलाक के कई मामले सामने आए हैं उससे ये बात साबित होती है कि तलाक देने वालों के न तो अल्लाह का कोई डर है और न ही देश के क़ानून का. तलाक के मामले में अल्लाह का डर तो लोगों के दिलों से मुल्ला जमात ने निकाल दिया है. दारुल उलूम देवबंद और इन जैसे तमाम इस्लामी शिक्षा के केंद्रों ने एक साथ दी जाने वाली तीन तलाक को इतनी बार और इतने तरीकों जायज़ करार दे दिया है कि आम मुसलमान बगैर किसी ठोस वजह के अपनी बीवी को कभी भी और किसी भी तरह से तलाक देने को अपना धार्मिक अधिकार समझते हैं. चूंकि तलाक देना किसी अपराध की श्रेणी में नहीं है लिहाजा तलाक देने वाले पर कोई कानून लागू नहीं होता.
मुस्लिम समाज में तीन तलाक के लगातार बढ़ते मामलों के लिए मज़हबी रहनुमा और दारुल उलूम जैसे इस्लामी शिक्षा केंद्र पूरी तरह ज़िम्मेदार हैं. मुसलमानों की मज़हबी रहनुमाई करने वाले तमाम इस्लामी केंद्रों के फतवों में एसएमएस, व्हाट्सएप, फेसबुक, स्काइप, फोन, मोबाइल, चिट्ठी और यहां तक कि दीवार पर लिख कर दी गई तलाक को भी जायज करार दे रखा है. ऐसे फतवे तलाक देने के मामले में मर्दों का हौसला बढ़ाते हैं. वैसे तो इस्लाम में शराब पीना हराम है लेकिन शराब के नशे में दी गई तलाक जायाज़ मानी जाती है. अगर कोई अपनी पत्नी को गुस्से में भी तीन बार तलाक बोल दे तो इस्लामी केंद्रों के फतवों में उसे तलाक मान लिया जाता है. शर्म की बात तो यह है कि अगर कोई कहे कि उसके मुंह से ग़लती से या गुस्से में तलाक़ निकल गया है और तलाक देने की उसकी न तो नीयत थी और न ही इरादा. इस्लामी इदारों में ये दलील कोई मायने नहीं रखती. इनका कहना है कि एक बार तलाक का शब्द मुंह से निकल गया तो निकल गया. तलाक हो गई. आपकी नीयत हो या न हो.
सच्चाई तो यह है कि इस्लाम मर्द को बगैर किसी ठोस वजह के एक तरफा तलाक का अधिकार नहीं देता. कुरआन में साफ कहा गया है कि तलाक से पहले दोनों पक्षों के बीच सुलह की कोशिश जरूरी है. अगर हाल ही में सामने आए दोनों मामलों में तलाक का आधार बेहद कमजोर है. लखीमपुर की सबरीना को इस लिए तलाक दी गई कि उसने लड़की पैदा की. ये तलाक का आधार नहीं हो सकता. कुरआन की सूराः अश शूरा की आयत न. 49-50 में कहा गया है “आकाशों और धरती की बादशाही अल्लाह के लिए है. वह जो चाहता है पैदा करता है. वह जिसको चाहता है बेटियां देता है और जिसको चाहता है बेटे देता है या उनको इकट्ठे देता है बेटे भी और बेटियां भी और जिसको चीहता है बे-औलाद रखता है. बेशक वो जानने वाला और सामर्थ्य वाला है.“ मेडिकल साइंस भी ये साबित कर चुकी है कि लड़का या लड़की पैदा करने की ज़िम्मेदारी महिला नहीं बल्कि पुरुष होता है. ऐसे में सबरीना के पति के खिलाफ क़ानूनी कार्रावाई का मज़बूत आधार बनता है.
