(Source: ECI / CVoter)
आम चुनाव 2024: विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' की मजबूरी, सीट बँटवारे का पेच, बीजेपी को चुनौती देना आसान नहीं
आने वाले कुछ महीने भारतीय राजनीति के लिए बेहद ही महत्वपूर्ण हैं. अगले महीने या'नी नवंबर में 5 राज्यों राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिज़ोरम में विधान सभा चुनाव होना है. इसके साथ ही अप्रैल-मई 2024 में लोक सभा चुनाव होना है. इन चुनावों के मद्द-ए-नज़र राजनीतिक दलों के साथ ही आम नागरिकों में भी हलचल तेज़ है. देश की सियासत पर बहस मीडिया के अलग-अलग मंचों पर ब-दस्तूर जारी है. सोशल मीडिया पर इसको लेकर लोग ज़्यादा मुखर नज़र आ रहे हैं.
ऐसे तो लोक सभा चुनाव में अभी 5 महीने से ज़्यादा का वक़्त बचा है, लेकिन केंद्र की सत्ता को लेकर राजनीतिक दलों के बीच खींचतान जारी है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में बीजेपी के सामने लगातार तीसरी बार सत्ता में आने की चुनौती है. इसके लिए बीजेपी एनडीए के तले अलग-अलग प्रदेशों के सियासी समीकरणों को साधने के लिए अभी से रणनीति को ढाँचा देने में जुटी है.
विपक्ष के सामने 2024 के लिए दोहरी चुनौती
दूसरी ओर विपक्ष के सामने दोहरी चुनौती है. विपक्ष बीजेपी के जीत के सिलसिले पर लगाम लगाना चाहता है. इसके साथ ही कांग्रेस समेत कई विपक्षी दलों के सामने केंद्र की राजनीति में अपनी प्रासंगिकता बनाये रखने या प्रभाव बढ़ाने की भी चुनौती है. इन दोनों चुनौतियों में तालमेल बनाकर आगे बढ़ना कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दलों के लिए आसान नहीं है. इसके लिए कांग्रेस समेत 28 विपक्षी दल 'इंडिया' गठबंधन के तले एकजुट हुए हैं. विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' की प्रासंगिकता को सार्थकता प्रदान करने के लिए लोक सभा चुनाव, 2024 तक विपक्ष के सामने एकजुटता को बरक़रार रखने की भी चुनौती है.
विपक्षी गठबंधन की धार पहले से ही कम
इनके अलावा मायावती की बहुजन समाज पार्टी या'नी बसपा उत्तर प्रदेश में, नवीन पटनायक की बीजू जनता दल ओडिशा में, के. चंद्रशेखर राव की भारत राष्ट्र समिति तेलंगाना में और वाई एस जगनमोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस आंध्र प्रदेश में बिना एनडीए या 'इंडिया' गठबंधन का हिस्सा बने अपना-अपना वर्चस्व बनाये रखने की चुनावी रणनीति पर आगे बढ़ रहे हैं. इनके अलावा आम चुनाव, 2024 में हाल ही में बीजेपी का दामन छोड़ने वाली एआईएडीएमके तमिलनाडु में फिर से अपनी खोई ज़मीन हासिल करने के लिए मुसलसल-जद्द-ओ-जहद में है.
हालांकि बीएसपी, बीजेडी, बीआरएस, वाईएसआर कांग्रेस और एआईएडीएमके एनडीए का हिस्सा नहीं है, इसके बावजूद विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' से दूरी बनाकर इन दलों ने 2024 के लिए पहले ही बेहद मज़बूत दिख रही बीजेपी की राह को और आसान बना दिया है. अगर ये पाँचों दल विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' का हिस्सा होते, तो फिर बीजेपी के लिए 2024 में केंद्र की सत्ता पर बरक़रार रहना उतना आसान नहीं होता. इन दलों की दूरी ने विपक्षी गठबंधन की धार को चुनाव से पहले ही कमज़ोर कर दिया है.
