Choudhary Rehmat Ali first Used Term Pakistan: 89 साल पहले यानी 1933 में आज ही का दिन 28 जनवरी था और कैंब्रिज यूनिवर्सिटी में कानून की पढ़ाई कर रहे एक स्टूडेंट ने एक लफ्ज़ पहली बार इस्तेमाल किया था. ये लफ्ज़ पाकिस्तान था. स्टूडेंट का नाम चौधरी रहमत अली था. उन्होंने पहली बार पश्चिमी और उत्तरी भारत के "मुस्लिम होमलैंड्स" को बयां करने के लिए इस लफ्ज़ का इस्तेमाल किया था. ये स्टूडेंट राजनीति से कतई नहीं जुड़ा था, लेकिन पाकिस्तान उनके लेखन और जेहन में था. आज इसी रहमत अली की कहानी से आपको रूबरू कराने जा रहे हैं.


पाकिस्तान का असली ख्याल जिन्ना का नहीं था


मोहम्मद अली जिन्ना को पाकिस्तान की नींव रखने वाले इसके "क़ायद ए आज़म" या "महान रहनुमा के तौर पर याद किया जाता है. उन्होंने एक मुहिम की अगुवाई की. इसने ब्रिटिश भारत के उत्तर पश्चिमी प्रांतों में एक संप्रभु इस्लामी देश के एक कमजोर इरादे को हकीकत में तब्दील कर दिया.  इस तरह से आने वाली पीढ़ियों के लिए उपमहाद्वीप की राजनीति को आकार मिला.


लेकिन वह पाकिस्तान के ख्याल के  साथ आने वाले पहले शख्स नहीं थे और न ही वह इसके वास्तविक चैंपियन थे. पाकिस्तान का ख्याल सबसे पहले जिस आदमी के जेहन में आया था वो आज उपमहाद्वीप के इतिहास में दरकिनार कर दिया गया. दरअसल  चौधरी रहमत अली को "पाकिस्तान" शब्द गढ़ने का श्रेय दिया जा सकता है, क्योंकि उन्होंने खुद को "पाकिस्तान राष्ट्रीय आंदोलन के संस्थापक" के तौर पर पेश किया. 


वो चौधरी रहमत ही थे जिन्होंने 28 जनवरी, 1933 को "अभी या कभी नहीं: क्या हम हमेशा जिंदा रहेंगे या हमेशा के लिए खत्म हो जाएंगे" टाइटल से एक पैम्फलेट निकाला था. इसमें उन्होंने भारत के 5 उत्तरी हिस्सों में रहने वाले उन 30 मिलियन पाकिस्तान के मुसलमानों की तरफ से एक जोरदार अपील की थी.


जो भारत के अन्य निवासियों से अलग अपने राष्ट्रीय हालातों के मुताबिक एक अलग पहचान सहित धार्मिक, सामाजिक और ऐतिहासिक आधारों पर पाकिस्तान के तौर पर एक अलग संघीय संविधान चाहते थे. कई इतिहासकारों के मुताबिक इसे पाकिस्तान के ख्याल की पैदाइशी के तौर पर देखा जा सकता है. किसे पता था कि यहीं ख्याल 1940 के दशक तक सबसे अहम बन कर उभर उठेगा. 


रहमत अली की तीखी अपील


रहमत अली की अपील "हिंदू राष्ट्रवाद" की तीखी आलोचना थी. उन्होंने अखिल भारतीय महासंघ के गोलमेज सम्मेलन पर लिए रजामंद होने वाले उस दौर के मुस्लिम नेताओं की भी ऐसी ही कड़ी आलोचना की थी. उन्होंने इन मुस्लिम नेताओं को लेकर दावा किया था कि उन्होंने "इस्लाम और भारत में मुसलमानों के डेथ-वारंट" पर दस्तखत किए थे. उन्हें इस बात का डर था कि मुस्लिम अल्पसंख्यक प्रस्तावित संविधान के तहत हिंदू आबादी में शामिल हो जाएंगे. चौधरी रहमत ने मुसलमानों के लिए एक अलग संप्रभु सत्ता की वकालत की. 


उनके लिए ब्रिटिश भारत "एक ही देश का घर" नहीं था. बल्कि "इतिहास में पहली बार अंग्रेजों के बनाए गए देश का ओहदा भर था. उन्हें भारत के केवल हिंदू देश होने पर ऐतराज था. इस तरह से रहमत अली ने तर्क दिया कि इतिहास की शुरुआत से ही, उस वक्त के भारत के अंदर पहले से ही कई " देश" मौजूद थे, जिनमें से एक "उनका अपना"था.


रहमत अली ने जिस देश को अपना कहा था वो उनकी नजर में पाकिस्तान था. इस देश में "भारत के 5 उत्तरी सूबे शामिल थे. ये सूबे  पंजाब (पी), उत्तर पश्चिम सीमांत प्रांत या अफगान प्रांत (ए), कश्मीर (के), सिंध (एस) और बलूचिस्तान (तान) थे. इन सूबों को मिलाकर रहमत  उसे पाकिस्तान कहते थे.


उन्होंने तर्क दिया कि यह इलाका "राष्ट्रीयता के विशिष्ट चिह्नों" के साथ एक संयुक्त भारतीय संघ में 10 फीसदी अल्पसंख्यकों को कम कर देगा.  उन्होंने खास तौर पर ये भी कहा कि पाकिस्तान का बनना हिंदुओं सहित सभी भारतीयों के लिए बेहतर होगा. रहमत अली ने तब एक सवाल किया था "क्या भारत को एक राष्ट्र बनाने के लिए हमें अपनी राष्ट्रीयता का त्याग करना वास्तव में सही है?"


