MP News: शारदेय नवरात्रि की शुरुआत आज सोमवार से हो रही है और विजयदशमी को दशहरा पर्व पर इसका समापन होगा. देश के 52 शक्तिपीठों के साथ सभी देवी मंदिरों में नवरात्रि पर मेला लगता है. मध्य प्रदेश के सतना जिले में स्थित मां शारदा धाम मैहर में नवरात्रि पर नौ दिन का मेला लगता है. मैहर के लिए न केवल मेला स्पेशल ट्रेन चलाई जाती है बल्कि अनेक लंबी दूरी की ट्रेनों का अस्थाई ठहराव भी दिया जाता है.


कहा जाता है शक्तिपीठ
मध्य प्रदेश के सतना जिले में मैहर तहसील के पास त्रिकूट पर्वत पर स्थित माता के मंदिर को मैहर देवी का शक्तिपीठ कहा जाता है. मैहर का मतलब है मां का हार. माना जाता है कि यहां मां सती का हार गिरा था. इसीलिए इसकी गणना शक्तिपीठों में की जाती है. करीब 1,063 सीढ़ियां चढ़ने के बाद माता के दर्शन होते हैं. पूरे भारत में सतना का मैहर मंदिर माता शारदा का अकेला मंदिर है. कहते हैं कि आल्हा और ऊदल दोनों भाइयों ने ही सबसे पहले जंगलों के बीच शारदा देवी के इस मंदिर की खोज की थी. आल्हा ने यहां 12 वर्षों तक माता की तपस्या की थी. आल्हा माता को शारदा माई कहकर पुकारा करते थे इसीलिए प्रचलन में उनका नाम शारदा माई हो गया. इसके अलावा, ये भी मान्यता है कि यहां पर सर्वप्रथम आदि गुरु शंकराचार्य ने 9वीं-10वीं शताब्दी में पूजा-अर्चना की थी. माता शारदा की मूर्ति की स्थापना विक्रम संवत 559 में की गई थी.


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मां देती हैं अमर होने का वरदान
मान्यता है कि शाम की आरती होने के बाद जब मंदिर के कपाट बंद करके सभी पुजारी नीचे आ जाते हैं तब यहां मंदिर के अंदर से घंटी और पूजा करने की आवाज आती है. लोग कहते है कि मां के भक्त ''आल्हा'' अभी भी पूजा करने आते हैं. अक्सर सुबह की आरती वे ही करते हैं और रोज जब मंदिर के पट खुलते है तब कुछ न कुछ रहस्यमय अजूबे के दर्शन होते है. कभी मन्दिर के गर्भगृह रोशनी से सरोबार रहता है तो कभी अद्भुत खुशबू से. अक्सर मन्दिर के गर्भगृह में मां शारदा के ऊपर अद्भुत फूल चढ़ा मिलता है. मैहर माता के मंदिर में लोग अपनी मनमांगी मुरादे पाने के लिए साल भर आते है. ऐसी मान्यता है कि शारदा माता इंसान को अमर होने का वर प्रदान करती है.


यह है मान्यता
जनश्रुतियों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि मैहर नगर का नाम मां शारदा मंदिर के कारण ही अस्तित्व में आया. हिन्दू श्रद्धालुजन देवी को मां या माई के रूप में परंपरा से संबोधित करते चले आ रहे हैं. माई का घर होने के कारण पहले माई घर और इसके उपरांत इस नगर को मैहर के नाम से संबोधित किया जाने लगा. एक अन्य मान्यता के अनुसार भगवान शंकर के तांडव नृत्य के दौरान उनके कंधे पर रखे माता सती के शव से गले का हार त्रिकूट पर्वत के शिखर पर आ गिरा. इसी वजह से यह स्थान शक्तिपीठ और माई का हार के आधार पर मैहर के रूप में विकसित हुआ.


आदि गुरु शंकराचार्य द्वारा की गई थी पहली पूजा
विन्ध्य पर्वत श्रेणियों के मध्य त्रिकूट पर्वत पर स्थित इस मंदिर के बारे मान्यता है कि मां शारदा की प्रथम पूजा आदि गुरु शंकराचार्य द्वारा की गई थी. मैहर पर्वत का नाम प्राचीन धर्मग्रंथ ''महेन्द्र'' में मिलता है. इसका उल्लेख भारत के अन्य पर्वतों के साथ पुराणों में भी आया है. मां शारदा की प्रतिमा के ठीक नीचे के न पढ़े जा सके शिलालेख भी कई पहेलियों को समेटे हुए हैं. सन् 1922 में जैन दर्शनार्थियों की प्रेरणा से तत्कालीन महाराजा ब्रजनाथ सिंह जूदेव ने शारदा मंदिर परिसर में जीव बलि को प्रतिबंधित कर दिया था. पिरामिड आकार त्रिकूट पर्वत में विराजीं मां शारदा का यह मंदिर 522 ईसा पूर्व का है. कहते हैं कि 522 ईसा पूर्व चतुर्दशी के दिन नृपल देव ने यहां सामवेदी की स्थापना की थी, तभी से त्रिकूट पर्वत में पूजा-अर्चना का दौर शुरू हुआ. ऐतिहासिक दस्तावेजों में इस तथ्य का प्रमाण प्राप्त होता है कि सन् 539 (522 ईपू) चैत्र कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को नृपलदेव ने सामवेदी देवी की स्थापना की थी.


