ग्रीन वाशिंग: पर्यावरण संरक्षण के नाम पर उत्पादक कंपनियों का घालमेल
आधुनिक सभ्यता की शुरुआत वैज्ञानिक खोजों और तकनीकि प्रगति से हुई है. महात्मा गांधी का तर्क है कि आधुनिक सभ्यता सुख-सुविधा पर केंद्रित है और मनुष्य की नैतिक क्षमताएं कम हो गई हैं. रूसो भी तकनीकी प्रगति को हमें सभ्य बनाने वाला, पर मानवता को नष्ट करने वाला भी मानते हैं. तकनीक के विकास के साथ अगर आज हम आधुनिक समाज की बात करते हैं तो देखते हैं कि हमने एक संवेदनहीन समाज की रचना कर डाली है जो आत्मकेंद्रित है और खुद की पहचान के लिए थोड़ा डरा-सहमा हुआ है. जर्मन चिन्तक उलरिच बेख भी वर्तमान सभ्यता “को डरे हुए लोगों की सभ्यता” बताते हैं.
बाजार बनाता है व्यक्ति-केंद्रित समाज
शुरू से ही बाज़ारोन्मुख समाज व्यक्ति केंद्रित रहा, जिसके मूल में असुरक्षा रही और बाज़ार बीतते समय के साथ इस डर को भुनाने का भरसक प्रयास करता रहा. जलवायु संकट, पर्यावरणीय प्रदूषण और स्वास्थ्य से जुड़े खतरों ने इस असुरक्षा को भय में बदल दिया, जिसे कोरोना महामारी ने और बढ़ा दिया है. संकट और उससे उपजा भय बाजार के लिए एक अवसर की तरह है. इसमें वह अपने लिए संभावनाओं की तलाश कर लेता है. और इसी के साथ शुरू हुआ बाजारवाद का एक नया दौर जिसमें उत्पाद के साथ-साथ सुरक्षा और सरोकार भी बेचे जा रहे हैं. हाल के कुछ वर्षो में शुद्ध,ऑर्गेनिक, इको-फ़्रेंडली, प्रकृति सम्मत, नवीकरणीय, पुनर्चक्रणीय जैसे शब्दों ने बाज़ार में जोर पकड़ा जिसके मूल में है कि व्यक्ति अपने जीवन को लेकर किसी प्रकार का रिस्क नहीं उठाना चाहता.
किसी का डर, किसी का अवसर
हाल के दिनों में जापान और सिंगापुर जैसे देशों ने भारतीय कंपनी के मसालों को कीटनाशक के प्रयोग के आधार पर रोक लगा दी. इस खबर ने लोगों के दिमाग पर इतना असर डाला कि लोग सोशल मीडिया हैंडल से यह पूछने लगे कि ऑर्गेनिक मसाले कहाँ उपलब्ध होंगे? अगर कोई किसान या कोई हर्बल फार्म यह भरोसा दिला दे कि उनके पास कीटनाशक मुक्त और शुद्ध मसाले उपलब्ध हैं, तो फिर रातों-रात ऐसे मसालो की बिक्री बढ़ने से कोई इंकार नहीं कर सकता. भारत जैसे विशाल देश में बड़ी आसानी से विज्ञापन के जरिए किसी पक्ष की ओर लोगों को मोड़ा जा सकता है मसलन पिछले कुछ दशक में साफ और सुरक्षित पीने की पानी की चाहत में लोगों ने प्लास्टिक की बोतलों में पानी पीना शुरु कर दिया तो हर वर्ष दिल्ली जैसे बड़े प्रदूषित शहरों में दीवाली के समय एयर प्युरिफायर, मास्क और ग्रीन पटाखों की बिक्री बढ़ जा रही है. बाजार ने इस भय को अवसर की तरह लिया है, हमारी नब्ज पकड़ ली है, जो दीखता तो है लोगो की पर्यावरण के प्रति बढती जागरूकता के रूप में, पर असल में यह कहानी है बाज़ार के हित की जो पर्यावरण के क्षय होने के भय से सधती है.
पर्यावरण के प्रति जागरूकता या...
धीरे-धीरे बढ़ते जलवायु संकट और प्रकृति के क्षरण के दौर में आम जनता में पर्यावरण के प्रति जागरूकता बढ़ रही है और उन्हें यह भी एहसास हो रहा है कि मौजूदा संकट में इसी वैश्विक हो चुके बाज़ार का एक बड़ा हाथ है. कुछ बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां पर्यावरण के प्रति बढती इसी जागरूकता को ढाल की तरह इस्तेमाल करते हुए अपने उत्पादों को खपाने के लिए पर्यावरण से जुड़े नारों, दावों, प्रतीकों आदि का सहारा लेकर अपने उत्पादों को पर्यावरणीय सरोकारों से जोड़कर बेचना शुरू कर चुकी हैं. इसे ही ‘ग्रीनवाशिंग’ कहा गया. ग्रीन-वाशिंग के कई ऐसे मामलों में खुलासा हुआ कि कंपनियां उत्पाद के तरीकों या गुणवत्ता में सकारात्मक सुधार ना कर, या बिजनेस प्रैक्टिस में बदलाव ना कर सारी मेहनत उत्पाद के विज्ञापन पर करती है, जिसमें उत्पाद के प्रकृति सम्मत होने के झूठे और बढ़ा-चढ़ाकर दावे शामिल हैं, जो ग्रीन मार्केटिंग या ग्रीन एडवरटाइजिंग के सीधा उलट है. बाज़ार में पर्यावरण के मुद्दे पर उपभोक्ता को भ्रम में डालने की प्रवृति कोई नई नहीं है. इसे हम पिछली सदी के मध्य में जब पर्यावरण को लेकर विकसित देशों में अकादमिक स्तर का विमर्श शुरू हुआ जिसके केंद्र में औद्योगिक प्रदूषण था, से जोड़ सकते हैं. उस समय प्रदूषण से जुड़े विवाद से बचने के लिए औद्योगिक घराने पर्यावरणीय छवि सुधरने के लिए भ्रामक परन्तु आकर्षक विज्ञापन का सहारा लेती थी. हालांकि उस समय ऐसे प्रयासों को इको-पोर्नोग्राफी का नाम दिया गया.
