Rajendra Prasad First President of India: 'भारत के राष्ट्रपति' की सीरीज में हम आपको आज देश के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद (Dr Rajendra Prasad) के राष्ट्रपति बनने की कहानी बताएंगे. जब देश अपना पहला राष्ट्रपति चुनने वाला (First President) था तो दो नामों पर चर्चा थी. भारत का पहला राष्ट्रपति कौन बनेगा, इस बारे में हर तरफ अटकले लग रही थीं. जिन दो नामों पर सर्वाधिक चर्चा थी वो नाम थे सी. राजगोपालाचारी (C. Rajagopalachari) और डॉ. राजेंद्र प्रसाद. राजाजी गवर्नर जनरल थे और राजेंद्र बाबू संविधान (Constitution) सभा के अध्यक्ष थे. यानी साफ था कि दोनों में एक को चुनना काफी मुश्किल था.


26 जनवरी, 1950 से, भारत एक ऐसा देश नहीं रहा जो ब्रितानियां हुकूमत के अधीन हो और देश का प्रमुख ब्रिटिश राजा रहे. भारत एक गणतंत्र बन गया. इसका मतलब था कि ब्रिटिश क्राउन के प्रतिनिधि, गवर्नर-जनरल को अब देश की बागडोर भारत के राष्ट्रपति को सौंपनी थी. यही वो दिन था जब भारत के अंतिम गवर्नर-जनरल, सी राजगोपालाचारी ने राजेंद्र प्रसाद को भारत गणराज्य के राष्ट्रपति के रूप में शपथ दिलाई.




हालांकि राजेंद्र प्रसाद का राष्ट्रपति बनना इतना आसान नहीं था. जो बातें बाहर सहज दिख रही थी वो दरअसल एक भयंकर राजनीतिक रस्साकशी से होते हुए तय हुई थी. आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और गृह मंत्री वल्लभभाई पटेल देश के पहले राष्ट्रपति को लेकर 'आमने-सामने' थे..


क्या था पूरा माज़रा


दरअसल, 1949 के मध्य तक, संविधान-निर्माण की प्रक्रिया समाप्त हो रही थी और नए गणतांत्रिक राज्य के प्रमुख के रूप में कार्य करने के लिए राष्ट्रपति को चुनने की आवश्यकता निकट आ रही थी. इस पद के लिए नेहरू ने मद्रास के विद्वान-राजनेता राजगोपालाचारी को प्राथमिकता दी. राजगोपालाचारी  उस समय पहले से ही गवर्नर-जनरल थे और उन्हें राष्ट्रपति नियुक्त करना कोई बड़ा बदलाव नहीं दिखाई दे रहा था.


हालांकि, सरदार वल्लभ भाई पटेल के पास देश के पहले राष्ट्रपति के लिए अन्य एक नाम था. उन्होंने राजगोपालाचारी की जगह बिहार के कांग्रेसी राजेंद्र प्रसाद का समर्थन किया. यहीं से देश के पहले राष्ट्रपति के चुनाव को लेकर जवाहर लाल नेहरू और पटेल के बीच मतभेद शुरू हो गए. 


राजगोपालाचारी और नेहरू एक-दूसरे के साथ सहमत थे कि भारत को किस प्रकार की धर्मनिरपेक्षता का पालन करना चाहिए. हालांकि यह एक ऐसा विचार था जिससे पटेल पूरी तरह सहमत नहीं थे. उन्होंने तो राजगोपालाचारी को एक बार  "आधा मुस्लिम" और नेहरू को "कांग्रेस का एकमात्र राष्ट्रवादी मुस्लिम" तक कह दिया था.