पार्टियों का निजी हित एकजुटता में बड़ी बाधा
'इंडिया' गठबंधन के दायरे में विपक्ष की एकजुटता को अगले कुछ महीनों तक बनाये रखना इतना आसान नहीं है. इसमें कांग्रेस समेत जितने भी दल हैं, उनका निजी हित ही एकजुटता में सबसे बड़ी बाधा है. कांग्रेस को छोड़ दें, तो बाक़ी दलों की भूमिका राज्य विशेष तक सीमित है. ऐसे में हर दल की कोशिश है कि अपने-अपने प्रभाव वाले राज्य में उनको तरजीह मिले. इसका सीधा मतलब है कि उनको उस राज्य की ज़्यादातर सीटों पर लड़ने दिया जाए.
पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी का दबाव
विपक्षी गठबंधन की इस दुविधा को राज्यों के उदाहरण से बेहतर तरीक़े से समझा जा सकता है. पश्चिम बंगाल की बात करें, तो ममता बनर्जी का पूरा ज़ोर रहेगा कि प्रदेश की कुल 42 में से अधिकांश लोक सभा सीटों पर तणमूल कांग्रेस के उम्मीदवार को उतारा जाए. ममता बनर्जी के दावे में दम भी दिखता है. पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और सीपीएम का जनाधार अब बेहद कम है, इस वास्तविकता से कोई इंकार नहीं कर सकता है.
अगर विपक्षी गठबंधन के तहत टीएमसी के उम्मीदवारों को अधिकांश सीटों पर मौक़ा मिला तो बीजेपी के लिए पश्चिम बंगाल में काफ़ी नुक़सान हो सकता है. उसके लिए पिछली बार की तरह पश्चिम बंगाल में बेहतर प्रदर्शन करना मुश्किल हो जायेगा. यह तथ्य है कि पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और सीपीएम का जो भी थोड़ा बहुत जनाधार है, उससे टीएमसी उम्मीदवारों को तो जीतने में अच्छी-ख़ासी मदद मिल जायेगी. जबकि इसके विपरीत टीएमसी का साथ मिलने के बावजूद कांग्रेस और सीपीएम उम्मीदवारों के जीतने की संभावना उतनी नहीं रह जायेगी.
उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव का दावा
कुछ इसी तरह का दावा उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी का भी है. मायावती के अलग रहने से उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी-कांग्रेस-आरएलडी गठजोड़ की ताक़त बीजेपी के सामने बेहद कम हो गयी है. साथ ही उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की स्थिति बेहद दयनीय है, यह भी किसी से छिपा नहीं है. ऐसे में समाजवादी पार्टी कतई नहीं चाहेगी कि कांग्रेस को ज़्यादा सीटे मिले, जिससे बीजेपी को नुक़सान की संभावना कम हो जाए.
इसके साथ ही अखिलेश यादव के सामने 2024 के लोक सभा चुनाव में एक और चुनौती है. उन्हें दिखाना है कि बिना मुलायम सिंह यादव के उत्तर प्रदेश में अभी भी समाजवादी पार्टी की राजनीतिक हैसियत है. मुलायम सिंह यादव के निधन के बाद यह पहला मौक़ा होगा, जब समाजवादी पार्टी किसी विधान सभा चुनाव या लोक सभा चुनाव में उतरेगी. इस स्थिति में अखिलेश यादव कांग्रेस को ज़्यादा सीटें देकर न तो विपक्षी गठबंधन का और न ही अपनी पार्टी का उत्तर प्रदेश में नुक़सान कराना चाहेंगे.
बिहार में आरजेडी-जेडीयू का दबाव
इसके अलावा बिहार में भी सीट बँटवारे पर कमोबेश पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश जैसी ही स्थिति है. यहां तेजस्वी यादव की आरजेडी और नीतीश कुमार की जेडीयू कुछ वैसा ही दावा कर सकती है. बिहार में कांग्रेस की स्थिति भी बंगाल और यूपी की तरह ही अच्छी नहीं है. ऐसे में आरजेडी और जेडीयू की कोशिश होगी कि प्रदेश की कुल 40 लोक सभा सीटों में से कांग्रेस को बहुत कम सीटें मिले.
कांग्रेस को ज़्यादा सीटें देने का परिणाम आरजेडी 2020 के विधान सभा चुनाव में भुगत चुकी है. उस वक़्त नतीजों के बाद सियासी गलियारों के साथ ही आम लोगों में भी इसकी ख़ूब चर्चा हुई थी कि अगर आरजेडी विधान सभा की कुल 243 में कांग्रेस को 70 सीटों पर चुनाव लड़ने नहीं देती तो उस वक़्त महागठबंधन को आसानी से बहुमत हासिल हो जाता.
