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भारतीय अर्थव्यवस्था का बढ़ता आकार और भारी क़र्ज़ का दबाव..आर्थिक असमानता है सबसे बड़ी चुनौती

इन दिनों भारतीय अर्थव्यवस्था की खूब चर्चा हो रही है. भारत के साथ ही अंतरराष्ट्रीय जगत में भी हमारी अर्थव्यवस्था का बढ़ता आकार चर्चा के साथ ही आकर्षण का भी विषय है. भारत दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और आने वाले कुछ सालों में हम दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएंगे. फिलहाल हमसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में अमेरिका, चीन, जापान और जर्मनी है.

भारतीय अर्थव्यवस्था का आकार पिछले दो दशक में तेजी से बड़ा हुआ है. मौजूदा नरेंद्र मोदी सरकार का दावा है कि पिछले 9 साल में हमारी अर्थव्यवस्था बहुत ही तेजी से बढ़ी है. केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के ऑफिस की ओर से 12 जून को एक ट्वीट किया गया. इसमें जानकारी दी गई कि 2023 में भारत की जीडीपी 3.75 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंच गई है. ट्वीट में ये भी कहा गया कि 2014 में भारत की जीडीपी करीब 2 ट्रिलियन डॉलर थी. निर्मला सीतारमण के ऑफिस के इस ट्वीट में लिखा था कि भारत अब ग्लोबल इकोनॉमी में एक ब्राइट स्पॉट के तौर पर देखा जा रहा है. हालांकि बाद में इस ट्वीट को डिलीट कर दिया गया.

कई विकसित देशों से बड़ी अर्थव्यवस्था

अर्थव्यवस्था के आकार के हिसाब से पहले नंबर पर अमेरिका है, जिसके अर्थव्यवस्था का आकार करीब 27 ट्रिलियन डॉलर है. उसके बाद चीन का 19.3 ट्रिलियन डॉलर, जापान का 4.4 ट्रिलियन डॉलर और जर्मनी का 4.3 ट्रिलियन डॉलर है. अर्थव्यवस्था के आकार के मामले में भारत दुनिया के कई विकसित देशों  यूनाइटेड किंगडम, फ्रांस, कनाडा, रूस और ऑस्ट्रेलिया से भी आगे है. हालांकि भारत की गिनती विकासशील देशों में ही होती है. अर्थव्यवस्था का आकार लगातार बड़ा होने बावजूद विकसित राष्ट्र बनने के लिए भारत को फिलहाल लंबा सफर तय करना है. खुद नरेंद्र मोदी सरकार ने इसके लिए 2047 का लक्ष्य रखा है.

पिछले 9 साल में तेजी से बढ़ने का दावा

इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारतीय अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ा है, हालांकि 2013 में भारत की जीडीपी 1.8 ट्रिलियन डॉलर थी और 2014 में ये आंकड़ा 2 ट्रिलियन डॉलर को पार कर गया था. 2021 में भारत की जीडीपी 3.17 ट्रिलियन डॉलर हो गई. यानी 2013 के बाद के 8 सालों में भारतीय अर्थव्यवस्था का आकार 1.17 ट्रिलियन डॉलर बढ़ा.

इसी को अगर हम  2004 से 2014 के बीच तुलना करें तो जिस साल कांग्रेस की अगुवाई में यूपीए सरकार बनी थी, 2004 में भारत की जीडीपी एक ट्रिलियन से कम 709 बिलियन डॉलर थी. वहीं 2013 के आखिर में ये आंकड़ा 1.85 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंच गया. यानी 2004 के बाद 9 सालों में में भारतीय अर्थव्यवस्था का आकार 1.14 ट्रिलियन बढ़ा था.

यूपीए सरकार में भी बड़ा हुआ था आकार

2004 से अब तक के आंकड़ों से ये स्पष्ट है कि यूपीए सरकार के दौरान भी भारतीय अर्थव्यवस्था का आकार तेजी से बढ़ा था. प्रति व्यक्ति आय बढ़ाने के मामले में भी 2004 से 2014 का समयकाल पिछले 9 साल के मुकाबले कहीं से भी कमतर नहीं था. 2022-23 के लिए हमारा पर कैपिटा इनकम 1.72 लाख रुपये था. ये 2014 -15 में 86,647 रुपये सालाना था. यानी इस दौरान दोगुना का इजाफा हुआ है. यानी पिछले आठ साल में प्रति व्यक्ति आय में दोगुनी वृद्धि हुई है. 

