भाजपा की उम्मीदें अब सात बहनों के आशीर्वाद पर जा टिकी हैं. जी हां, सेवेन सिस्टर्स के नाम से विख्यात भारत के 7 उत्तर-पूर्वी राज्यों को अपने झंडे तले लाने के लिए भाजपा प्राणपण से जुटी हुई है. पार्टी यह भी समझ रही है कि भले ही इन राज्यों में कुल मिलाकर लोकसभा की मात्र 11 सीटें हैं, लेकिन अगर उसे 2019 में 2014 वाला मैदानी प्रदर्शन दोहराना है तो पूर्वोत्तर के पहाड़ी राज्यों को भी ‘कांग्रेसमुक्त’ बनाना है. वैसे भी अब सिर्फ मेघालय और मिजोरम में ही कांग्रेस की सरकार बची है.


बीते साल असम चुनावों में मिली भारी जीत और फिर मणिपुर में सरकार के गठन से भाजपा के हौसले पहले ही बुलंद हैं. राजनीतिक भूचाल के मध्य अरुणाचल प्रदेश में कांग्रेसी पेमा खाण्डू ने दिसंबर 2016 में ही कमल खिला लिया था. नागालैंड में भाजपा नगा पीपुल्स फ्रंट की साझा सरकार का हिस्सा है. अब त्रिपुरा में 28 जनवरी और मेघालय व नागालैण्ड में 27 फरवरी को मतदान होने जा रहा है. इन तीनों राज्यों में विधानसभा की 60-60 सीटें हैं, जिनकी राज्यसभा में भाजपा के लिए खासी अहमियत होगी. कांग्रेसी मुख्यमंत्री लाल थान्हावला का मिजोरम इसी साल नवंबर में चुनावों का मुंह देखेगा.


जैसा कि अतीत में हमने देखा है, इन सात बहनों का आशीर्वाद पाने के लिए भाजपा साम-दाम-दंड-भेद का प्रयोग करने से नहीं चूकेगी. जुमलेबाजी का अमोघ तीर उसके बड़े नेताओं के तूणीर में स्थायी भाव की तरह उपस्थित रहता ही है. त्रिपुरा की वामपंथी सरकार खास तौर पर भाजपा की आंख की किरकिरी है. वहां के मुख्यमंत्री को निशाना बनाते हुए पीएम नरेंद्र मोदी ने चुनावी अभियान की शुरुआत में ही जुमला कसा है- “त्रिपुरा को माणिक नहीं, हीरा चाहिए.” जाहिर है निशाना मुख्यमंत्री माणिक सरकार हैं.


पहाड़ों की सीढ़ीदार खेती की ही तर्ज पर कांग्रेस के लिए उत्तर-पूर्वी राज्यों के चुनाव परिणामों का सीढ़ीदार असर होगा. उसके लिए जीत का मतलब होगा कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की छवि का निखरना, उत्तर-पूर्व में खोया हुआ गौरव पुनर्प्राप्त करना, चुनावों में जा रहे भाजपा शासित मैदानी राज्यों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में तगड़ी चुनौती पेश कर पाने की स्थिति में आना और आखिरकार 2019 के आम चुनावों में केंद्रीय सत्ता का प्रबल दावेदार बनना.


लेकिन कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी चुनौती अपने ही नेताओं को काम, क्रोध, मद और मोह जैसे महादोषों से बचाने की है. त्रिपुरा में पिछले साल अगस्त में उसके छह विधायक पार्टी छोड़कर भाजपा में शामिल हो गए थे. नागालैण्ड में 2015 के दौरान कांग्रेस के सभी आठ विधायक सत्तारूढ़ फ्रंट में शामिल हो गए थे और कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व हाथ मलता रह गया था. 2016 में अरुणाचल प्रदेश का लगभग भजनलाल ही हो गया था! मेघालय में पिछले दिसम्बर में जो चार विधायक भाजपा में शामिल हुए उनमें कांग्रेस का भी एक विधायक था. अभी 2018 के प्रारम्भ में जो आठ विधायक भाजपा की सहयोगी पार्टी एनपीपी में शामिल हुए, उनमें से पांच कांग्रेसी हैं. बीते दिसंबर में जब पीएम नरेंद्र मोदी ने ईसाई बहुल राज्य मेघालय और मिजोरम का दौरा किया था तो सैकड़ों कार्यकर्ताओं ने भाजपा का दामन थाम लिया.


