Rashid Anwar: कॉमनवेल्थ गेम्स (Commonwealth Games) यूं तो साल 1930 में शुरू हुए थे, लेकिन इस साल भारत इसमें हिस्सा नहीं ले पाया था. भारत को इन खेलों में हिस्सा लेने का मौका 1934 में मिला. यह वह दौर था जब कॉमनवेल्थ गेम्स को 'ब्रिटिश एम्पायर गेम्स' कहा जाता था. लंदन में हुए इस दूसरे ब्रिटिश एम्पायर गेम्स में भारत ने एथलेटिक्स और कुश्ती में अपने 6 खिलाड़ियों का दल भेजा था. इन्हीं 6 में से एक राशिद अनवर (Rashid Anwar) थे, जिन्होंने इस कॉमनवेल्थ गेम्स में भारत को पहला मेडल दिलाया था. राशिद ने कुश्ती में ब्रॉन्ज मेडल जीता था. 


राशिद अनवर का जन्म 12 अप्रैल 1910 को हुआ था. वह रेलवे में नौकरी करते थे और उनकी पोस्टिंग लखनऊ में थी. इसी नौकरी के साथ-साथ उनके कुश्ती के दांव-पेंच भी चलते रहे. उनके बारे में पुख्ता रिकॉर्ड तो मौजूद नहीं है लेकिन उपलब्ध जानकारी के मुताबिक वह कुश्ती की वेल्टरवेट कैटेगरी में 8 बार नेशनल चैंपियन रहे थे. 1934 में जब उन्हें पहली बार बड़े खेल इवेंट में मौका मिला तो उन्होंने भारत का परचम लहरा दिया.


1940 ओलंपिक में थे मेडल के प्रबल दावेदार
राशिद ने 1936 के बर्लिन ओलंपिक में भी भारत का प्रतिनिधित्व किया. हालांकि इस ओलंपिक में वह दूसरे राउंड में हारकर बाहर हो गए. इसके बाद 1940 के ओलंपिक के लिए उन्होंने जोरदार तैयारी की, लेकिन दूसरे विश्व युद्ध के कारण ये ओलंपिक रद्द कर दिए गए. उस दौर के जानकारों का मानना है कि अगर ओलंपिक रद्द नहीं होते तो राशिद इनमें गोल्ड लाने की प्रबल दावेदार थे. ऐसा इसलिए कहा जाता है क्योंकि 1940 से ठीक पहले वह इंटरनेशनल मुकाबलों में चैंपियन पहलवानों जैसे अल फुलर और बिली रिले को उनकी धरती पर मात दे चुके थे. उनकी कुश्ती के एक दांव को तो 'स्विंगिग बॉस्टन क्रेब' नाम दे दिया गया था.


एंबुलेंस ड्राइवर भी बने
दूसरे विश्व युद्ध के कारण राशिद (Rashid) की कुश्ती ठहर सी गई थी क्योंकि लंबे वक्त तक टूर्नामेंट और खेलों का आयोजन नहीं हो रहा था. ऐसे में दूसरे विश्व युद्ध के दौरान राशिद ने एंबुलेंस ड्राइवर का काम किया. 1957 में उन्होंने एक बार फिर कुश्ती में वापसी की और 1959 में एक फैमस फाइट में चैंपियन हांस स्ट्रीगर को मात दी. इसके बाद उनका करियर धीरे-धीरे बढ़ती उम्र के साथ ढलान पर आ गया. अपने आखिरी समय में वह लंदन के कामडन में रहते थे. यहीं साल 1973 में उनकी मृत्यू हो गई.


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