यूपीए सरकार में प्रति व्यक्ति आय में काफी बढ़ोतरी

वहीं 2004-05 में पर कैपिटा इनकम 23,222 रुपये था. करेंट प्राइस पर पर कैपिटा इनकम 2010-11 में 53,331 रुपये पहुंच गया, जो 2013-14 में बढ़कर 74, 920 रुपये हो गया. यानी 2004-05 के बाद के 9 साल में करेंट प्राइस पर प्रति व्यक्ति आय में तीन गुना से ज्यादा का इजाफा हुआ था. इन आंकड़ों से ये भी स्पष्ट है कि जिस तरह से यूपीए सरकार में भारतीय अर्थव्यवस्था का आकार तेजी से बड़ा हुआ था, उसी तरह से प्रति व्यक्ति आय में भी इजाफा दर्ज किया गया था.

दरअसल भारतीय अर्थव्यवस्था के आकार में तेजी से बढ़ोतरी होने के पीछे यहां की जनसंख्या ही सबसे प्रमुख कारण है और ये कहना कि भारतीय अर्थव्यवस्था पिछले 9 साल में ही बढ़ा है, ये अर्थशास्त्र के नजरिये से सही नहीं है. इसके उलट प्रति व्यक्ति आय बढ़ाने के मामले में यूपीए सरकार का कार्यकाल पिछले 9 साल के कार्यकाल से ज्यादा बेहतर रहा था.

बढ़ता क़र्ज़ और आर्थिक असमानता

भले ही भारतीय अर्थव्यवस्था का आकार पिछले दो दशक में काफी बड़ा हो गया है, लेकिन इसके साथ दो महलू जुड़े हुए हैं, जो काफी महत्वपूर्ण हैं. पहला पहलू है भारतीय अर्थव्यवस्था पर बढ़ता क़र्ज़ और दूसरा पहलू है आर्थिक असमानता का लगातार बढ़ते जाना.

जिस तरह से अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ना हम सबके लिए सकारात्मक है, उसी तरह से सरकार पर क़र्ज़ का बढ़ता बोझ से  भी चिंता बढ़ती है. कहा जा रहा है कि नरेंद्र मोदी सरकार के कार्यकाल के दौरान अर्थव्यवस्था का साइज तो दोगुना हुआ है, लेकिन देश पर क़र्ज़ भी तीन गुना हो गया है. इस पर सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच राजनीति भी हो रही है.

भारत सरकार पर बढ़ते क़र्ज़ को लेकर राजनीति

कांग्रेस ने दावा किया है कि नरेंद्र मोदी के कार्यकाल संभालने से पहले तक भारत का कुल क़र्ज़ मात्र 55 लाख करोड़ रुपये था. लेकिन अब ये आंकड़ा बढ़कर 155 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा हो गया है. इसी को मुद्दा बनाकर कांग्रेस नरेंद्र मोदी सरकार पर आर्थिक कुप्रबंधन का आरोप लगा रही है.

वहीं बीजेपी के तमाम नेता कांग्रेस के आरोपों को ग़लत तरीके से पेश करने वाले दावे बता रहे हैं. बीजेपी के आईटी सेल के प्रमुख अमित वाजपेयी का कहना है कि किसी भी सरकार के कार्यकाल में क़र्ज़ के बोझ को देखने से पहले इसे सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी के संदर्भ में देखा जाना चाहिए. उनका कहना है कि 2013-14 से 2022-23 के बीच देश की जीडीपी 113.45 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर 272 लाख करोड़ रुपये हो गई. उनका ये भी तर्क है कि 2014 से लगातार देश के राजकोषीय घाटे में कमी आई है, सिर्फ 2020-21 के समय को छोड़ दिया जाए तो. वहीं कांग्रेस का कहना है कि मोदी से पहले 67 साल में 14 प्रधानमंत्रियों ने मिलाकर 55 लाख रुपये का क़र्ज़ लिया था, वहीं प्रधानमंत्री मोदी ने 9 साले में ही 100 लाख करोड़ रुपये का क़र्ज़ ले लिया है.

विदेशी ऋण में 9 साल में 5 लाख करोड़ रुपये की वृद्धि

जहां तक बात सरकारी आंकड़ों की है तो 31 मार्च 2014 तक भारत सरकार पर 55.87 लाख करोड़ रुपये का क़र्ज़ था. इनमें 54 लाख करोड़ आंतरिक क़र्ज़ और 1.82 लाख करोड़ विदेशी ऋण थे. वहीं इस साल के केंद्रीय बजट के मुताबिक 2022-23 के आखिर तक कुल क़र्ज़ का अनुमान 152.61 लाख करोड़ रुपये लगाया गया. इसमें अतिरिक्त बजटीय संसाधन और कैश बैलेंस जोड़ दिया जाए तो अनुमानित क़र्ज़ 155 लाख करोड़ रुपये के पार हो जाता है. 2004 में भारत सरकार पर कुल क़र्ज़ 17.24 लाख करोड़ रुपये था.