सारा जोर विज्ञापन पर
आधुनिक सन्दर्भ में इस प्रवृति को पहली बार पेट्रोलियम कंपनी सेवेरॉन ने इस्तेमाल किया और अपने महंगे और आकर्षक टेलीविज़न और अख़बार के प्रचार के माध्यम से खुद को भालू, तितली, कछुआ और प्रकृति को बचने वाले के रूप में दिखाया और इस कदर सफल हुए कि विज्ञापन और ग्रीन वाशिंग के केस स्टडी बन गए. आगे चल कर ऐसी प्रवृति को ‘ग्रीन वाशिंग’ का नाम पहली बार जे वेस्टरवेल्ड होटल इंडस्ट्री के सन्दर्भ में परिभाषित किया. कई होटल अपने ग्राहकों के कमरों में ‘सेव द एनवायरनमेंट’ लिखकर ‘पानी बचाने’ के नाम पर तौलिये और चादर को दोबारा प्रयोग करने को बाध्य करते थे. हालांकि, ऐसा करने के पीछे उनका सरोकार पर्यावरण को बचाना कतई नहीं था, बल्कि साफ-सफाई में खर्च को कम कर अधिक से अधिक मुनाफा कमाना था. इस प्रकार ‘पचास के दशक में शुरू हुआ इको-पोर्नोग्राफी जलवायु संकट से उपजती बाज़ार की नयी प्रवृति के साथ ग्रीनवाशिंग तक का सफ़र तय कर चुका है.’ तेल से जुड़े सेवेरॉन के अस्सी के दशक का विज्ञापन ग्रीन वाशिंग को समझने के लिए गोल्ड स्टैण्डर्ड माना जाता है, और रोचक तथ्य ये है कि तब तक ग्रीन वाशिंग शब्द वजूद में भी नहीं आया था.
जरूरतें पैदा करता बाजार
मौजूदा दौर विज्ञापनों का है और विज्ञापन ही हमारे लिए जरूरतें पैदा कर रही हैं और हम ना चाहते हुए भी उपभोक्ता बन रहे है, विज्ञापन ही हमारी जरूरतों को रच-गढ़ रहा है. अभी के समय में पर्यावरण का मुद्दा मुख्य धारा में आ रहा है, ऐसे में बाज़ार इसी पर्यावरण के मुद्दे के सहारे ही पर्यावरण को नुकसान करने वाली उत्पादों के लिए एक उत्साही उपभोक्ता का समूह निपुणता से मुहैया करा रहा है.अक्सर कंपनियां किसी न किसी रूप में पर्यावरण के लिए नुकसानदायक उत्पादों को पर्यावरण से ही जोड़कर अपना कारोबार कर रही हैं. इसको लगातार दिखाये जा रहे कार के उस विज्ञापन से समझ सकते हैं जिसमें एक सन्देश छिपा रहता है कि अगर आप प्रकृति को नजदीक से देखना चाहते हैं, तो यह कार आप जैसे प्रकृति प्रेमियों के लिए ही है. सुदूर निर्जन पहाड़ जंगल तक कार से पहुँच जाना वो भी ईंधन जला के, यह अपने आप में ही प्रकृति सम्मत नहीं है. ऐसे विज्ञापन तंत्र के घालमेल से जहाँ डीप इकोलॉजी को समझने और उसे आत्मसात करने की जरुरत है उसके बदले पर्यावरण के प्रति एक सतही और आभासी चेतना निर्मित की जा रही है, और वैसे ही दिग्भ्रमित उपभोक्ता भी तैयार हो रहे, जिनके लिए स्पोर्ट्स कार से सुदूर जंगल, पहाड़ तक चला जाना ही पर्यावरणीय चेतना है.
सतही समझ से नहीं बचेगा पर्यावरण
ऐसी सतही समझ और पर्यावरण के मुद्दों के साथ बाज़ार का षडयन्त्र उपभोक्ता के बड़े वर्ग को दिग्भ्रमित कर रहा है जिसका परिणाम हो रहा हैं कि पर्यावरण संरक्षण के मुद्दों पर लगातार प्रयास की गहमागहमी के बीच स्थिति विकराल होती चली जा रही है. हालांकि, यह सुनिश्चित करने के लिए कि विज्ञापनदाताओं के पर्यावरण संरक्षण के दावे सत्य और साक्ष्य-आधारित हैं, भारतीय विज्ञापन मानक परिषद (एएससीआई) ने दिशानिर्देश प्रस्तावित किए हैं जिनका उद्देश्य पर्यावरणीय दावे-आधारित विज्ञापन में पारदर्शिता और जवाबदेही लाना है. इन दिशानिर्देशों का उद्देश्य ग्रीनवॉशिंग की जाँच करना भी है. फिर भी कंपनियां धड़ल्ले से लोगों को भ्रमित कर रही हैं. इसका एक मात्र समाधान है हमें सजग और सतर्क ग्राहक की भूमिका निभानी होगी. पर हमें याद तो है ना कि अब हमारी जरूरते हम नहीं निर्धारित करते बल्कि बाज़ार निर्धारित करते है और विज्ञापन ही उसको रचते-बुनते हैं.
[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.]
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