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BRICS बनेगा दुनिया का सबसे ताकतवर मंच, संभावित विस्तार में रूस-चीन की मंशा पर भारत को रखनी होगी नज़र

ब्रिक्स ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ़्रीका का एक समूह है. वैश्विक राजनीतिक व्यवस्था में ब्रिक्स में शामिल सदस्य देश फिलहाल दुनिया की सबसे तेज़ी से उभरती अर्थव्यवस्थाओं में शामिल हैं. अभी तो इसमें सिर्फ़ 5 ही देश सदस्य हैं, लेकिन तकरीबन 20 देश इसकी सदस्यता हासिल करने को लेकर इच्छुक दिख रहे हैं.

ब्रिक्स के संभावित विस्तार पर काम

अभी दक्षिण अफ्रीका के केपटाउन में ब्रिक्स देशों के विदेश मंत्रियों की बैठक हुई है. इसमें दो मुद्दे छाए रहे. पहला ब्रिक्स का विस्तार और दूसरा अंतरराष्ट्रीय व्यापार में स्थानीय मुद्राओं के इस्तेमाल पर ज़ोर. इस बैठक में हिस्सा लेते हुए भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर ने कहा भी कि ब्रिक्स समूह के विस्तार के काम पर सदस्य देश सकारात्मक इरादे और खुले दिमाग से विचार कर आगे बढ़ रहे हैं.

दरअसल ब्रिक्स में नए सदस्यों को शामिल करने को लेकर कोई निर्धारित प्रक्रिया तय नहीं है. 2020 के बाद से ब्रिक्स समूह को विस्तार देने पर चर्चा तेज हुई है. पहले सदस्यों देशों ने आपसी सहमति से इस समूह में 2010 में दक्षिण अफ्रीका का शामिल किया. उससे पहले इसे BRIC के नाम से जाना जाता था. दक्षिण अफ्रीका के शामिल होने के बाद ये BRICS बन गया.  

विस्तार से पहले हर पहलू पर हो गौर

भारत चाहता है कि ब्रिक्स के संभावित विस्तार से जुड़े हर पहलू पर सदस्य देशों के बीच अच्छे से रायशुमारी होनी चाहिए. विस्तार से जुड़े हर पहलू पर गौर होना चाहिए. भारत का मानना रहा है कि इससे कई पहलू जुड़े हुए हैं. सबसे महत्वपूर्ण है कि अभी जो सदस्य हैं, वे एक-दूसरे के साथ किस प्रकार का सहयोग कर रहे हैं. साथ ही ये भी देखना होगा कि ब्रिक्स देशों का गैर ब्रिक्स देशों के साथ कैसा जुड़ाव है. इसके साथ ही ब्रिक्स के संभावित विस्तार का प्रारूप क्या होगा, इस पर भी भारत चाहता है कि अच्छे से सोच-विचार होना चाहिए.

विस्तार में व्यक्तिगत एजेंडा स्वीकार नहीं

विदेश मंत्री एस जयशंकर ने भारत के पक्ष को केपटाउन में बखूबी तरीके से रखा. फिलहाल संभावित विस्तार पर काम करने के लिए ब्रिक्स सदस्यों का प्रतिनिधित्व करने वाले शेरपाओं को जिम्मेदारी सौंपी गई है. लेकिन एस जयशंकर ने इस दिशा में जो बातें कही है, उससे साफ है कि भारत ने बड़े ही बेबाकी से सदस्य देशों को स्पष्ट कर दिया है कि विस्तार में किसी भी देश का व्यक्तिगत एजेंडा स्वीकार नहीं किया जाएगा.

दक्षिण अफ्रीका ने भी साफ कर दिया है कि ब्रिक्स के संभावित विस्तार को लेकर जब तक कोई उपयोगी दस्तावेज या प्रक्रिया नहीं बन जाता है, तब तक इस दिशा में आगे नहीं बढ़ा जाएगा. दरअसल ब्रिक्स की अध्यक्षता फिलहाल दक्षिण अफ्रीका के पास है. इस साल 23 अगस्त को ब्रिक्स शिखर सम्मेलन प्रिटोरिया में होना है, जिसमें सदस्य देशों के राष्ट्राध्यक्ष शामिल होंगे. दक्षिण अफ्रीका का कहना है कि इस शिखर सम्मेलन तक अगर विस्तार से जुड़ी कोई प्रक्रिया या नीति तैयार हो जाती है, तो फिर उस पर विचार किया जाएगा.