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने भी संसद में इस बात की पुष्टि की थी और जानकारी दी थी कि कुल क़र्ज़ में विदेशी ऋण का हिस्सा 7 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा है. यानी पिछले 9 साल में विदेशी ऋण में भी 5 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा की बढ़ोतरी हुई है. 

राजकोषीय और राजस्व घाटा कैसे होगा कम?

2023-24 के लिए राजकोषीय घाटा जीडीपी के 5.9% रहने का अनुमान है. 2022-23 के लिए राजकोषीय घाटा जीडीपी का 6.4% रहने का संशोधित अनुमान लगाया गया. ये 17.55 लाख करोड़ रुपये होता है.  2021-22 के बजट भाषण में केंद्र सरकार ने राजकोषीय घाटा को 2025-26 तक जीडीपी के 4.5% से नीचे ले जाने का लक्ष्य तय किया था.

वहीं राजस्व घाटा 2022-23 में 4.1%  था, जिसके मौजूदा वित्तीय साल में 2.9% रहने का अनुमान जताया गया है, जबकि 2021-22 में ये 4.4% था.  प्राइमरी डेफिसिट यानी प्राथमिक घाटा मौजूदा वित्तीय वर्ष में 2.3% रहने का अनुमान है, जो पिछले वित्तीय वर्ष में 3% था और उससे पहले 2021-22 में 3.3% था.  राजकोषीय घाटे और ब्याज भुगतान के बीच के अंतर को प्राथमिक घाटा कहते हैं.

भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए ये एक सकारात्मक पहलू है कि हमारा राजस्व घाटा और प्राथमिक घाटा घट तो रहा है और हमने मौजूदा वर्ष के लिए इन दोनों को काफी कम करने का लक्ष्य रखा है. राजस्व घाटा को 1.2% और प्राथमिक घाटा को 0.7% कम करने का लक्ष्य रखा है. लेकिन इस मोर्चे पर सवाल है कि पिछले कुछ साल में हम लक्ष्य जो भी रखते हैं, उसके मुकाबले वास्तविक आंकड़े कम करने में सफल नहीं होते रहे हैं.

दो दशक से प्रयासों का असर नहीं

वित्तीय अनुशासन और केंद्र सरकार पर बढ़ते घाटे के बोझ कम करने के लिए अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में 2003 में राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन कानून लाया गया. ये जुलाई 2004 से प्रभावी भी हो गया. इसके तहत राजस्व घाटा को धीरे-धीरे पूरी तरह से समाप्त करने, राजकोषीय घाटा को जीडीपी के 3% तक लाने का लक्ष्य रखा गया. उस वक्त केंद्र और राज्य स्तर पर इन लक्ष्यों को हासिल करने के लिए 2008-09 का टाइम फ्रेम रखा गया था. हालांकि ये अभी तक हासिल नहीं हो पाया है. बार-बार इससे जुड़े लक्ष्य और टाइम फ्रेम में बदलाव किया जाता रहा है.

वित्तीय वर्ष 2003-04 में राजकोषीय घाटा 4.3% था और 2023-24 के लिए ये 6.4% का अनुमान है. वहीं राजस्व घाटा 2003-04 में 3.6% था , जिसके मौजूदा वित्तीय वर्ष में 2.9% रहने का अनुमान है. यानी पिछले दो दशक से हमारी अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ी है, आकार अब 3.73 ट्रिलियन डॉलर का हो गया है, उसके बावजूद भी हम राजस्व घाटा और राजकोषीय घाटा के मोर्चे पर इन 20 सालों में बहुत कुछ हासिल नहीं कर पाए हैं. इससे ये भी पता चलता है कि राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन कानून के जरिए भी हम क़र्ज़ के मोर्चे पर अपनी हालत नहीं सुधार पाए हैं.