सरदार पटेल की साफ पसंद, राजेंद्र प्रसाद थे. पटेल खुद में और राजेंद्र प्रसाद में काफी समानताएं पाते थे. दरअसल अध्यक्ष के रूप में, राजेंद्र प्रसाद ने जवाहर लाल नेहरू के हिंदू कोड बिलों का कड़ा विरोध किया था, जिसने महिलाओं को अधिक अधिकार दिए. इतना ही नहीं, नेहरू के साथ उनका सबसे दिलचस्प संघर्ष गणतंत्र दिवस की तारीख को ही था. प्रसाद चाहते थे कि यह दिन आगे बढ़े क्योंकि उन्हें लगा कि यह दिन ज्योतिषीय रूप से अशुभ है.


हालांकि, कहा जाता है कि नेहरू और पटेल के बीच यह संघर्ष और कुछ नहीं बल्कि 'राजनीतिक युद्ध' की तरह था, जो पटेल द्वारा नेहरू की शक्ति पर रोक लगाने की इच्छा से प्रेरित था. 


नेहरू ने राजेंद्र प्रसाद को लिखा पत्र 


जवाहर लाल नेहरू ने 10 सितंबर 1949 को राजेंद्र प्रसाद को पत्र लिखा. इस पत्र में उन्होंने लिखा, "राजाजी (राजगोपालाचारी) को राष्ट्रपति के रूप में रखना उचित है. आपको (प्रसाद) राष्ट्रपति बनाने से कई बदलाव करने होंगे.''


पटेल द्वारा निजी तौर पर समर्थित, राजेंद्र प्रसाद ने नेहरू के खत का जवाब देते हुए लिखा कि वे जुझारू हैं और राष्ट्रपति के दौड़ से बाहर होने से इनकार करते हैं. 

हालांकि, सार्वजनिक रूप से, पटेल ने अपने पत्ते नहीं खोले थे.  नेहरू के साथ अपने संचार में, पटेल ने यह धारणा दी कि इस लड़ाई से उन्हें कोई लेना देना नहीं. उन्होंने कहा था कि अब नेहरू को " स्थिति से निपटना" है. वह उनका समर्थन करेंगे. इन सबके बीच पर्दे के पीछे क्या चल रहा था, इस बात से बेखबर नेहरू ने पटेल को पत्र लिखकर शिकायत की कि "इस विषय पर जोरदार प्रचार किया गया है और राजेंद्र बाबू के पक्ष में एक बड़ा बहुमत है."


नेहरू ने बुलाई थी सांसदों की बैठक


5 अक्टूबर को नेहरू ने मामले को तय करने के लिए कांग्रेस सांसदों की बैठक बुलाई. जैसे ही उन्होंने राष्ट्रपति के लिए राजगोपालाचारी के नाम का प्रस्ताव रखा, उनका 'विरोध' उपस्थित सांसदों द्वारा किया गया. नेहरू के कद और उनकी स्थिति को देखते हुए, यह काफी आश्चर्यजनक था. इसका अंदाजा नेहरू को भी नहीं था. विरोध की तीव्रता से विचलित होकर, नेहरू ने समर्थन के लिए पटेल की ओर रुख किया और उस महत्वपूर्ण क्षण में, सरदार पटेल ने नेहरू का समर्थन 'नहीं किया'.




सांसदों के विरोध से स्तब्ध नेहरू ने अपना भाषण बंद कर दिया. सांसदों की इस बैठक से तय हो गया कि राजगोपालाचारी  के राष्ट्रपति बनने की संभावनाएं लगभग खत्म है. 


राजगोपालाचारी ने दिलाई थी प्रसाद को राष्ट्रपति पद की शपथ


हारने के बाद राजगोपालाचारी ने संन्यास की घोषणा कर दी. प्रसाद को राष्ट्रपति के रूप में शपथ दिलाने के बाद, राजाजी ने उन्हें "ताकत और समर्थन" की कामना करते हुए एक बधाई पत्र भी लिखा. इस तरह राजेंद्र प्रसाद देश के पहले राष्ट्रपति बन गए.


