कैदियों की जिंदगी के कुछ पन्ने


इस कहानी में नाम मनोज सिर्फ काल्पनिक है लेकिन कहानी बिल्कुल सच है.  मनोज और उनके पिता  20 साल तक जेल में रहे और... 20 साल तक बाहर उनका छोटा और दिव्यांग भाई उनके जेल से लौटने का इंतजार करता रहा. इस बीस साल के लम्बे अंतराल में बहुत कुछ बदला. अब मनोज मास्टर बन गए थे, जेल आने से पहले ही वो हालांकि मास्टर ही थे. जेल के कैदियों को पढ़ाने का जिम्मा उन्होंने उठा लिया. इसके लिए जेल रेडियो के माइक का भरपूर उपयोग किया गया. जब जेल में इग्नू की क्लास चलनी शुरू हुईं तो इसकी ज़िम्मेदारी भी मनोज को दी गयी. 2020 में जब तिनका जेल रेडियो स्थापित होने लगे तो उनके जेल में भी रेडियो के जरिए शिक्षा की मुहिम शुरू हो गयी.


वह रेडियो से अनाउंसमेंट करते, बंदियों को पढ़ाने के लिए बुलाते, उन्हें प्रोत्साहित करते, शब्दों का ज्ञान कराते, भाषा के बारे में बताते. इन 20 वर्षों में बहुत कुछ बदला, जो छोटा भाई जेल के बाहर था, काल के प्रवाह में उसकी मौत हो गयी. सजा के 20 साल पूरे होने पर जब मनोज बाहर आए, तो फिर से नौकरी की तलाश की. इस बार भी पढ़ाने की नौकरी मिले, ऐसी उनकी कोशिश थी. एक स्कूल में नौकरी तकरीबन मिल भी गयी.



जब इंटरव्यू की बारी आयी तो वहां उसे एक ऐसा परिचित मिल गया, जो उनके इतिहा स से परिचित था. जो जानता था कि वह 20 वर्षों तक जेल में रहकर आए हैं. उन्होंने उस परिचित से बड़ी प्रार्थना की कि वे कम से कम इंटरव्यू तक बोर्ड के लोगों को कुछ न बताएं, वह खुद ही इस बात को अपने तरीके से बताना चाहेंगे.


सुननेवाले के पास हालांकि दिल नहीं था, शायद. उसने इंटरव्यू शुरू होने के पहले ही यह बात बता दी. आती हुई नौकरी चली गयी. अब मनोज फिर से नौकरी की तलाश में हैं. कभी-कभार कोई अनियत और छोटी सी नौकरी मिल जाती है, फिर वही जद्दोजहद.


बहरहाल, मनोज का फोन कल आया था. वह फिर से जेल ही जाना चाहते हैं. उनको अब जेल की जिंदगी इस जिंदगी के मुकाबले मुफीद पड़ रही है. मनोज ने कहा कि बाहर की आजादी, बाहरवालों को मुबारक, हमें तो हमारी दुनिया मुबारक.


(यह कहानी वर्तिका नंदा के जेल रेडियो के एक आख्यान से लिया गया है। उनका पूरा वीडियो तिनका-तिनका रेडियो पर सुन सकते हैं)