पहुंच से बाहर का ख्याल 


रहमत अली के पैम्फलेट को ज्यादा तरजीह नहीं मिली. के के अज़ीज़ की लिखी उनकी बायोग्राफी के मुताबिक चौधरी रहमत अली के पाकिस्तान बनाने के विचार को उस वक्त के मशहूर मुस्लिम नेताओं ने "एक पाइप ड्रीम" यानी पहुंच से बाहर के ख्याल की तरह लिया. साल 1934 में जब वे जिन्ना से मिले और अपने इरादों को उनके सामने रखा तो रहमत अली के इरादों पर जिन्ना का जवाब कम से कम उनके इरादों को संरक्षण देने वाला रहा था. माना जाता है कि जिन्ना ने तब उनसे कहा था, “मेरे प्यारे लड़के, जल्दी मत करो; पानी को बहने दो और वे अपना रास्ता खुद तय कर लेगा.”


लेकिन अली पाकिस्तान को लेकर बेकरार और बैचेन थे. उन्होंने "पाकिस्तान: द फादरलैंड ऑफ पाक नेशन" किताब पब्लिश की. इसमें उन्होंने पाक को लेकर अपने नजरिए को और भी अधिक साफ और संक्षिप्त तरीके से पेश किया. हालांकि यह किताब हकीकत के मुकाबले कल्पना पर अधिक आधारित थी. इस किताब को ऐतिहासिक तथ्यों के साथ तनावपूर्ण रिश्तों की साझेदारी पर लिखा गया था. इसके बाद भी ये किताब आने वाले साल में ऐसे कई लोगों की आवाज की एक गूंज थी जो पाकिस्तान बनाना चाहते थे. जो एक ऐसे देश के इतिहास पर बात करती थी जो मुस्लिमों का था. 


जब बदलने लगा था माहौल


जिन्ना के  कांग्रेस से अलग होने के बाद 1937 के बाद से माहौल बदलने लगा था. जिन्ना जैसे शख्स के तेजी से अलगाववादी होने पर रहमत अली की पाकिस्तान की अभिव्यक्ति को मुख्यधारा में बलवती होने की राह मिलने लगी थी. नतीजा ये हुआ कि 1940 में  मुस्लिम लीग के लाहौर अधिवेशन में मशहूर लाहौर प्रस्ताव पारित किया गया था. इसमें भारत के उत्तर-पश्चिमी और पूर्वी क्षेत्रों में मुस्लिम-बहुल क्षेत्रों में भौगोलिक तरीके से जुड़े हिस्सों को आजाद देश बनाने के लिए एक साथ लाने की वकालत की गई थी.


इस प्रस्ताव में ये भी कहा गया था कि ये देश पूरी तरह से स्वायत्त और संप्रभु होंगे. दिलचस्प बात ये थी कि इसमें "पाकिस्तान" का जिक्र नहीं था, लेकिन जिन्ना के ख्यालात रहमत अली के ख्यालों से मेल खाते थे. 1940 और 1943 के बीच जिन्ना और मुस्लिम लीग के अन्य नेताओं ने अपनी तकरीरों और ख़त-ओ-किताबत में "पाकिस्तान" का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया था. आखिरकार 1947 में चौधरी रहमत अली का पाकिस्तान का ख्वाब सच हो गया.


ख्यालों की कौम


चौधरी रहमत अली राजनेता नहीं थे और न ही वो पाकिस्तान के संघर्ष के आकार लेने के दौर में 1930 और 1940 के दशकों में इस उपमहाद्वीप में अधिक वक्त तक रहे थे. पाकिस्तान के लिए उनका योगदान केवल उनके लेखन और विचारों तक ही सीमित रहा था, जबकि इसके उलट अल्लामा इकबाल (Allama Iqbal) को  पाकिस्तान के बनने के पीछे के एक दार्शनिक के तौर पर जाना जाता है.


रहमत अली का काम बहुत छोटे दर्शकों तक ही सीमित रहा, लेकिन पाकिस्तान के बनने के लिए यह अहम और यकीनन जरूरी था. उनके काम  "टू नेशन थ्योरी" को सबसे कट्टरपंथी व्याख्या के तौर पर लिया जा सकता है. इसे बाद में जिन्ना और मुस्लिम लीग ने मशहूर करने में कसर नहीं छोड़ी थी. इसमें दो राय नहीं है कि रहमत अली ने एक संप्रभु देश के नजरिए को ऐतिहासिक आकार दिया.


बेनेडिक्ट एंडरसन ने अपनी किताब "इमेजिन्ड कम्युनिटीज" में एक देश को एक सामाजिक तौर पर बने एक समुदाय या कौम की तरह देखा है, जिसकी कल्पना वो लोग करते हैं जो खुद को एक समूह के हिस्से के तौर पर देखना पसंद करते हैं. रहमत अली ने "पाकिस्तान के विचार" की कल्पना का बीड़ा उठाया. भले ही कई लोग उन्हें जिन्ना या इकबाल की तरह से याद नहीं करते हैं, लेकिन पाकिस्तान का बीज चौधरी रहमत अली के दिमाग में अंकुरित हुआ था इससे कतई इंकार नहीं किया जा सकता है. 


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