अर्थव्यवस्था का विस्तार और बुनियादी ढांचे के विस्तार पर भारी निवेश होने पर केंद्र सरकार पर क़र्ज़ का दबाव बढ़ना स्वाभाविक है. इस मामले में अर्थशास्त्रियों के विचार भी बंटे नज़र आते हैं. जहां अर्थशास्त्रियों का एक वर्ग ऐसा है, जो ये मानता है कि नरेंद्र मोदी सरकार जिस तरह से देश के जीडीपी का आबंटन कर रही है, लोगों को कल्याणकारी योजनाओं के नाम पर राशन दे रही है और किसानों को सीधे धनराशि देना जैसी इसी तरह की कई योजनाएं चला रही है, उसका पूरा बोझ सरकारी खजाने पर आएगा ही और अंत में ये बोझ देश की जनता को ही उठाना पड़ेगा.

वहीं दूसरी तरफ अर्थशास्त्रियों का एक वर्ग मानता है कि जैसे-जैसे देश का कैपिटल एक्सपेंडिचर बढ़ेगा, बुनियादी ढांचों सड़क, रेलवे, एयरपोर्ट और दूसरी जगहों पर निवेश बढ़ेगा, सरकार पर क़र्ज़ का बोझ बढ़ना ही है. इन लोगों का मानना है कि जितनी बड़ी अर्थव्यवस्था होगी, सरकार पर क़र्ज़ भी उसी अनुपात में बढ़ेगा और उस पूरे मसले को उसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए.

आर्थिक असमानता  कैसे होगी कम?

आर्थिक असमानता का मसला अर्थव्यवस्था के बढ़ते आकार से ही जुड़ा हुआ ही एक महत्वपूर्ण मुद्दा है. आम भाषा में कहें कि देश की अर्थव्यवस्था का आकार बहुत बड़ा हो गया तो क्या इसका मतलब ये समझा जाए कि देश में अब अमीर-गरीब के बीच की खाई कम हो रही है.

हमारे यहां यही विडंबना है कि भारत दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है और विश्व बैंक, आईएमएफ से लेकर ज्यादातर वैश्विक संस्थान भारत को सबसे तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था मान रहे हैं. इसके बावजूद देश में अमीर-गरीब के बीच असमानता लगातार बढ़ी रही है. अर्थव्यवस्था का आकार तो बढ़ रहा है, लेकिन सवाल ये है कि क्या लोगों के बीच आर्थिक असमानता में कमी आ रही है या फिर अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ने का वास्तविक संबंध देश के कुछ हजार-लाख लोगों की संपत्ति की कीमतें बढ़ने से ही जुड़ा है.

अमीर-गरीब के बीच बढ़ता फ़ासला

आर्थिक असमानता अमीर-गरीब के बीच खाई से तो जुड़ा है ही, इसके साथ ही क्षेत्रवार और राज्यवार जो अंतर है, वो भी काफी गंभीर मसला है.  World Inequality Report 2022 की मानें तो पिछले कुछ दशकों में भारत में आय और संपत्ति दोनों ही मामलों में असमानता बढ़ती रही है. हाल के वर्षों में भी इस ट्रेंड में बदलाव नहीं आया है.  1990 के बाद से देश में शीर्ष 10% और शीर्ष 1% की राष्ट्रीय आय की हिस्सेदारी में लगातार इजाफा हुआ है, वहीं नीचे से आने वाले 50% लोगों की राष्ट्रीय आय की हिस्सेदारी में कमी आई है.

देश में शीर्ष 10% लोग हैं काफी अमीर

वर्ल्ड इनइक्वलिटी डेटाबेस के मुताबिक 2011 से 2020 के बीच देश के एक प्रतिशत लोगों का योगदान देश की कुल संपत्ति में करीब 32 फीसदी था. इस अवधि में देश के 10 प्रतिशत लोगों का योगदान देश की कुल संपत्ति में करीब 64 फीसदी था. वहीं देश के निचले स्तर के 50% लोगों का देश की कुल संपत्ति में योगदान महज़ 6 फीसदी के आसपास था. इसके मुताबिक 1961-70 के दशक में देश के एक प्रतिशत लोगों का योगदान देश की कुल संपत्ति में 12 फीसदी से कम था.

पिछले 3 दशक में खाई और बढ़ती गई

धीरे-धीरे इन एक प्रतिशत लोगों की हिस्सेदारी बढ़ती गई और ये 2001-2010 में करीब 26 फीसदी तक जा पहुंचा. अभी के हिसाब से देश के एक प्रतिशत लोगों के पास देश की कुल संपत्ति का करीब 32 फीसदी हिस्सा है. 1961-70 के दशक में देश के 10 प्रतिशत लोगों के पास देश की कुल 43 फीसदी संपत्ति थी, जो 2011-2020 में बढ़कर करीब 64 फीसदी हो गई.  यानी समय के साथ ही अमीर और गरीब के बीच की खाई कम होने के बजाय बढ़ते गई है.