भारत के पक्ष पर ब्राजील के विदेश मंत्री मौरो विएरा ने भी सहमति जताई है. ब्राजील का मानना है कि ब्रिक्स अब एक ब्रांड बन चुका है और ये सदस्य देशों की एक बड़ी संपत्ति है. इस कारण से विस्तार में इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए. ब्राजील की बातों से भी स्पष्ट है कि वो भी विस्तार में किसी ख़ास देश के सिर्फ इस वजह से शामिल करने के पक्ष में नहीं है कि वो देश रूस या चीन का करीबी है.

ब्रिक्स को लेकर बढ़ रहा है आकर्षण

ब्रिक्स के प्रति कई देशों का आकर्षण बढ़ा है. चीन और रूस का ब्रिक्स के विस्तार पर काफी ज़ोर है. चीन का मानना है कि 'ब्रिक्स प्लस' की अवधारणा बहुत तेजी से विकसित हो रही है. वहीं रूस के विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव का कहना है कि ब्रिक्स समूह बहुध्रुवीयता का प्रतीक बन चुका है और ज्यादा से ज्यादा देशों का इस समूह के प्रति बढ़ता आकर्षण इसका प्रमाण है.

इससे पहले भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने भी कहा था कि ब्रिक्स अब विकल्प नहीं रहा, ये वैश्विक परिदृश्य की स्थापित विशेषता है. साथ ही उन्होंने ये भी कहा था कि ब्रिक्स समूह न सिर्फ़ बहुध्रुवीयता का प्रतीक है. अब ये अंतरराष्ट्रीय चुनौतियों से निपटने के कई तरीकों की अभिव्यक्ति भी है.

सदस्यता में करीब 30 देशों की है रुचि

ब्रिक्स में शामिल होने के लिए ईरान, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, कजाकिस्तान, क्यूबा, कांगो, कोमोरोस, गैबन के साथ ही  मिस्र, अर्जेंटीना, बांग्लादेश, इंडोनेशिया और गिनी बिसाऊ बेहद उत्सुक है. एक और दो जून को केपटाउन में हुए ब्रिक्स के विदेश मंत्रियों की बैठक में इन देशों ने या तो अपने प्रतिनिधि भेजे थे या फिर वर्चुअल तरीके से शामिल हुए थे. इन देशों के अलावा अल्जीरिया, बहरीन, बेलारूस, मैक्सिको, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, निकारगुआ, नाइजीरिया, ज़िम्बाब्वे, सेनेगल, सूडान, सीरिया, थाईलैंड, ट्यूनीशिया, तुर्किये, वेनेजुएला और उरुग्वे ने ब्रिक्स की सदस्यता को लेकर रुचि दिखाई है.

इस तरह से करीब 30 देश ब्रिक्स की सदस्यता  के लिए इच्छा जाहिर कर रहे हैं. ये ब्रिक्स की बढ़ती अहमियत को दिखाता है. फिलहाल सिर्फ 5 देशों के सदस्य होने के बावजूद ब्रिक्स देशों में दुनिया की करीब 40 फीसदी आबादी रहती है. वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद में ब्रिक्स देशों का हिस्सा करीब 30% है.

ब्रिक्स का भविष्य है बेहद उज्ज्वल

ये वो देश हैं जिनमें आबादी के साथ वैश्विक अर्थव्यवस्था में हलचल होने पर भी घरेलू अर्थव्यवस्था को संभालने और उसमें विकास की गति बनाए रखने की क्षमता और संभावनाएं दोनों ही भरपूर है. आर्थिक जानकारों का ये भी मानना रहा है कि आने वाले 30 साल में ये सारे देश दुनिया में कच्चे माल, उद्योग, विनिर्माण और सेवाओं के  सबसे प्रमुख आपूर्तिकर्ता होंगे. इनमें रूस और ब्राजील का भविष्य कच्चे माल को लेकर बेहद उज्ज्वल है, तो  भारत और चीन की स्थिति उद्योग, विनिर्माण और सेवाओं के आपूर्ति के मामले में बेहद मजबूत स्थिति बनने वाली है.

