कभी स्मॉग में घुटता था चीन! टेक्नोलॉजी के दम पर कैसे बदली हवा की तकदीर, जानिए क्या है पूरी कहानी
इंडियन एक्प्रेस की एक रिपोर्ट के अनुसार, चीन में प्रदूषण की जड़ें उसके तेज औद्योगिक विकास से जुड़ी थीं. 1978 में आर्थिक उदारीकरण के बाद फैक्ट्रियों, बिजली संयंत्रों और वाहनों की संख्या तेजी से बढ़ी जिससे कार्बन उत्सर्जन और PM2.5 जैसे खतरनाक कण हवा में भर गए. कोयले पर भारी निर्भरता, खेतों में पराली जलाना और रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल हालात को और बिगाड़ रहा था. यह स्थिति भारत से काफी मिलती-जुलती थी.
2008 के बीजिंग ओलंपिक ने इस समस्या को पूरी दुनिया के सामने ला दिया. अंतरराष्ट्रीय दबाव और घरेलू विरोध प्रदर्शनों के बाद चीन सरकार के लिए प्रदूषण को नजरअंदाज करना मुश्किल हो गया. इसके बाद 2010 के आसपास वायु गुणवत्ता सुधारने को लेकर ठोस कदम उठाए जाने लगे.
चीन ने सबसे पहले ऊर्जा और परिवहन सेक्टर पर ध्यान दिया. इलेक्ट्रिक वाहनों को बड़े पैमाने पर बढ़ावा दिया गया. शेन्जेन जैसे शहरों ने अपनी पूरी बस फ्लीट को इलेक्ट्रिक में बदल दिया. साथ ही कोयले के इस्तेमाल को धीरे-धीरे कम किया गया. इन फैसलों का असर यह हुआ कि कुछ ही वर्षों में कई इलाकों की हवा में साफ सुधार दिखने लगा.
टेक्नोलॉजी इस बदलाव की रीढ़ साबित हुई. देशभर में हजारों एयर क्वालिटी मॉनिटरिंग स्टेशन लगाए गए जो हर समय हवा की स्थिति पर नजर रखते हैं. सैटेलाइट और ड्रोन के जरिए प्रदूषण फैलाने वाले स्रोतों की पहचान की गई. आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और बिग डेटा की मदद से यह अनुमान लगाया जाने लगा कि प्रदूषण कब और कहां बढ़ सकता है ताकि पहले से तैयारी की जा सके.
आम लोगों को भी इस सिस्टम से जोड़ा गया. मोबाइल ऐप्स के जरिए रियल-टाइम एयर क्वालिटी की जानकारी दी जाने लगी. फैक्ट्रियों में स्मार्ट सेंसर लगाए गए, जो उत्सर्जन तय सीमा से बढ़ते ही अलर्ट भेज देते थे. इस लगातार निगरानी ने नियमों को सिर्फ कागजों तक सीमित नहीं रहने दिया.
आज भारत की स्थिति काफी हद तक वैसी ही है जैसी चीन की एक दशक पहले थी. फर्क बस इतना है कि भारत में ज्यादातर कदम तब उठते हैं जब प्रदूषण चरम पर पहुंच जाता है जबकि चीन लगातार और लंबे समय की रणनीति पर काम करता रहा. अगर भारत भी सख्त नियमों, स्वच्छ ईंधन, बेहतर सार्वजनिक परिवहन और आधुनिक टेक्नोलॉजी को एक साथ अपनाए तो चीन की तरह साफ हवा का सपना यहां भी हकीकत बन सकता है.