प्रेमानंद महाराज कहते हैं,
शुद्ध मन और अच्छे भाव होने पर रोज़ मंदिर जाना ज़रूरी नहीं.


अगर मंदिर जाकर भी व्यक्ति छल और पाप करता है,
तो उसकी यात्रा व्यर्थ मानी जाती है.


असली भक्ति हमारे विचारों और आचरण की
पवित्रता में होती है, केवल मंदिर में नहीं.


माता-पिता और बुजुर्गों की सेवा करना
भी भगवान की पूजा के बराबर है.


मन का मंदिर साफ़ रखना बाहरी
पूजा से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है.


दूसरों के प्रति द्वेष और ईर्ष्या रखकर की
गई भक्ति अधूरी रह जाती है.


भगवान को पाने का असली मार्ग सच्चे
प्रेम और सेवा भाव से होकर गुजरता है.


अगर मंदिर न जा सकें, तो घर में श्रद्धा
से भगवान को याद करना ही पर्याप्त है.


जरूरतमंदों की मदद करना और उनका
दुख दूर करना भी भगवान की सेवा है.


महाराज का संदेश साफ़ है —
सच्ची भक्ति दिखावे में नहीं, दिल की सच्चाई में बसती है.