Chitrakoot News: दूसरों के घरों को रोशन करने वाले कुम्हार आज खुद रोशनी को मोहताज होते जा रहे हैं. आलीशान बंगलों पर सजी चाइनीज लड़ियां बेशक लोगों के मन को खूब भाती हों, लेकिन इन बंगलों के नीचे भारतीय परंपरा को निभाते आ रहे कुम्हारों की माटी दबी पड़ी है.


ढाई से 3 हजार रुपए में चिकनी मिट्टी ट्राली रेत खरीदकर दिए बनाकर कुम्हार मुनाफा नहीं कमा रहा, बल्कि अपनी संस्कृति, रीति-रिवाज को जीवंत रखने का प्रयास कर रहा है.


आज से 10-15 पंद्रह वर्ष पहले जहां कुम्हारों को आस-पास की जगह से ही दिए बनाने के लिए चिकनी मिट्टी आसानी से फ्री में उपलब्ध हो जाती थी. वहीं अब इस मिट्टी के लिए मोटी कीमत चुकानी पड़ती है. इस मिट्टी से तैयार 50 पैसे के दीपक को खरीदते समय लोग मोल-भाव भी करना नहीं भूलते. 


अब मिट्टी भी खरीदनी पड़ती है


कुम्हारों की माने तो पहले किसी आस-पास के गांव, जोहड़ या खाली जगह से वे दीपक बनाने के लिए चिकनी मिट्टी खोद लिया करते थे. अब उन जगहों पर आलीशान बंगले बन गए हैं. अगर किसी के गांव या खेत में चिकनी मिट्टी उपलब्ध है, तो वे इसका व्यापार करते हैं. यहां के किसान अपने खेतों की चिकनी मिट्टी को महंगे दामों में बेचकर इस बीच खूब मुनाफा कमाते हैं. 


मिट्टी के दीपक बनाने वाले कुंभकार की व्यथा सुनते हैं, तो पता चलता है कि हमारी एक छोटे से दीपक को बनाने में मिट्टी खरीदने से लेकर दीपक भट्टी में तपाने तक कितना बड़ा संघर्ष होता है. तब जाकर कहीं हम अपनी संस्कृति को निभा पाते हैं. समय के साथ चिकनी मिट्टी के स्त्रोत और जगहों के समाप्त होने के साथ कुम्हारों को चिकनी मिट्टी मोल लेनी पड़ रही है.


15 साल पहले जहां 1 पैसे के दीपक में कुम्हार को अच्छी बचत हो जाती थी, वहीं आज चायनीज़ लाइट के चक्कर में एक दीपक 50 पैसे में बेचने को मजबूर हैं. अब कुम्हार रत्तीभर मुनाफा नहीं कमा पाता है. वहीं खरीदी हुई मिट्टी में से भी कुम्हार की एक तिहाई मिट्टी बर्बाद हो जाती है.


सभ्यता और संस्कृति के लिहाज से बना रहे दिये


दीपक बनाने वाले कारीगर कहते हैं कि वे मिट्टी के बर्तन, दीपक, घड़े बनाने का काम केवल उनकी सभ्यता और संस्कृति के लिहाज और अपने भरण पोषण के लिए करते हैं, अन्यथा इससे उन्हें कोई मुनाफा नहीं है. महंगी मिट्टी खरीदकर काम शुरू करना, एक तिहाई मिट्टी का खराब हो जाना और फिर दीपक तैयार करने के बाद भट्टी में औसतन 100 में 5 दीपकों का खराब हो जाना निश्चित है.


ऐसे में कुम्हार मुनाफा कैसे कमा सकता है. यह तो केवल भारतीय संस्कृति के प्रति श्रद्धा है. संस्कृति और पेट की आग में मिट्टी के दियों के साथ मिट्टी के खिलौने बनाकर बाजार में बेचकर अपना जीवन व्यतीत करने के लिए कांपते हाथों से और छलकती आंखों से बुज़ुर्ग दंपत्ति दिये और खिलौने बनाने को मजबूर हैं.


साथ ही एक कुम्हार का कहना हैं कि ना ही उन्हें सरकार से कोई फायदा मिलता है और ना ही इन दियों से. वहीं माटी कला बोर्ड गठन के बावजूद इन कुम्हारों को सरकारी रूप से कोई फायदा नहीं मिला है. ऐसे में इन कुम्हारों की कमर और आस दोनों टूटती जा रही है.


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