Pramod Mahajan: इतिहास गवाह है कि गिनती भूलने का जो खामियाजा तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने उठाया था, उसकी कोई दूसरी मिसाल खोजे भी नहीं मिलती है. वाजपेयी सरकार में बीजेपी के संकट मोचक रहे प्रमोद महाजन को सदन में विश्वास प्रस्ताव के दिन वोटों की गिनती में एक गिनती का भूलना इतना भारी पड़ा कि महज 13 महीने पहले ही देश के प्रधानमंत्री पद की कुर्सी पर बैठे अटल बिहारी वाजपेयी को एक लंबा-चौड़ा भावुक भाषण देकर उस कुर्सी को अलविदा कहना पड़ा. आइए जानते हैं भारतीय राजनीति का वो किस्सा, जिसका सच तो शायद सबको पता है लेकिन वो सच अधूरा है.


संसद में भावुक भाषण के बाद भी अटल बिहारी वाजपेयी अपनी सरकार नहीं बचा पाए और उन्हें अपने पद से इस्तीफा देना पड़ गया. इस पूरी कहानी की शुरुआत हुई जयललिता से, जिन्होंने वाजपेयी सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया था. तब वाजपेयी गठबंधन की सरकार चला रहे थे और इस गठबंधन में जयललिता एक अहम किरदार थीं. 


क्या चाहती थीं जयललिता?
जयललिता चाहती थीं कि प्रधानमंत्री वाजपेयी जयललिता के खिलाफ चल रहे भ्रष्टाचार के सभी मुकदमों को वापस ले लें और सुब्रह्मण्यम स्वामी को वित्त मंत्री बना दें. साथ ही जयललिता ये भी चाहती थीं कि बतौर प्रधानमंत्री वाजपेयी तमिलनाडु में करुणानिधि की सरकार को बर्खास्त कर दें, लेकिन वाजपेयी इसके लिए तैयार नहीं हुए. 


नतीजा ये हुआ कि जयललिता नाराज हो गईं. और फिर हुई वो ऐतिहासिक चाय पार्टी, जिसने वाजपेयी सरकार को गिराने की नींव रख दी. इस चाय पार्टी का आयोजन किया था सुब्रह्मण्यम स्वामी ने. और इस चाय पार्टी में स्वामी ने जयललिता और सोनिया गांधी को एक साथ बिठा दिया. इस चाय पार्टी में ही कांग्रेस ने तय कर लिया कि अब वाजपेयी सरकार को गिराना है.


स्वामी की चाय पार्टी में लिख दी गई सरकार गिराने की पटकथा!
इस चाय पार्टी के चंद दिनों के बाद ही जयललिता ने अपने मंत्रियों के इस्तीफे 6 अप्रैल को प्रधानमंत्री वाजपेयी को भेज दिए. 8 अप्रैल को वाजपेयी ने इन इस्तीफों को राष्ट्रपति को भी भेज दिया. और फिर 14 अप्रैल 1999 को जयललिता ने राष्ट्रपति को सरकार से समर्थन वापसी का पत्र सौंप दिया. तब राष्ट्रपति केआर नारायणन ने वाजपेयी से कहा कि वो सदन में विश्वास मत हासिल करें.


वाजपेयी को उम्मीद थी कि कांशीराम मदद करेंगे. कांशीराम ने कहा भी कि वो भले ही वाजपेयी का समर्थन नहीं करेंगे, लेकिन वो विरोध भी नहीं करेंगे. उनकी पार्टी बसपा के पास कुल पांच सांसद थे. इस बीच ओम प्रकाश चौटाला ने भी ऐलान कर दिया कि वो भी राष्ट्रहित में वाजपेयी सरकार के पक्ष में ही वोट करेंगे. 


प्रमोद महाजन से कहां हुई गलती?
और तब वाजपेयी सरकार में पार्टी की आंख-कान हुआ करते थे प्रमोद महाजन. पक्ष और विपक्ष के वोट गिनने, उन्हें सरकार के पक्ष में लामबंद करने और हर जोड़-तोड़ कर सरकार बचाने की जिम्मेदारी प्रमोद महाजन की ही थी. वो सारा गुणा-गणित कर चुके थे. और इस बात को लेकर निश्चिंत थे कि वाजपेयी सरकार बच जाएगी.


लेकिन 17 अप्रैल को वोटिंग के दिन मायावती ने घोषणा कर दी कि वो वाजपेयी सरकार के खिलाफ वोट करेंगी. और तब प्रमोद महाजन को झटका लगा. उनकी गिनती के पांच सांसद कम हो गए. फिर भी उनकी गिनती में इतने वोट थे कि सरकार बच जाए. लेकिन ऐन वक्त पर दो वोट ने वाजपेयी सरकार का खेल खराब कर दिया. 


एक वोट था सैफुद्दीन सोज का, जो फारुख अब्दुल्ला वाली  नेशनल कॉन्फ्रेंस से सांसद थे. नेशनल कॉन्फ्रेंस के सांसद तो फारुख अब्दुल्ला के बेटे उमर अब्दुल्ला भी थे, जो सरकार के सहयोगी थे और जिन्होंने वाजपेयी सरकार के पक्ष में वोट दिया था. लेकिन सैफुद्दीन सोज ने अपनी पार्टी के व्हिप का उल्लंघन कर वाजपेयी सरकार के खिलाफ वोट किया.


किसका वोट गिनना भूल गए थे महाजन?
लेकिन एक वोट, जिसकी गिनती करना प्रमोद महाजन भूल गए और जो वाजपेयी सरकार के लिए सबसे बड़ी गलती साबित हुई, वो वोट था कांग्रेस के नेता और ओडिशा के मुख्यमंत्री गिरधर गमांग का. गिरधर गमांग कांग्रेस के सांसद थे, लेकिन 17 फरवरी 1999 को ही वो ओडिशा के मुख्यमंत्री बन गए थे. 


प्रमोद महाजन इस गलतफहमी में थे कि गिरधर गमांग ने सांसद पद से इस्तीफा दे दिया है और वो सिर्फ मुख्यमंत्री हैं. लेकिन कांग्रेस को याद था कि उनका मुख्यमंत्री सांसद भी है. तो लंबे वक्त तक संसद से बाहर रहे गिरधर गमांग अचानक से 17 अप्रैल को लोकसभा में पहुंच गए. उनकी मौजूदगी से सत्ता पक्ष में खलबची मच गई. मामला लोकसभा अध्यक्ष जीएम बालयोगी तक पहुंचा. और जीएम बालयोगी ने गिरधर गमांग को ये सुविधा दे दी कि वो अपने विवेक के आधार पर वोटिंग करें. 


गमांग ने अपनी पार्टी की बात सुनी और वाजपेयी सरकार के खिलाफ वोट किया. और यही वो एक वोट था, जिसकी वजह से अटल बिहारी वाजपेयी को महज 13 महीने में ही इस्तीफा देना पड़ गया. तब सरकार के पक्ष में 269 वोट और सरकार के खिलाफ कुल 270 वोट पड़े थे. 


अगर गिरधर गमांग ने वाजपेयी सरकार के खिलाफ वोट नहीं दिया होता और अगर नौबत बराबरी की आती तो तब के लोकसभा अध्यक्ष जीएम बालयोगी वाजपेयी सरकार के समर्थन में ही वोट करते, क्योंकि उनकी पार्टी टीडीपी एनडीए का हिस्सा थी और तब शायद वाजपेयी सरकार बच गई होती.


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