बिहार विधान सभा चुनाव, 2020 में कांग्रेस 70 में से महज़ 19 सीटों पर जीत पायी थी. जबकि आरजेडी 144 सीटों पर लड़कर 75 सीटों पर जीत दर्ज कर सबसे बड़ी पार्टी बनी थी. इसके साथ ही महागठबंधन की गाड़ी 110 सीटों पर रुक गयी थी, जबकि बीजेपी-जेडीयू की अगुवाई में एनडीए 125 सीट जीतकर किसी तरह से बहुमत हासिल करने में कामयाब रही थी. आम चुनाव 2024 में आरजेडी बिहार में इस ग़लती को दोहराना नहीं चाहेगी.
केरल में कांग्रेस-सीपीएम का क्या रहेगा रुख़?
इन राज्यों के अलावा मोटे तौर से विपक्षी गठबंधन के सामने केरल में सीटों के बँटवारे को लेकर सबसे ज़्यादा समस्या आने वाली है. केरल में कुल 20 लोक सभा सीट है. लोक सभा चुनाव में जीत के नज़रिये से यहां की राजनीति में बीजेपी की मौजूदगी न के बराबर है. केरल में अब तक कांग्रेस और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) या'नी सीपीएम के बीच ही आमने-सामने की टक्कर होते रही है.
केरल में इन दोनों के बीच में अगर तालमेल बन जाता है, तो प्रदेश की सभी 20 सीटें विपक्षी गठबंधन के हिस्से में आ जायेगी, इसमें भी कोई शक-ओ-शुब्हा नहीं है. लेकिन समस्या यही है कि सीपीएम चाहेगी कि उसे ज़्यादा सीटें मिले. पूरे देश में सीपीएम की एकमात्र उम्मीद केरल ही है. ऐसे में वो केंद्र की राजनीति में अपनी प्रासंगिकता बनाए रखना चाहेगी. अगर केरल में सीपीएम और कांग्रेस के बीच गठजोड़ को लेकर बात बन जाती है, सीपीएम की कोशिश होगी कि वो ज़्यादा से ज़्यादा सीटों के लिए कांग्रेस पर दबाव बनाये.
सीटों को लेकर दिल्ली और पंजाब का पेच
दिल्ली और पंजाब में भी विपक्षी गठबंधन के तहत सीट बँटवारे का पेच उलझा हुआ है. यह आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के बीच की पेच है. कांग्रेस की स्थिति इन दोनों ही राज्यों में पिछले कुछ सालों में काफ़ी ख़राब हुई है. वहीं इन दोनों ही राज्यों में पिछले कुछ सालों में आम आदमी पार्टी का राजनीतिक दख़्ल तेज़ी से बढ़ा है. दोनों ही राज्यों में आम आदमी पार्टी की सरकार है. इन दोनों ही राज्यों में वर्तमान में आम आदमी पार्टी की राजनीतिक हैसियत सबसे ज़्यादा है.
दिल्ली में आम आदमी पार्टी का दावा
दिल्ली में कुल 7 लोक सभा सीट है. 2009 के बाद से दिल्ली की किसी भी लोक सभा सीट पर कांग्रेस जीत नहीं पाई है. 2014 और 2019 दोनों ही बार दिल्ली की सभी सीटों पर बीजेपी को जीत मिली थी. पिछले एक दशक में दिल्ली में आम आदमी पार्टी बेहद मज़बूत होकर उभरी है. विधान सभा के हिसाब से तो उसने कांग्रेस और बीजेपी के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा कर दिया. लोक सभा की तरह ही दिल्ली में कांग्रेस पिछले दो विधान सभा चुनाव 2015 और 2020 में खाता तक नहीं खोल पायी है. वहीं आम आदमी पार्टी ने 2015 विधान सभा चुनाव में कुल 70 में से 67, जबकि 2020 के विधान सभा चुनाव में 62 सीटें जीतने में कामयाब रही. कांग्रेस का जनाधार दिल्ली में बिल्कुल सिकुड़ चुका है. विधान सभा चुनाव 2020 में कांग्रेस का वोट शेयर 5 फ़ीसदी से भी नीचे रहा था.
