Alter The Boundaries Of Any State: महाराष्ट्र-कर्नाटक के बीच सीमा विवाद थमने की बजाय और बढ़ते ही जा रहा है. दोनों ही राज्य विधानमंडल से इस बाबत प्रस्ताव पारित कर अपने दावों को सही ठहराने की कोशिश  कर रहे हैं.  महाराष्ट्र जहां कर्नाटक के कुछ हिस्सों को अपने में मिलाना चाहता है. वहीं कर्नाटक सरकार राज्य की एक इंच जमीन भी महाराष्ट्र को नहीं देने पर अड़ी है.


दरअसल महाराष्ट्र-कर्नाटक  दोनों ही आपसी खींताचानी में लगे हुए हैं. भारत एक संघीय गणराज्य है. इसके तहत नया राज्य बनाने, राज्यों की सीमा में बदलाव करने और राज्यों के नाम में बदलाव से जुड़े तमाम प्रावधान भारतीय संविधान में शामिल किए गए हैं. इसको लेकर हमारा संविधान क्या कहता है, इससे जुड़े अधिकार केंद्र के पास है या राज्य के पास, इन तमाम बातों को जानने से पहले ये जान लेना जरूरी है कि  महाराष्ट्र और कर्नाटक ने अपने-अपने प्रस्तावों में क्या कहा है.


क्या कहता है महाराष्ट्र का प्रस्ताव


 
मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे ने महाराष्ट्र विधानमंडल के दोनों सदनों विधानसभा और विधान परिषद में एक प्रस्ताव पेश किया. नागपुर में जारी शीतकालीन सत्र के दौरान इस प्रस्ताव को 27 दिसंबर को दोनों ही सदनों से सर्वसम्मति से पारित कर दिया गया.  ये प्रस्ताव बढ़ते सीमा विवाद के बीच कर्नाटक के 865 मराठी भाषी गांवों और दूसरे इलाकों को महाराष्ट्र में विलय करने पर कानूनी रूप से आगे बढ़ने से जुड़ा है.


सीमा विवाद पर महाराष्ट्र का प्रस्ताव  


" महाराष्ट्र सरकार 865 गांवों और बेलगाम (जिसे बेलगावी भी कहा जाता है), कारवार, निपाणी, बीदर और भाल्की शहरों में रह रहे मराठी भाषी लोगों के साथ मजबूती से खड़ी है. महाराष्ट्र सरकार कर्नाटक में 865 मराठी भाषी गांवों और बेलगाम, कारवार, बीदर, निपाणी, भाल्की शहरों की एक-एक इंच जमीन अपने में शामिल करने के मामले पर  सुप्रीम कोर्ट में कानूनी रूप से आगे बढ़ेगी."


सीमा विवाद पर महाराष्ट्र का प्रस्ताव 


"जब दोनों राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से मुलाकात की थी तो यह तय हुआ था कि मामले में उच्चतम न्यायालय का फैसला आने तक यह सुनिश्चित किया जाए कि इस मामले को और न भड़काया जाए.  हालांकि, कर्नाटक सरकार ने अपनी विधानसभा में एक प्रस्ताव पारित कर इससे विपरीत कदम उठाया."


महाराष्ट्र के प्रस्ताव में आगे ये भी कहा गया है कि केंद्र सरकार को सीमावर्ती क्षेत्रों में मराठी लोगों की सुरक्षा की गारंटी के लिए कर्नाटक सरकार को निर्देश देना चाहिए. 


क्या कहता है कर्नाटक का प्रस्ताव   


महाराष्ट्र के साथ सीमा विवाद पर कर्नाटक विधानसभा में 22 दिसंबर को सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित किया था. मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई की ओर से पेश इस प्रस्ताव में महाराष्ट्र की ओर से खड़े किए गए सीमा विवाद की निंदा करते हुए राज्य के हितों की रक्षा का संकल्प जाहिर किया गया था. 


सीमा विवाद पर कर्नाटक का प्रस्ताव 


" कर्नाटक की भूमि, जल, भाषा और कन्नड़ के लोगों के हित से संबंधित मामलों पर कोई समझौता नहीं किया जाएगा. कर्नाटक के लोगों और सदस्यों (विधानसभा के) की भावनाएं इस विषय में एक हैं, और यदि यह प्रभावित होती है, तो हम सभी एकजुट होकर राज्य के हितों की रक्षा के लिए संवैधानिक और कानूनी उपाय करने के लिए प्रतिबद्ध हैं."