1952 का चुनाव, राजेंद्र प्रसाद बने पहले निर्वाचित राष्ट्रपति


1952 में जब भारत में पहला चुनाव हुआ, तो संसद में नए प्रतिनिधि आए और राष्ट्रपति चुनाव फिर हुए. इससे पहले 1951 में, राजेंद्र प्रसाद और जवाहरलाल नेहरू हिंदू कोड बिल को लेकर एक-दूसरे के खिलाफ थे. इस चुनाव में अन्य दलों ने प्रोफेसर केटी शाह का समर्थन किया क्योंकि उनका मानना ​​था कि राजनीतिक रूप से तटस्थ व्यक्ति को राष्ट्रपति बनना चाहिए.


प्रोफेसर शाह श्रमिक संगठनों से जुड़े थे. उन्होंने लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से अपनी पढ़ाई पूरी की थी. प्रोफेसर शाह 1938 में नेहरू के नेतृत्व में बने पहले योजना आयोग के सदस्य भी थे.


1952 के चुनाव में कांग्रेस को 489 में से 364 सीटें मिली थीं. कांग्रेस का उम्मीदवार होना ही भारत के राष्ट्रपति बनने की एकमात्र शर्त थी. इस चुनाव में राजेंद्र प्रसाद को 507,400 वोट मिले थे, जबकि केटी शाह को सिर्फ 92,827 वोट मिले थे. 


इस चुनाव का एक दिलचस्प पहलू यह है कि कांग्रेस के 65 सांसदों और 479 विधायकों ने वोट नहीं डाला. बाद में यह कहा गया कि चूंकि राजेंद्र प्रसाद की जीत निश्चित थी, इसलिए कई लोगों ने वोट डालने की जहमत नहीं उठाई.


1957 में भी नेहरू को फिर निराशा ही हाथ लगी


जवाहर लाल नेहरू ने 1952 में एक बार फिर राजेंद्र प्रसाद को बतौर राष्ट्रपति स्वीकार किया, मगर अगले चुनाव यानी 1957 के चुनावों में नेहरू को अपनी पसंद के राष्ट्रपति को चुनने का अवसर फिर दिख रहा था. इसलिए इस बार उन्होंने उपराष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन पर दांव लगाया.


कांग्रेस के एक बड़े तबके ने राजेंद्र प्रसाद का फिर समर्थन किया. इसके अलावा मौलाना आजाद भी राजेंद्र प्रसाद के पक्ष में थे और नेहरू को एक बार फिर निराशा ही हाथ लगी. राधाकृष्णन इतने परेशान हुए कि उन्होंने उप राष्ट्रपति के पद से अपना इस्तीफा सौंप दिया.




1957 के राष्ट्रपति चुनाव में राजेंद्र प्रसाद के खिलाफ किसी अन्य दल ने उम्मीदवार नहीं चुना, हालांकि कुछ स्वतंत्र उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा और वोट डालने की औपचारिकता को जारी रखा. इस चुनाव में राजेंद्र प्रसाद को 4,59,698 वोट मिले, जिसमें उनके सबसे करीबी दावेदार चौधरी हरिराम को 2672 वोट मिले.


इस जीत के साथ, राजेंद्र प्रसाद दूसरी बार भारत के राष्ट्रपति बने, दोनों बार नेहरू की इच्छा के विरुद्ध वो राष्ट्रपति बने.


1960 में वो बीमार पड़ गए
राजेंद्र प्रसाद की तबीयत 1960-61 में काफी खराब रहने लगी. इतनी खराब कि वो 19 जुलाई 1961 से 19 दिसंबर 1961 तक इलाज करवाने के लिए छुट्टी पर रहे. 20 दिसंबर 1961 को उन्होंने दोबारा जिम्मेदारी संभाली. अगले साल रिटायर हो गए. 13 मई 1962 को वो रिटायर हुए और 14 मई 1962 को वो अपना 12 साल का कार्यकाल पूरा करने के बाद पटना के सदाकत आश्रम लौट आए.  अपना शेष जीवन यहीं बिताया और अंतत: 28 फरवरी 1968 को आखिरी सांस ली.