ऐसे में आम आदमी पार्टी की कोशश रहेगी कि गठबंधन के तहत दिल्ली की 7 में से ज़्यादातर सीटे उसके हिस्से में आए. दूसरी ओर कांग्रेस चाहेगी कि 2019 के लोक सभा चुनाव में मिले वोट शेयर के आधार पर उसे दिल्ली में आम आदमी पार्टी से ज़्यादा सीटों पर चुनाव लड़ने का मौक़ा मिले. कांग्रेस और आम आदमी पार्टी दोनों ही 2019 में कोई सीट नहीं जीत पायी थी, लेकिन कांग्रेस का वोट शेयर आम आदमी पार्टी से क़रीब साढ़े चार फ़ीसदी अधिक था. दिल्ली में कांग्रेस को 22.51% और आम आदमी पार्टी को 18.11% वोट मिले थे.
आम आदमी पार्टी का पंजाब में भी दावा
पंजाब में भी दिल्ली की तरह का ही पेच है. यहां लोक सभा की कुल 13 सीटें हैं. एक समय था कि पंजाब की राजनीति पर कांग्रेस और शिरोमणि अकाली दल का वर्चस्व था. अब दिल्ली की तरह ही पंजाब भी आम आदमी पार्टी का मज़बूत गढ़ बन गया. पिछले एक दशक में दिल्ली के बाद पंजाब ही एकमात्र ऐसा राज्य है, जहां आम आदमी पार्टी की पकड़ बेहद मज़बूत हुई है. विधान सभा चुनाव 2022 में आम आदमी पार्टी ने ऐतिहासिक प्रदर्शन करते हुए प्रदेश की 117 में से 95 सीटों पर जीत दर्ज कर ली. इससे आम आदमी पार्टी की सत्ता के साथ ही पंजाब की राजनीति में एक नये युग की शुरूआत हुई. हालांकि लोक सभा चुनाव में आम आदमी पार्टी का प्रदर्शन उस तरह से नहीं रहा है. उसे 2019 में एक सीट और 2014 में 4 सीटों पर जीत मिली थी. लेकिन विधान सभा चुनाव में प्रचंड जीत से 2024 के लोक सभा चुनाव के लिए पंजाब पर आम आदमी पार्टी की दावेदारी बहुत मज़बूत हो चुकी है. ऐसे में विपक्षी गठबंधन के तहत आम आदमी पार्टी पंजाब में भी कांग्रेस पर बड़ी क़ुर्बानी का दबाव बना रही है.
झारखंड, तमिलनाडु, महाराष्ट्र में अधिक समस्या नहीं
विपक्षी गठबंधन के तहत उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, बिहार और केरल के साथ ही दिल्ली और पंजाब में सीट बँटवारे को लेकर सबसे ज़्यादा समस्या आने वाली है. इनके अलावा झारखंड, तमिलनाडु, महाराष्ट्र ही तीन ऐसे राज्य हैं, जहां विपक्षी गठबंधन के तहत कांग्रेस के साथ ही दूसरे दल भी प्रभावी भूमिका में हैं. झारखंड में हेमंत सोरेन की झारखंड मुक्ति मोर्चा और कांग्रेस का तालमेल रहेगा. तमिलनाडु में कांग्रेस और डीएमके का गठजोड़ है.
वहीं महाराष्ट्र में कांग्रेस, शिवसेना (उद्धव ठाकरे गुट) और एनसीपी (शरद पवार गुट) का तालमेल रहेगा. इन तीनों राज्यों में सीट बँटवारे को लेकर ज़्यादा खींचतान होने की संभावना कम है. चाहे विपक्षी गठबंधन होता या नहीं होता, तमिलनाडु में डीएमके-कांग्रेस मिलकर ही चुनाव लड़ते. आम चुनाव, 2019 और विधान सभा चुनाव 2021 में डीएमके-कांग्रेस मिलकर ही चुनाव लड़ी थी. यहाँ सीट बँटवारे पर इस वज्ह से अधिक खींचतान की संभावना नहीं के बराबर है.