सीमा विवाद पर कर्नाटक का प्रस्ताव 


"महाराष्ट्र के लोगों की ओर से अनावश्यक तौर से पैदा किए गए सीमा विवादों की निंदा करते हुए यह सदन सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित करता है कि यह राज्य के हितों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध है."



दोनों राज्यों की ओर से बयानबाजी तेज़


इस मुद्दे पर दोनों ही राज्य एक-दूसरे के प्रस्ताव को ग़लत ठहरा रहे हैं. दोनों राज्यों के नेताओं की ओर से तरह-तरह की बयानबाजी भी हो रही है. उद्धव ठाकरे गुट के शिवसेना ने तो महाराष्ट्र विधानसभा में इतना तक मांग कर दी कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने तक कर्नाटक में शामिल 865 गांवों को केंद्र शासित प्रदेश घोषित कर दिया जाए. कर्नाटक के मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई ने सीमा मुद्दे पर महाराष्ट्र के प्रस्ताव को गैर जिम्मेदाराना और संघीय ढांचे के खिलाफ बताया है. कर्नाटक के सीएम बोम्मई ने भरोसा जताया है कि सुप्रीम कोर्ट से उनके राज्य को न्याय मिलेगी.  कर्नाटक कहता रहा है कि ये बंटवारा राज्य पुनर्गठन अधिनियम 1956 के तहत हुआ था और इसको अब काफी वक्त हो गया है. दोनों तरफ के लोग शांति से रह रहे हैं. ऐसे में महाराष्ट्र बेवजह ही इस मामले को तूल दे रहा है.


राज्यों की सीमाओं में बदलाव से जुड़ा मुद्दा


महाराष्ट्र-कर्नाटक के बीच सीमा विवाद का मुद्दा सुप्रीम कोर्ट में लंबित है.  महाराष्ट्र के प्रस्ताव और कर्नाटक के प्रस्ताव में एक बारीक अंतर है. जहां कर्नाटक कहता है कि वो अपनी जमीन नहीं देगा, वहीं महाराष्ट्र के प्रस्ताव में जिन शब्दों का उल्लेख किया है, उससे साफ जाहिर है कि महाराष्ट्र मौजूदा कर्नाटक के कुछ हिस्सों को अपने में मिलाना चाहता है. यहीं से ये मुद्दा राज्यों की सीमाओं में बदलाव से जुड़ जाता है.


संवैधानिक और कानूनी सवाल हैं जुड़े


जैसे ही राज्यों की सीमा में बदलाव का मुद्दा आता है, इसमें संवैधानिक और कानूनी सवाल जुड़ जाते हैं. हमारे संविधान के पहले भाग में अनुच्छेद 1 से 4 (Article 1 to 4) के बीच संघ और उसके राज्य क्षेत्र के बारे में प्रावधान किया गया है.  संविधान के इसी हिस्से में  नया राज्य बनाने, राज्यों की सीमाओं में बदलाव करने, राज्यों के नाम में परिवर्तन करने से जुड़े प्रावधानों का जिक्र किया गया है. 


संविधान का अनुच्छेद 1 


" भारत, अर्थात इंडिया राज्यों  का संघ (Union of States) होगा.


संविधान का अनुच्छेद 2


" नए राज्यों का प्रवेश या स्थापना - संसद, विधि द्वारा, ऐसे निबंधनों (terms) और शर्तों (conditions) पर, जो वह ठीक समझे, संघ में नए राज्यों का प्रवेश या उनकी स्थापना कर सकेगी.


संविधान का अनुच्छेद 3


नए राज्यों का निर्माण और वर्तमान राज्यों के क्षेत्रों, सीमाओं या नामों में परिवर्तन - संसद विधि द्वारा-
(a) किसी राज्य में से उसका राज्यक्षेत्र अलग करके अथवा दो या अधिक राज्यों या राज्यों के भागों को मिलाकर अथवा किसी राज्यक्षेत्र को किसी राज्य के भाग के साथ मिलाकर नए राज्य का निर्माण कर सकेगी.
(b) किसी राज्य का क्षेत्र बढ़ा सकेगी.
(c) किसी राज्य का क्षेत्र घटा सकेगी.
(d) किसी राज्य की सीमाओं में परिवर्तन कर सकेगी. 
(e) किसी राज्य के नाम में परिवर्तन कर सकेगी.