भारत का हमेशा से मानना रहा है कि वो वैश्विक राजनीति में सबको साथ लेकर चलने में भरोसा करता है. जी 20 अध्यक्ष के तौर पर भारत ने 'वन अर्थ, वन फैमिली, वन फ्यूचर' थीम को अपनाया भी है. इसका मतलब ही है कि भारत की विदेश नीति किसी गुट के जरिए ध्रुवीकरण के पक्ष में कभी नहीं रहा है. या तो भारत सभी गुटों के साथ तालमेल बनाकर चलना चाहता है या फिर किसी गुट में शामिल नहीं होने की नीति रही है.

रूस-चीन के इरादे पर रखनी होगी नज़र

इसके विपरीत रूस और चीन वैश्विक राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था में  पश्चिमी देशों के दबदबे को चुनौती देने की नीति पर आगे बढ़ रहे हैं. उनमें भी रूस और चीन का मुख्य ज़ोर अमेरिका के वर्चस्व को खत्म करने पर है. ऐसे में ये दोनों ही देश चाहेंगे कि ब्रिक्स का इस्तेमाल इस नजरिए से भी किया जा सके. आने वाले समय में ब्रिक्स का विस्तार होना है. इसको देखते हुए रूस और चीन अपने कूटनीतिक हितों को साधने के हिसाब से ब्रिक्स के विस्तार को वैसा रूप दे सकते हैं. भारत को इसे लेकर सतर्क रहने की जरूरत है.

चीन, ईरान और सऊदी अरब के साथ अपने संबंधों को मजबूत करने में जुटा है. यही वजह है कि चीन ने ईरान और सऊदी अरब के बीच दोस्ती कराने के लिए पिछले कुछ महीनों से लगातार जद्दोजहद कर रहा था. ये दोनों मध्य पूर्व के दो प्रतिद्वंद्वी देश रहे हैं. चीन के प्रयासों का ही का नतीजा था कि इस साल मार्च में चीन में दोनों देशों के अधिकारियों के बीच बातचीत होती है और उसके बाद ईरान और सऊदी अरब कूटनीतिक रिश्ते बहाल करने का ऐलान करते हैं. उस वक्त इससे पूरी दुनिया चकित रह जाती है. इन दोनों देशों ने 7 साल पहले 2016 में राजनयिक संबंध तोड़ लिए थे.

मध्य पूर्व में चीन अपनी भूमिका लगातार बढ़ा रहा है. इसके साथ ही रूस और चीन मिलकर अमेरिका और पश्चिमी देशों के वैश्विक अर्थव्यवस्था पर पकड़ को खत्म करने में जुटे हैं. वहीं भारत की नीति फिलहाल अमेरिका और रूस के बीच संतुलन बनाकर चलने की है. भारत के हितों के हिसाब से भी कूटनीतिक तौर से यही सही है.

पश्चिमी विरोधी गुट बनाने की न हो कोशिश

हालांकि अगर ब्रिक्स के संभावित विस्तार में चीन, रूस के साथ मिलकर उन देशों को जगह देने की कोशिश करेगा, जो उनके लिए ज्यादा फायदेमंद होंगे, तब इस स्थिति में भारत के लिए स्वतंत्र विदेश नीति का रास्ता कठिन हो सकता है. भारत को ये ध्यान रखना होगा कि चीन और रूस मिलकर विस्तार के नाम पर ब्रिक्स को पश्चिमी विरोधी गुट बनाने की कोशिश न करें. अगर ईरान निकट भविष्य में ब्रिक्स में शामिल हो जाता है तो इस समूह में अमेरिका विरोधी देशों की संख्या बढ़ जाएगी. अमेरिका लगातार भारत से संबंधों को प्रगाढ़ करने की बात कर रहा है.

सीमा विवाद को लेकर कुछ सालों से चीन के साथ भारत का संबंध बेहद खराब दौर में है. इंडो पैसिफिक रीजन में चीन के आक्रामक रुख को देखते हुए भारत के लिए क्वाड भी उतना ही महत्वपूर्ण है. ब्रिक्स और क्वाड दोनों की सदस्यता होने की वजह से ब्रिक्स के संभावित विस्तार में भारत को संतुलन बनाकर चलने की जरूरत है.

