बुर्का पहनने को लेकर इस्लाम में क्या हैं नियम, कितना जरूरी मानते हैं इसे?
इस्लामिक धर्मशास्त्रों, विशेषकर कुरान और हदीस में 'पर्दे' के लिए जिस शब्द का प्रमुखता से जिक्र है, वह है 'हिजाब'. हिजाब का शाब्दिक अर्थ केवल सिर ढंकना नहीं, बल्कि 'आड़' या 'विभाजन' होता है.
इस्लाम में पुरुषों और महिलाओं, दोनों के लिए शालीनता (हया) के नियम तय किए गए हैं. महिलाओं के संदर्भ में, कुरान के सूरा अन-नूर और सूरा अल-अहजाब में इस बात का संकेत मिलता है कि महिलाओं को अपनी सुंदरता का प्रदर्शन उन लोगों के सामने नहीं करना चाहिए जो उनके परिवार (महरम) का हिस्सा नहीं हैं.
हालांकि, बुर्का (जो पूरे शरीर को ढंकता है) या नकाब (जिसमें चेहरा ढका होता है) का स्वरूप भौगोलिक और सांस्कृतिक प्रभाव के कारण समय के साथ बदलता रहा है.
धार्मिक विद्वानों के बीच बुर्के की अनिवार्यता को लेकर अलग-अलग मत हैं. अधिकांश स्कॉलर्स का मानना है कि इस्लाम में 'हिजाब' (सिर और गर्दन ढंकना) अनिवार्य है, लेकिन चेहरा ढंकना (नकाब) वैकल्पिक है.
वहीं, कुछ कट्टरपंथी विचारधाराओं में पूरे शरीर को ढंकने वाले बुर्के को ही सही पहनावा माना जाता है. दिलचस्प बात यह है कि दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में इसके नाम और आकार बदल जाते हैं.
ईरान में इसे 'चाडोर' कहा जाता है, अफगानिस्तान में 'चादरी' और खाड़ी देशों में 'अबाया'. यह विविधता दिखाती है कि इस्लाम के नियमों को स्थानीय संस्कृतियों ने अपने-अपने तरीके से अपनाया है.
आज के दौर में बुर्का और हिजाब केवल मजहबी मामला न रहकर एक सामाजिक और राजनीतिक मुद्दा भी बन गया है. जहां कई मुस्लिम महिलाएं इसे अपनी मर्जी और सशक्तिकरण का हिस्सा मानती हैं, वहीं आधुनिक बहस में इसे व्यक्तिगत आजादी के तराजू पर भी तौला जाता है. इस्लाम के जानकारों का कहना है कि पर्दे का असल मकसद महिला को एक 'वस्तु' की तरह देखे जाने से बचाना और समाज में उसे सम्मानजनक स्थान दिलाना था.