भाजपा को अच्छी तरह पता है कि उत्तर-पूर्व में उसके पास शेष भारत की तरह न तो ज़मीनी स्तर के कार्यकर्ता हैं और न ही काडर. ऐसे में वह छोटे दलों के साथ और कांग्रेस के विधायकों को भाजपा में शामिल करके ही अपना खूंटा गाड़ सकती है. इसी रणनीति के तहत पार्टी ने मई 2016 में हेमंत बिस्वा की अगुवाई में नेडा (नार्थ-ईस्ट डेमोक्रेटिक एलांइस) का गठन किया, जिसमें पूर्वोत्तर के कई महत्वपूर्ण गैर कांग्रेसी दलों के साथ गठबंधन किया गया. इसमें सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रंट, असम गण परिषद्‌, नगा पीपुल्स फ्रंट और नेशनल पीपुल्स पार्टी प्रमुख हैं. इन्हीं छोटे दलों के साथ भाजपा सिक्किम, असम, अरुणाचल प्रदेश और मणिपुर में अपनी सरकार चला रही है. इस बार भाजपा यह यकीन दिलाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ रही कि उसने भारत की 'लुक ईस्ट' पॉलिसी का नाम 'एक्ट ईस्ट' में बदलकर उसे और सॉलिड बना दिया है.


दूसरी तरफ कांग्रेस ईसाई बहुल मेघालय और मिजोरम में भाजपा के बीफ बंदी वाले मुद्दे पर ही आश्रित है. वह भाजपा की पार्टी तोड़ने वाली, राजनीतिक वफादारियां खरीदने वाली, सामाजिक दरार पैदा करने वाली और हिंदुत्व का कार्ड खेलने वाली कुचेष्टाओं के खिलाफ माहौल तक नहीं बना पा रही. असम में अगर कांग्रेस से टूट कर लोग नहीं आए होते और हेमंत बिस्व सरमा ने कमान नहीं संभाली होती तो असम भाजपा को किसी कीमत पर नहीं मिलता. सरमा ने ही पूर्वोत्तर के अन्य सभी राज्यों में भाजपा को कई मददगार लोग और दल दे दिए जो भाजपा के लिए बंजर पड़ी जमीन को उपजाऊ बनाने में जुटे हैं. त्रिपुरा की हसीन, मासूम और शांत वादियों में साम्प्रदायिकता के बबूल बोए जा रहे हैं. भाजपा की कलाबाजी देखिए कि बीते विधानसभा चुनाव में जहां बीजेपी को एक भी सीट नहीं मिली थी, वहीं तृणमूल कांग्रेस और निर्दलीय विधायकों को पार्टी में शामिल करके वह त्रिपुरा की प्रमुख विपक्षी पार्टी बन बैठी है!


भाजपा की चुनावी तैयारियों और रणनीतिक दूरदर्शिता के मुकाबले कांग्रेस अजगर जैसी काहिल पार्टी नजर आती है. सक्रियता का आलम देखिए कि पिछले दिसंबर में जब विश्लेषकगण मतदान के पश्चात्‌ गुजरात चुनाव परिणामों का कयास लगा रहे थे, ठीक उसी समय पीएम मोदी निश्चिंत होकर मेघालय और मिजोरम में दनादन रैलियां कर रहे थे. मिजोरम के कोलासिब जिले में 60 मेगावाट क्षमता वाली एक पनबजिली परियोजना और तुईरिल हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट का फीता काट रहे थे. मेघालय में शिलॉंग-नोंगस्टोइस्न-रोंगजेंग-तुरा रोड का उद्घाटन कर रहे थे. उत्तर-पूर्व में चार हजार किमी राजमार्ग बनाने के लिए 3200 करोड़ रुपये और 15 नई रेल लाइनों के लिए 47 हजार करोड़ रुपए देने की घोषणाएं कर रहे थे. भाजपाध्यक्ष अमित शाह राजनीतिक गोटियां बिठाने के लिए बार-बार वहां डेरा डाल रहे थे. कैथोलिक चर्च की काट निकालने के लिए आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत स्वयं जाकर पूर्वोत्तर को सांगठनिक रूप से मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश, उत्तर असम व दक्षिण असम प्रांतों में बांट रहे थे. माहौल बनाने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के निर्देश पर हर दो सप्ताह में कोई न कोई केंद्रीय मंत्री उत्तर-पूर्व के दौरे पर जा ही रहा है.


स्पष्ट है कि सीटों की संख्या और राजनीतिक बर्चस्व के मामले में पूर्वोत्तर के इन चुनाव झेलने जा रहे राज्यों की भले ही कोई खास अहमियत नजर न आती हो लेकिन यहां मिली जीत भाजपा के लिए मनोवैज्ञानिक टॉनिक का काम करेगी. आखिरकार किसी जमाने में पूर्वोत्तर के हर राज्य में कांग्रेस की मजबूत उपस्थिति राष्ट्रीय राजनीति में भी उसकी दबंगई का प्रतीक थी.


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