इसका एक और पक्ष भी है. उस पर भी गौर करने की जरूरत है. अगर ब्रिक्स में अमेरिका विरोधी देशों की संख्या बढ़ती है तो ये दूसरे संदर्भ में भारत के लिए फायदेमंद भी हो सकता है. अमेरिका कतई नहीं चाहेगा कि ब्रिक्स के बहाने आने वाले वर्षों में पश्चिमी विरोधी ताकतें एकजुट हों. अगर ब्रिक्स के विस्तार के बाद ऐसा हुआ तो ब्रिक्स के ज्यादातर देशों में से एकमात्र भारत ही बड़ी आर्थिक ताकत रहेगा, जिसके साथ अमेरिका के साथ संबंध लगातार बेहतर हो रहे हैं और अमेरिका भी सिर्फ़ भारत से ही बातचीत कर सकता है. हो सकता है कि अमेरिका दबाव की भी राजनीति करे या फिर वो रूस और चीन को साधने के लिए भारत को बढ़ावा भी दे सकता है.

रूस-चीन की अमेरिकी दबदबे पर नज़र

रूस और चीन चाहते हैं कि जिस तरह से सोवियत संघ के विघटन के बाद पिछले 3 दशक में अमेरिका का विश्व व्यवस्था में दबदबा रहा है अब वैसा न हो. इसके लिए कहने को तो ये दोनों देश बहुध्रुवीय दुनिया की बात करते हैं, लेकिन वास्तविकता में रूस और चीन का जो रवैया दिख रहा है, वो पश्चिमी देशों की लामबंदी के खिलाफ में एक विरोधी गुट बनाने की मंशा दर्शाती है.

भारत सही मायने में बहुध्रुवीय दुनिया की संकल्पना का समर्थन करता है और अपनी विदेश नीतियों को भी उस हिसाब से स्वतंत्र बनाए रखने के लिहाज से ही कदम उठाते आया है. अब तो और भी मुखर होकर भारत अपनी बातें कह रहा है. जब कुछ महीने पहले रूस-यूक्रेन युद्ध के संदर्भ में विदेश मंत्री एस जयशंकर ने ये बात कही थी कि यूरोप की समस्याएं विश्व की समस्याएं हैं, लेकिन विश्व की समस्याएं यूरोप की समस्याएं नहीं हैं, उनके इस बयान में स्पष्टता भी थी और दुनिया के लिए संदेश भी था कि भारत विदेश नीति में अपने हितों के हिसाब से ही कोई भी कदम उठाएगा.

व्यापार में खत्म हो डॉलर की बादशाहत

केपटाउन में ब्रिक्स देशों के विदेश मंत्रियों की बैठक में एक और मुद्दा रहा. ब्रिक्स देश चाहते हैं कि अंतरराष्ट्रीय व्यापार  और वित्तीय लेन-देन में डॉलर की बादशाहत खत्म हो. इसके जगह पर स्थानीय मुद्राओं के प्रचलन पर ज़ोर हो. केपटाउन में हुए विदेश मंत्रियों की बैठक के आखिर में जारी साझा बयान में इसी बात पर बल दिया गया. इस बयान में एक मजबूत वैश्विक वित्तीय सुरक्षा आवरण को जरूरी बताया गया. साथ ही इसके लिए अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की व्यवस्था में सुधार प्रक्रिया को इस साल के 15 दिसंबर तक पूरा करने की बात कही गई. ब्रिक्स देश चाहते हैं कि आईएमएफ में नया कोटा फॉर्मूला अपनाया जाए. मौजूदा स्थिति में अमेरिका का कोटा ज्यादा है.

स्थानीय मुद्राओं के प्रचलन पर ज़ोर

वैश्विक आर्थिक व्यवस्था पर लंबे वक्त से अमेरिकी दबदबा का एक प्रमुख कारण अंतरराष्ट्रीय व्यापार में डॉलर की बादशाहत रहा है. रूस और चीन इसको खत्म करना चाहते हैं. जब तक डॉलर का दबदबा खत्म नहीं होगा, तब तक दुनिया की दूसरी मुद्राओं का प्रचलन अंतरराष्ट्रीय व्यापार में तेजी से नहीं बढ़ेगा.

चीन चाहता है कि वो एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिकी देशों से व्यापार में चीनी मुद्रा युआन में भुगतान करे. चीन के साथ व्यापार में युआन का इस्तेमाल रूस पहले से ही कर रहा है. ये दोनों देश जानते हैं कि डॉलर की मोनोपॉली अगर खत्म हो जाए तो फिर वैश्विक व्यवस्था में अमेरिका की वैसी पकड़ नहीं रह जाएगी. ब्रिक्स में शामिल ब्राजील भी चीन के साथ युआन में भुगतान करने के लिए समझौता पहले ही कर चुका है.

