कविता को लेकर मैंने आजतक दो बेहतरीन परिभाषाएं पढ़ीं हैं. एक विलियम वर्ड्सवर्थ की परिभाषा जिसमें उन्होंने कविता के बारे में कहा है- The Spontaneous overflow of powerful feelings is called poetry. 


दूसरी ये कि कल्पना और विचारों के तालमेल से जो भाव पैदा होते हैं वही कविता की शक्ल में हमारे सामने आते हैं. मैं इन दोनों परिभाषाओं के आधार पर 'राधिके विद्रोह कर दो'.को देखता हूं तो ये एक बेहतरीन किताब साबित होती है.


इस किताब में कल्पना और विचारों का अद्भुत तालमेल देखने को मिलता है. इस किताब को सीनियर जर्नलिस्ट अभिषेक उपाध्याय ने लिखा है. 


इससे पहले की आपके अंदर ये सवाल पैदा हो कि ये राधिके कौन है जिसे लेखक संबोधित करते हुए विद्रोह करने को कह रहे हैं, हम आपको बता दें अभिषेक उपाध्याय पुस्तक की शुरुआत में ही इस बात से पर्दा उठा देते हैं और बताते हैं कि राधिके कौन है वास्तव में उन्हें नहीं पता, लेकिन वो जो भी है जहां भी है पूर्ण रूप से स्वतंत्र है और बस उनकी कलम की स्याही में पांव डुबोकर दौड़ जाती है.


चुप्पियों की कनपटी पर
एक रोज़ पिस्तौल धर दो
और यूं गोली चलाओ
शहर भर में शोर कर दो
राधिके विद्रोह कर दो


इस संग्रह में आपको कुल 119 अलग-अलग कविताएं पढ़ने को मिलेंगी. जिंदगी के विभिन्न पहलुओं की तस्वीर उकेरती ये कविताएं घटनाओं की कांपती देह पर संवेदना का कंबल ओढ़ाती हुई नजर आएंगी.


इस संग्रह की कुछ कविताओं की बात करें तो कहीं कहीं लेखक की निजी जिंदगी की साफ झलक दिखाई देती है. कोरोना का भयावह दौड़ जब हर कोई अपनी दुनिया में कैद होने पर मजबूर हो गया था तब भी एक पत्रकार जान जोखिम में डालकर अस्पतालों और सड़कों से भयावह महामारी की रिपोर्टिंग कर रहा था. 'कोरोना के बस में नही' कविता एक पत्रकार के उसी अनुभव का आंखों देखा लेखा जोखा है, जिसमें वो लिखते हैं-


हमने देखा है पानी पर तैरता हुआ खून
इंसान के कलेजे में इतिहास के नाखून
तुम जितना बुरा सोचकर चले हो
हम उससे भी बुरा देखकर लौटे हैं
घिस चुका है वक्त का रबड़
न जाने किस पेंसिल के बने हैं
हम नहीं मिटे हैं


एक पत्रकार जब काव्य रचना करता है तो मन में सवाल होता है कि राजनीति और राजनेताओं के इर्द-गिर्द रहने वाला व्यक्ति कैसे कविता लिख सकता है, क्योंकि राजनीति तो दीमाग का काम और कविता दिल का, ऐहसास का, भावनाओं का, अपनेपन का, टूटने बिखरने का, जिंदगी का हर पहलू खुलकर रख देने का नाम कविता है. हालांकि जब कोई भी पाठक इस काव्य संग्रह को पढ़ेगा तो उसको ऐहसास होगा कि शायर राजनीति और राजनेताओं के करीब रहकर भी अपने अंदर के शायर को बचा ही लेता है. अभिषेक उपाध्याय भी इसमें कामयाब हुए हैं


पुरानी आदतें अब भी वही हैं
किताबें न पढ़ो तो
नींद अब भी चांद की चौखट पे बैठी तकती रहती है


इस काव्य संग्रह में जिदंगी का स्याह पक्ष भी है और उम्मीद का टिमटिमाता जुगनू भी, हताशा भी, निराशा भी है और आशा भी..कई कविताएं पढ़ते हुए आपको रवींद्रनाथ टैगोर की बात याद आएगी कि हर पुरुष के अंदर एक स्त्री होती है जो उसे पूरी तरह मनुष्य बनने में मदद करती है और जब वो मानवीय भावनाओं से भरा एक पूर्ण मनुष्य बन जाता है तब वो स्त्री और पुरुष में भेद नहीं करता, अन्याय के खिलाफ राधिके को विद्रोह करने के लिए प्रोत्साहित करता है.


रामनाथ गोयनका अवार्ड से सम्मानित अभिषेक 21 सालों से पत्रकारिता के क्षेत्र में हैं. उनकी पहली किताब 'यूपी टू यूक्रेन' है जो साल 2023 में प्रकाशित हुई थी.