कानपुर की महिला आलिया के मुताबिक उसके पति ने दहेज की मांग पूरी नहीं होने के कारण उसे तलाक दिया है. इस्लाम में दहेज के लेनदेन को हराम बताया जाता है. फिर इस आधार कोई अपनी पत्नी को तलाक कैसे दे सकता है. हमारे देश में दहेज मांगना अपराध है. इसके लिए सख्त कानून भी है. इस मामले में आलिया को अपने पति के खिलाफ दहेज उत्पीड़न का मामला दर्ज कराके क़ानूनी कार्रवाई करनी चाहिए. सरकारी अधिकारी होने की वजह से उसके पति के खिलाफ और भी कड़ी कार्रवाई हो सकती है.
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मुस्लिम समाज में तीन तलाक की विकराल होती समस्या से निपटने लिए बकायदा जागरूकता अभियान चलाने की ज़रूरत है. इससे पीड़ित महिलाओं को अपने पतियों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई का रास्ता अख़्तियार करना चाहिए. तीन तलाक पर पाबंदी का मामला सुप्रीम कोर्ट में है. पांच जजों कि बेच इस मामले पर सुनवाई करेगी. पहले भी सुप्रीम कोर्ट कई बार तीन तलाक को ग़लत, गैर इस्लामी और कुरआन के खिलाफ करार दे चुका है. इस बार भी फैसला यही होना है लेकिन इस पर पाबंदी लगाना सुप्रीम कोर्ट के अधिकार क्षेत्र में नहीं है. केंद्र सरकार के लिए भी अपनी तरफ से इस पर पाबंदी लगाना आसान नहीं है. पिछली सरकारों ने ऐसे मामलों में सुप्रीम कोर्ट में दाखिल हलफनामे में कहा है कि एक साथ तीन तलाक गलत है इस पर पाबंदी लगनी चाहिए लेकिन ये पहल मुस्लिम समाज की तरफ से ही हो सकती है.
दरअसल संविधान देश के सभी धार्मिक समुदायों को अपनी-अपनी धार्मिक मान्यताओं और परंपराओं के हिसाब से शादी ब्याह, तलाक और विरासत के कानून अपनाने की छूट देता है. इसी लिए हिंदू समाज में सारे कामकाज हिंदू रीति रिवाजों से किए जाते हैं और मुस्लिम समाज में इस्लामी रीति रिवाजों से. एक साथ तीन तलाक की इस्लामी नज़रिए से एकदम ग़लत है. तमाम आलिम मानते हैं कि ये मूल रूप से इस्लामी पंरपरा नहीं है बल्कि कालांतर में इसे मुसलमनों ने अपनी सुहूलियत के लिए अपना लिया है. लिहाज़ा इसे ख़त्म करने की ज़िम्मेदारी भी मुस्लिम समाज पर ही आती है.
एक तरफ जहां तमाम मुस्लिम धार्मिक संगठन इसे जारी रेखने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं वहीं महिलाओं ने इसके खिलाफ मोर्चा खोल रखा है. ऐसे में महिलाओं के हक़ के लिए मुस्लिम सामाजिक संगठनों को आगे आना चाहिए. जिस तरह ऑल इंडिया मुस्लिम पर्लनल लॉ ने देश भर में शरीयत बचाओ आंदोलन चलाकर इस शरीयत में सरकारी हस्तक्षेप के खिलाफ करीब तीन करोड़ लोगों के हस्ताक्षर कराए हैं. इसी तरह तीन तलाक के विरोध में खड़े मुस्लिम संगठनों को समाज में जागरूकता अभियान चलाना चाहिए. आखिर ये मामला महिलाओं के सम्मान और अधिकारों से जुड़ा है. आज़ादी के बाद से ही कोई न कोई महिला एक साथ तीन तलाक के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाती रही है. अब वक्त आ गया है कि तमाम पूर्वाग्रहों को दरकिनार करके मुसलमान एक साथ तीन तलाक जैसी कुप्रथा को हमेशा के लिए खत्म करने के लिए आगे आए. मज़हबी रहनुमा तलाक के मामले में मुसलमानों से कुरआन में बताए गए तरीके पर अमल करने पर ही जोर दें.
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