कई देश डॉलर के प्रभुत्व से परेशान

ये भी बात सही है कि भारत समेत एशिया के कई देश डॉलर के प्रभुत्व से परेशान है. यूक्रेन से युद्ध के बाद अमेरिका और पश्चिमी देशों ने रूस के कच्चे तेल के व्यापार में डॉलर से लेनदेन पर पाबंदी लगा रखी है. इससे भारत को भी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है. भारत भी चाहता है कि स्थानीय मुद्रा में व्यापार को बढ़ावा मिले और डॉलर पर भारतीय अर्थव्यवस्था की निर्भरता धीरे-धीरे कम हो. ऐसे भी पिछले एक साल भारत बड़े पैमाने पर रूस से कच्चे तेल का आयात कर रहा है. रूस अभी भारत के लिए कच्चे तेल का सबसे बड़ा निर्यातक है. अगर रूस के साथ रुपये में व्यापार पर बात बन जाती है, तो ये भारत के लिए बेहद ही फायदेमंद साबित हो सकता है. उसी तरह से भारत संयुक्त अरब अमीरात से भी व्यापार में भुगतान स्थानीय मुद्रा दिरहम और रुपये में चाहता है.

जो भी देश ब्रिक्स समूह में शामिल होने की मंशा रखते हैं, उनमें से कई देश ऐसे हैं, जो रूस और चीन के करीबी होने के नाते डॉलर की बजाय दूसरी मुद्राओं में अंतरराष्ट्रीय व्यापार के हिमायती हैं.  अब बिक्स के संभावित विस्तार के जरिए रूस और चीन दोनों ही चाहेंगे कि भविष्य में डॉलर की बजाय अंतरराष्ट्रीय व्यापार में रूबल और युआन का महत्व बढ़े. भारत भले ही डॉलर पर निर्भरता कम करना चाहता है, लेकिन उसे इस बात पर भी ध्यान देना होगा कि ब्रिक्स के विस्तार के बहाने रूस और चीन अपने एजेंडे को न साध ले.

ब्रिक से ब्रिक्स तक का सफर

ब्रिक्स दक्षिण अफ्रीका के शामिल होने से पहले BRIC था.  उस वक्त के सबसे ताकतवर निवेश बैंक  Goldman Sachs में काम करने वाले अर्थशास्त्री जिम ओ'नील ने पहली बार 2001 में ब्राजील, रूस, इंडिया और चीन इन 4 देशों को ब्रिक समूह के तौर पर वर्गीकृत किया था.  इनका मानना था कि 2050 तक तेजी से उभरती ये 4 अर्थव्यवस्थाएं 2050 तक वैश्विक अर्थव्यवस्था पर सामूहिक रूप से हावी होंगी.

रूस के सेंट पीटर्सबर्ग में 2006 में G8 समूह के सालाना सम्मेलन के साथ ही इन 4 देशों के नेताओं के बीच मुलाकात हुई थी. सितंबर 2006 में न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र महासभा के सालाना बैठक के दौरान इन 4 देशों के विदेश मंत्रियों की औपचारिक बैठक में समूह को BRIC नाम दिया गया. इस समूह का पहला शिखर सम्मेलन जून 2009 में रूस के येकाटेरिंगबर्ग में  हुआ. तब से इसका सालाना समिट होने लगा और ब्राज़ील की राजधानी ब्रासीलिया में हुए दूसरे शिखर सम्मेलन में 2010 में दक्षिण अफ्रीका भी इससे जुड़ गया है ये 5 देशों का समूह ब्रिक्स बन गया.

एक वक्त था, जब ब्रिक्स की प्रासंगिकता को लेकर सवाल उठने लगे थे. अब जिस तरह से पिछले दो साल में कई देशों ने ब्रिक्स की सदस्यता को लेकर इच्छा जाहिर की है, उसको देखते हुए कहा जा सकता है कि भविष्य में ब्रिक्स दुनिया का सबसे ताकतवर मंच साबित हो सकता है. विस्तार पर सदस्य देशों के बीच चर्चा भी तेज़ हो गई है, ऐसे में उम्मीद है कि जल्द ही ब्रिक्स का नया प्रारूप दुनिया को देखने को मिल सकता है और ब्रिक्स के उस बदले और विस्तारित प्रारूप में भारत की भूमिका वैश्विक नजरिए से बेहद महत्वपूर्ण रहने वाली है.

(यह आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है)

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