उसी तरह से झारखंड में भी झामुमो और कांग्रेस मिलकर ही चुनाव लड़ती. पिछले कई चुनाव से ही दोनों दल एक साथ है. महाराष्ट्र में भी स्थिति ऐसी ही है. चाहे विपक्षी गठबंधन होता या नहीं होता, प्रदेश की कुल 48 लोक सभा सीटों पर कांग्रेस, शिवसेना (उद्धव ठाकरे गुट) और एनसीपी (शरद पवार गुट) मिलकर ही चुनाव लड़ती.
कांग्रेस को विपक्षी गठबंधन से ज़्यादा लाभ नहीं
इनके अलावा जहां से विपक्षी गठबंधन की उम्मीदें हैं, वो कुछ ऐसे राज्य हैं, जिसमें कांग्रेस और बीजेपी के बीच सीधी टक्कर है. इनमें विपक्षी गठबंधन में शामिल और दलों की कोई ख़ास पकड़ या भूमिका नहीं है. ऐसे राज्यों में कर्नाटक, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, गुजरात, राजस्थान, हरियाणा, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश मुख्य तौर से हैं. विपक्षी गठबंधन के तहत कांग्रेस के लिए विडंबना है कि जहां-जहां वो मज़बूत है या उसका जनाधार अच्छा-ख़ासा है, उन राज्यों में कोई भी ऐसे दल नहीं हैं, जो उसकी जीत की संभावनाओं को बढ़ाने में मदद कर सकें. इस उलट पैन इंडिया जनाधार होने की वज्ह से कांग्रेस कई राज्यों में विपक्षी गठबंधन में शामिल राज्यों को मदद करने की स्थिति में है.
क्या कांग्रेस को देनी होगी बड़ी क़ुर्बानी?
ऊपर के विश्लेषण से स्पष्ट है कि विपक्षी गठबंधन के तहत सीट बँटवारे में सबसे ज़्यादा क़ुर्बानी कांग्रेस को देनी होगी. लोक सभा चुनाव, 2024 में बीजेपी के सामने थोड़ी-बहुत भी चुनौती देशव्यापी स्तर पर पेश हो, अगर सचमुच कांग्रेस की यह मंशा है, तो उसके पास पार्टी हितों को दरकिनार करते हुए कुछ राज्यों में बड़ी क़ुर्बानी देने का कोई विकल्प नहीं है. कांग्रेस ऐसा नहीं करती है, तो फिर विपक्षी एकजुटता को लोक सभा चुनाव 2024 तक ब़रकरार रखना आसान नहीं है. ऐसे भी इस तरह की ख़बरें सियासी और मीडिया के गलियारों में जहाँ-तहाँ तैर रही हैं कि विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' में शामिल ज़्यादातर पार्टियां सीट बँटवारे के फॉर्मूले को लेकर कांग्रेस से सहमत नहीं हो पा रही हैं. सीट बँटवारे को लेकर विपक्षी दलों का कांग्रेस के साथ मतभेद सुलझने की जगह बढ़ते जा रहा है.
कांग्रेस को कु़र्बानी देने के लिए तैयार रहना होगा, तभी सीट बँटवारे के मसले पर विपक्षी गठबंधन में दरार आने की संभावना कम रहेगी. हालांकि कांग्रेस के लिए इस तरह का त्याग करना आसान नहीं होगा क्योंकि 2024 में उसके सामने भी केंद्र की राजनीति में अपने अस्तित्व को बचाने के साथ ही अपनी प्रासंगिकता को बनाए रखने की चुनौती होगी.
विपक्षी के सामने है दो और बड़ी समस्या
आम चुनाव 2024 में बीजेपी के सामने चुनौती को लेकर 'थोड़ी-बहुत' शब्दों का इस्तेमाल इसलिए किया जा सकता है क्योंकि विपक्षी गठबंधन को लेकर कई अगर-मगर हैं. केंद्र की राजनीति के लिहाज़ से बीजेपी बेहद मज़बूत स्थिति में है. उसकी ताक़त या राजनीतिक हैसियत अभी भी इतनी अधिक है कि विपक्ष में कांग्रेस समेत कोई भी ऐसा दल नहीं है, जो अकेले बीजेपी को चुनौती देने का दावा कर सके या दमख़म रखता हो. विपक्ष के लिए फ़िलहाल सीट बँटवारा तात्कालिक तौर से सबसे बड़ी समस्या है. उसके बाद विपक्षी गठबंधन के सामने दो और बड़ी समस्या है.