अनुच्छेद 4 में अनुच्छेद 2 और 3 के अधीन बनाए गए कानून के मुताबिक संविधान की पहली और चौथी अनुसूची में संशोधन से जुड़े प्रावधान हैं. संविधान के अनुच्छेद 2 के तहत ही 1975 में 36वें संविधान संशोधन के जरिए सिक्किम का भारत में विलय किया गया था. अनुच्छेद 2 उन राज्यों, जो भारतीय संघ के हिस्से नहीं हैं, के प्रवेश और गठन से संबंधित है. 


अनुच्छेद 3 से हर बात हो जाती है स्पष्ट


अनुच्छेद 3 के तहत किसी भी तरह के विधेयक को संसद में पेश किए जाने से पहले दो शर्त का पूरा होना जरूरी है. संविधान का अनुच्छेद 3 कहता है कि ऐसा कोई भी विधेयक राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद ही पेश किया जा सकता है. राष्ट्रपति मंजूरी देने से पहले उस विधेयक को संबंधित राज्यों के विधानमंडल का विचार जाने के लिए भेजते हैं. राज्यों को एक तय समय सीमा के भीतर अपना विचार देना होता है. राष्ट्रपति या संसद राज्यों के विचार को मानने के लिए बाध्य नहीं है. वो इसे स्वीकार या अस्वीकार कर सकता है.  इससे साफ है कि संविधान संसद को ये अधिकार देता है कि वो  नए राज्य बनाने, उसकी सीमा में बदलाव करने या नाम बदलने के संबंध में बिना राज्यों की अनुमति के भी कदम उठा सकती है. अनुच्छेद 4 में ये प्रावधान निहित है कि इस तरह का कोई भी कानून सामान्य बहुमत और साधारण विधायी प्रक्रिया के जरिए ही पारित किया जाएगा. इसे अनुच्छेद 368 के तहत संविधान संशोधन नहीं माना जाएगा.   


केंद्र के पास है अधिकार, राज्यों के पास नहीं


संविधान के इन प्रावधानों से स्पष्ट है कि नए राज्य बनाने, या फिर राज्यों की सीमाओं, नामों में बदलाव करने का अधिकार संसद के पास है. संवैधानिक तौर से ये अधिकार राज्य सरकारों के पास नहीं, बल्कि केंद्र सरकार के पास है. व्यावहारिक तौर से सिर्फ केंद्र सरकार ही संसद से कानून बनाकर किसी भी राज्य की सीमा में बदलाव कर सकती है. संविधान के प्रावधानों से ये भी स्पष्ट है कि केंद्र सरकार अनुच्छेद 3 के अधीन ही इस तरह का कोई कानून बना सकती है और राज्यों की सीमा में तभी बदलाव मुमकिन है. 


सुप्रीम कोर्ट में 2004 से मामला है लंबित


संविधान के अनुच्छेद 3 के प्रावधानों का ही उल्लेख करके कर्नाटक कहता रहा है कि ये मामला सु्प्रीम कोर्ट के क्षेत्राधिकार में आता ही नहीं है. महाराष्ट्र इस मामले को 2004 में सुप्रीम कोर्ट ले गया था.   कर्नाटक का कहना है कि सिर्फ संसद के पास ही राज्यों की सीमा में बदलाव का अधिकार है. वहीं महाराष्ट्र संविधान के अनुच्छेद 131 का हवाला देते हुए कहता है कि केंद्र सरकार और राज्यों के बीच विवादों से संबंधित मामलों में सुप्रीम कोर्ट का अधिकार क्षेत्र है.


हालांकि राज्यों के बीच सीमा में बदलाव को लेकर संविधान में जिस तरह का प्रावधान है, उससे साफ है कि राज्यों के पास इस मामले में कोई भी अधिकार नहीं है. महाराष्ट्र और कर्नाटक अपने-अपने प्रस्ताव के जरिए सिर्फ दबाव बनाने की राजनीति कर रहे हैं.  सीमा में बदलाव को लेकर इसका कोई कानूनी मतलब नहीं है.  


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