आज भी आल्हा और ऊदल करते हैं मां की पूजा
इस मंदिर की पवित्रता का अंदाजा महज इस बात से लगाया जा सकता है कि अभी भी आल्हा मां शारदा की पूजा करने सुबह पहुंचते हैं. मैहर मंदिर के महंत और पंडित बताते हैं कि अभी भी मां का पहला श्रृंगार आल्हा ही करते हैं और जब ब्रह्म मुहूर्त में शारदा मंदिर के पट खोले जाते हैं तो पूजा की हुई मिलती है. इस रहस्य को सुलझाने हेतु कई टीम डेरा भी जमा चुकी है लेकिन रहस्य अभी भी बरकरार है. आल्हा और ऊदल दो भाई थे. ये बुन्देलखण्ड के महोबा के वीर योद्धा और परमार के सामंत थे. कालिंजर के राजा परमार के दरबार में जगनिक नाम के एक कवि ने आल्हा खण्ड नामक एक काव्य रचा था. उसमें इन वीरों की गाथा वर्णित है. इस ग्रंथ में दों वीरों की 52 लड़ाइयों का रोमांचकारी वर्णन है. आखिरी लड़ाई उन्होंने पृथ्वीराज चौहान के साथ लड़ी थी. मां शारदा माई के भक्त आल्हा आज भी मां की पूजा और आरती करते हैं. 


पृथ्वीराज चौहान को हटन पड़ा था पीछे
आल्हाखण्ड में गाया जाता है कि इन दोनों भाइयों का युद्ध दिल्ली के तत्कालीन शासक पृथ्वीराज चौहान से हुआ था. पृथ्वीराज चौहान को युद्ध में हारना पड़ा था लेकिन इसके पश्चात आल्हा के मन में वैराग्य आ गया और उन्होंने संन्यास ले लिया था. कहते हैं कि इस युद्ध में उनका भाई वीरगति को प्राप्त हो गया था. गुरु गोरखनाथ के आदेश से आल्हा ने पृथ्वीराज को जीवनदान दे दिया था. पृथ्वीराज चौहान के साथ उनकी यह आखिरी लड़ाई थी. मान्यता है कि मां के परम भक्त आल्हा को मां शारदा का आशीर्वाद प्राप्त था, लिहाजा पृथ्वीराज चौहान की सेना को पीछे हटना पड़ा था. मां के आदेशानुसार आल्हा ने अपनी साग (हथियार) शारदा मंदिर पर चढ़ाकर नोक टेढ़ी कर दी थी. जिसे आज तक कोई सीधा नहीं कर पाया है. मंदिर परिसर में ही तमाम ऐतिहासिक महत्व के अवशेष अभी भी आल्हा व पृथ्वीराज चौहान की जंग की गवाही देते हैं.


शुरु हो गई है रोपवे की सुविधा
मान्यता है कि मां ने आल्हा को उनकी भक्ति और वीरता से प्रसन्न होकर अमर होने का वरदान दिया था. लोगों की मानें तो आज भी रात 8 बजे मंदिर की आरती के बाद साफ-सफाई होती है और फिर मंदिर के सभी कपाट बंद कर दिए जाते हैं. इसके बावजूद जब सुबह मंदिर को पुन: खोला जाता है तो मंदिर में मां की आरती और पूजा किए जाने के सबूत मिलते हैं. आज भी यही मान्यता है कि माता शारदा के दर्शन हर दिन सबसे पहले आल्हा और ऊदल ही करते हैं.  


बुंदेली इतिहास में आल्हा-ऊदल का नाम बड़े ही आदर भाव से लिया जाता है. बुंदेली कवियों ने आल्हा का गीत भी बनाया है, जो सावन के महीने में बुंदेलखंड के हर गांव-गली में गाया जाता है. जैसे पानीदार यहां का पानी आग, यहां के पानी में शौर्य गाथा के रूप से गाया जाता है. यही नहीं, बड़े लड़ैया महोबे वाले खनक-खनक बाजी तलवार आज भी हर बुंदेलों की जुबान पर है.हालांकि अब यहां रोप वे की सुविधा भी शुरू हो गई है जिसके कारण लोगों को मां के दर्शन आसानी से हो जाते है.


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