क्या मुगलों के यहां भी महिलाएं पहनती थीं हिजाब, कैसे शुरू हुई ये परंपरा?
बिहार में नियुक्ति पत्र वितरण के दौरान एक महिला डॉक्टर के हिजाब को लेकर उठे विवाद ने पूरे देश में चर्चा छेड़ दी है. इस पर राजनीतिक प्रतिक्रियाओं के साथ-साथ साहित्यिक और सामाजिक हस्तियों की टिप्पणियां भी सामने आईं.
इसी बहस के बीच इतिहास की ओर लौटना जरूरी हो गया है, ताकि यह समझा जा सके कि हिजाब या परदा की अवधारणा वास्तव में कहां से आई और मुगल शासन में इसका स्वरूप क्या था.
मुगल दौर में ‘हिजाब’ शब्द आज के अर्थ में प्रचलन में नहीं था. उस समय ज्यादा इस्तेमाल होने वाला शब्द ‘परदा’ था. परदा केवल चेहरे या सिर को ढकने तक सीमित नहीं था, बल्कि यह एक पूरी सामाजिक और प्रशासनिक व्यवस्था थी.
इसमें शाही महिलाओं का आम जनजीवन से अलग रहना, उनके लिए जनाना या हरम जैसी विशेष जगहों की व्यवस्था और उनके आवागमन पर कड़े नियम शामिल थे. यह व्यवस्था धार्मिक आदेश से ज्यादा सत्ता, सुरक्षा और प्रतिष्ठा से जुड़ी थी.
आज जिस हिजाब को हम सिर, गर्दन और कंधों को ढकने वाले एक विशेष परिधान के रूप में देखते हैं, वैसी कोई मानक या एकरूप शैली मुगलकाल में नहीं थी. हालांकि शाही महिलाएं सिर ढंककर ही सार्वजनिक या औपचारिक अवसरों पर आती थीं.
ओढ़नी, चुनरी, दुपट्टा और लंबे वस्त्र मुगलाई पहनावे का हिस्सा थे, जो फारसी, तुर्की और मध्य एशियाई परंपराओं से आए थे. इसलिए यह कहना ज्यादा सटीक है कि मुगलकाल में महिलाओं का सिर ढंका रहता था, लेकिन उसे आज के हिजाब की परिभाषा में बांधना ऐतिहासिक रूप से सही नहीं होगा.
मुगल समाज को एकरूप मानना भी बड़ी भूल होगी. अकबर जैसे शासक अपेक्षाकृत उदार धार्मिक दृष्टिकोण रखते थे, जबकि औरंगजेब व्यक्तिगत जीवन में अधिक धार्मिक अनुशासन का पालन करते थे. इसके बावजूद परदा व्यवस्था पूरे कालखंड में अलग-अलग रूपों में मौजूद रही.
हिजाब या घूंघट की जड़ें इस्लाम से भी पहले की हैं. प्राचीन मेसोपोटामिया और यूनान में सिर ढकना उच्च सामाजिक वर्ग और संपन्नता का प्रतीक था. केवल कुलीन महिलाएं ही परदा करती थीं, जबकि कामकाजी वर्ग की महिलाओं को इसकी अनुमति नहीं थी. मध्य पूर्व में सिर ढकना धूप और मौसम से बचाव का व्यावहारिक तरीका भी था, जिसे पुरुष भी अपनाते थे.
इस्लाम के आगमन के बाद कुरान में पुरुषों और महिलाओं दोनों के लिए शालीनता और संयम पर जोर दिया गया. पैगंबर मुहम्मद की पत्नियों के लिए घूंघट से जुड़े विशेष निर्देश दिए गए, जिससे वे अन्य महिलाओं के लिए आदर्श बनीं. समय के साथ यह परंपरा धार्मिक पहचान और सांस्कृतिक आस्था का हिस्सा बनती चली गई.