उसी तरह से सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय की ओर से 2017-18, 2018-19 और 2019-20 तीन सालों के लिए जारी पीरियोडिक लेबर फोर्स सर्वे के मुताबिक देश में कमाई करने मामले में अव्वल रहने वाले शीर्ष 10% लोग नीचे के 64% के बराबर कमाते हैं.

10% लोगों के पास राष्ट्रीय संपत्ति का 77% हिस्सा

ऑक्सफैम इंटरनेशनल के मुताबिक तो भारतीय आबादी के शीर्ष 10% लोगों के पास कुल राष्ट्रीय संपत्ति का 77% हिस्सा है. 2017 में जितनी संपत्ति बनी, उसमें से 73% सिर्फ़ एक प्रतिशत अमीर लोगों के पास गया. जबकि 67 करोड़ भारतीयों की संपत्ति में महज़ एक प्रतिशत का इजाफा हुआ. इसके मुताबिक भारत में 119 अरबपति हैं. इनकी संख्या 2000 में सिर्फ 9 थी, जो बढ़कर 2017 में 101 हो गई है.  2018 और 2022 के बीच, भारत में हर दिन 70 नए करोड़पति पैदा होने का अनुमान है. इसकी मानें तो एक दशक में अरबपतियों की संपत्ति लगभग 10 गुना बढ़ गई और उनकी कुल संपत्ति वित्त वर्ष 2018-19 के लिए भारत के केंद्रीय बजट से अधिक है, जो कि 24,422 अरब रुपये थी. 

नीति आयोग के मुताबिक 25% लोग  बहुआयामी गरीब

मल्टीडाइमेंशनल पॉवर्टी इंडेक्स यानी बहुआयामी गरीबी सूचकांक के मुताबिक नीति आयोग ने देश की 25 फीसदी आबादी को बहुआयामी गरीब माना था. हालांकि वास्तविकता इससे ज्यादा गंभीर है. क्षेत्रवार और राज्यवार भी आर्थिक असमानता के बहुत बड़ी समस्या है, जो देश की अर्थव्यवस्था के आकार से ही जुड़ी समस्या है. एक तरफ तो तेलंगाना में पर प्रति व्यक्ति आय सालाना 3.17 लाख रुपये तक पहुंच गई है, वहीं बिहार में ये  आंकड़ा 54 हजार रुपये के आसपास है. राष्ट्रीय स्तर पर प्रति व्यक्ति आय का आंकड़ा 1,72,000 रुपये पहुंच चुका है. 

संपत्तियों का संकेंद्रण मुट्ठी भर लोगों तक न हो

इस तरह से अर्थव्यवस्था के बड़े आकार को देश की जनसंख्या और संसाधनों के पर्याप्त वितरण के नजरिए से भी देखने की जरूरत है. तभी भारतीय अर्थव्यवस्था को भारी क़र्ज़ और आर्थिक असमानता जैसी समस्याओं से निजात मिल सकता है. आर्थिक असमानता को कम करने के लिए उस पर फोकस करते हुए आर्थिक नीतियों को लानी होगी. उसके बाद ऐसा माहौल बनाने की कोशिश करनी होगी, जिससे रोजगार के भी भरपूर मौके बन सकें और संपत्तियों का संकेंद्रण मुट्ठी भर लोगों तक न हो पाए.

आर्थिक असमानता है एक आर्थिक विपदा

पहले से ही धर्म, जाति, जेंडर और क्षेत्र के आधार पर हमारे समाज में बिखराव है, उसमें आर्थिक असमानता के बढ़ते जाने से चिंता और बढ़ जाती है. हमारे यहां आर्थिक असमानता एक आर्थिक विपदा के तौर पर देखा जाना चाहिए. आर्थिक विपदा मानकर ही उसके हिसाब से इस समस्या को दूर करने के लिए सरकार को हर स्तर पर प्रयास किए जाने की जरूरत है. इसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति भी गंभीरता से दिखाए जाने की जरूरत है. 2047 तक जिस विकसित राष्ट्र बनने का लक्ष्य लेकर हम आगे बढ़ रहे हैं, उसमें व्यापक स्तर पर आर्थिक असमानता को दूर किए बिना....हम सही मायने में विकसित राष्ट्र नहीं कहला सकते हैं.  

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]

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