2024 के लिए मुद्दा और नैरेटिव की चुनौती
पहला, आम चुनाव 2024 के लिए बीजेपी के बर-'अक्स देशव्यापी स्तर पर मुद्दा और नैरेटिव गढ़ने और स्थापित करने की चुनौती है. इसमें बीजेपी को महारथ हासिल है. विपक्ष के हर नैरेटिव का काट बीजेपी हिन्दुत्व, सनातन परंपरा, राष्ट्रवाद, राष्ट्र निर्माण जैसे शब्दों और प्रतीकों से निकालते आयी है. विधान सभा चुनाव में भले ही यह बीजेपी लिए उतना लाभदायक न हो, लेकिन लोक सभा में इन मुद्दों और नैरेटिव से वो वोटों का ध्रुवीकरण करने में कामयाब होते रही है.
यही कारण है कि पिछले नौ साल से महँगाई, बेरोजगारी, ग़रीबी, आर्थिक असमानता की बढ़ती खाई, बड़े-बड़े उद्योगपतियों को फ़ाइदा जैसे मुद्दे लंबे समय तक के लिए सुर्खियों में कभी नहीं रहे हैं. यहाँ तक कि मणिपुर के लोग पिछले साढ़े पाँच महीने से हिंसा की आग में झुलसने को विवश हैं, वहाँ महिलाओं पर बर्बरतापूर्ण अत्याचार के वीडियो तक वायरल हो चुका है. उसके बावजूद विपक्ष मणिपुर हिंसा को देशव्यापी स्तर पर बड़ा मुद्दा बनाने में असफल रहा है. इसका कारण है कि जो भी विपक्षी दल हैं, वे जनता से जुड़े मुद्दों के लिए लगातार सड़कों पर संघर्ष करते नहीं नज़र आते हैं. संसद सत्र चलता है, तब कुछ सुगबुगाहट ज़रूर दिखाई देती है. जैसे ही संसद सत्र ख़त्म होता है, यह सुगबुगाहट भी गायब हो जाती है.
चेहरे की लड़ाई में कमज़ोर है विपक्ष
सीट बँटवारा, मुद्दों और नैरेटिव के विमर्श के अलावा विपक्षी गठबंधन के सामने जो सबसे बड़ी समस्या है, वो है चेहरे की समस्या. बीजेपी के पास 2024 के चुनाव के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जैसा चेहरा है. पिछले दो लोक सभा चुनाव में बीजेपी की जीत में बतौर चेहरा नरेंद्र मोदी की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण रही थी. अभी भी देशव्यापी स्तर पर उनकी लोकप्रियता के आस-पास भी कोई और नेता नहीं है. इससे कोई इंकार नहीं कर सकता है. यह सही है कि सिर्फ़ चेहरे से चुनाव नहीं जीता जाता है. भारत में सियासत को लेकर पिछले एक दशक से जिस तरह का माहौल बना हुआ है, उसमें लोक सभा चुनाव के नज़रिये से चेहरे का महत्व काफ़ी बढ़ जाता है.
चेहरा मतलब चुनाव में बहुमत हासिल करने पर प्रधानमंत्री कौन बनेगा. चेहरे के मसले पर विपक्षी गठबंधन बेहद कमज़ोर है. चाहकर भी विपक्षी गठबंधन 2024 के आम चुनाव को चेहरे की लड़ाई नहीं बना सकता है. अगर विपक्षी गठबंधन की ओर से ऐसा कोई प्रयास किया भी गया, तो यह एक तरह से आत्मघाती गोल सरीखा होगा. अगर किसी दल ने इसकी माँग भी की या ठोस तरीक़े से कोशिश भी की तो विपक्षी एकजुटता ही ख़तरे में आ जायेगी. विपक्षी गठबंधन के सामने यह एक ऐसी समस्या है, जिसका तोड़ उसके पास है ही नहीं. आगामी आम चुनाव में इससे विपक्षी गठबंधन के मंसूबे को किस तरह का और कितना झटका लगेगा, यह तो नतीजों के बाद ही पता चलेगा.
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