Supreme Court: सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार (15 मई) को एक महिला की याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें उसने 27 सप्ताह से अधिक की गर्भावस्था को समाप्त करने की मांग की थी. कोर्ट ने कहा कि गर्भ में पल रहे भ्रूण को भी जीवित रहने का मौलिक अधिकार है. जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस संदीप मेहता और जस्टिस एसवीएन भट्टी की पीठ दिल्ली हाई कोर्ट की ओर से तीन मई को महिला की याचिका करने के फैसले के खिलाफ विशेष अनुमति पर विचार कर रही थी.


लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार जब हाई कोर्ट ने आदेश पारित किया था तो गर्भावस्था 29 सप्ताह से अधिक हो चुकी थी.


कानून से अलग नहीं दे सकते आदेश- SC


याचिकाकर्ता 20 वर्षीय अविवाहित छात्र है, जो नीट (NEET) परीक्षा की तैयारी कर रही है. उनके वकील ने कहा, छात्रा को उसे गर्भावस्था के बारे में 16 अप्रैल को पता चला, जब उसे पेट में भारीपन और बेचैनी का अनुभव हुआ. उस समय तक गर्भ को 27 सप्ताह हो चुके थे. इस मामले की सुनवाई के दौरान जस्टिस बीआर गवई ने कहा, "हम कानून से अलग कोई आदेश पारित नहीं सकते हैं."


'खतरे में है याचिकाकर्ता का मेंटल हेल्थ'


मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी एक्ट के अनुसार गर्भावस्था को समाप्त करने की सीमा 24 सप्ताह है. इन नियम का उल्लंघन तभी किया जा सकता है, जब भ्रूण को लेकर अधिक समस्याएं हो या फिर मां के जीवन को खतरा हो. वकील ने पीठ से कहा कि याचिकाकर्ता का मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य खतरे में है.


'गर्भ में पल रहे बच्चे को भी जीने का मौलिक अधिकार'


इस पर जस्टिस मेहता ने कहा, "सात महीने की गर्भवती. गर्भ में पल रहे बच्चे के जीवन के बारे में क्या? गर्भ में पल रहे बच्चे को भी जीने का मौलिक अधिकार है." जवाब में वकील ने कहा कि बच्चे को जन्म के बाद ही अधिकार मिलते हैं. याचिकाकर्ता की वकील ने आग्रह किया, "वह (छात्रा) समाज का सामना नहीं कर सकती. वह बाहर नहीं आ सकती. उसके मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर विचार किया जाना चाहिए."


कोर्ट ने याचिकाकर्ता को बच्चे के जन्म के संबंध में चिकित्सा सुविधाओं के लिए एम्स से संपर्क करने की छूट दी.


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