Karnataka CM Power Sharing Formula: कर्नाटक में कांग्रेस ने बड़ी जीत के बाद अब सीएम पद को लेकर भी डील क्रैक कर ली है. जो फॉर्मूला निकलकर सामने आ रहा है, उसके तहत फिलहाल सिद्धारमैया मुख्यमंत्री होंगे और डीके उनके डिप्टी के तौर पर काम करेंगे. इसके अलावा डीके को कई अहम मंत्रालय भी सौंपे जाएंगे. इसी बीच एक और फॉर्मूला निकलकर सामने आया है, जिसमें कहा जा रहा है कि डीके को कांग्रेस आलाकमान की तरफ से आश्वासन मिला है कि ढ़ाई साल बाद उन्हें मुख्यमंत्री बना दिया जाएगा. यानी पहले ढ़ाई साल सिद्धारमैया सीएम रहेंगे और बाकी बचे ढ़ाई साल डीके शिवकुमार कुर्सी संभालेंगे. 


हालांकि भारतीय राजनीति में देखा गया है कि पावर शेयरिंग का ये फॉर्मूला हर बार फेल साबित हुआ है. पहले भी कई राज्यों में इस तरह के फॉर्मूले बने, लेकिन वक्त आने पर पावर दूसरे के हाथों में नहीं दी गई. यानी पावर को शेयर करना हर किसी के लिए मुश्किल रहा है. 


चार दिन बाद माने डीके शिवकुमार 
कर्नाटक में 10 मई को वोटिंग हुई और 13 मई को विधानसभा चुनाव के नतीजे सामने आए, जिसमें कांग्रेस ने 135 सीटों के साथ बड़ी जीत दर्ज की. जीत के बाद सीएम पद को लेकर डीके शिवकुमार और सिद्धारमैया के बीच जमकर खींचतान हुई और दिल्ली में बैठकों का दौर चला. डीके इस बात पर अड़ गए थे कि उन्हें मुख्यमंत्री बनाया जाए, वहीं वो नहीं चाहते थे कि सिद्धारमैया सीएम बनें. राहुल गांधी और सोनिया स बातचीत के बाद अब कहा जा रहा है कि डीके मान गए हैं. वहीं ढ़ाई साल वाले फॉर्मूले की बात भी सामने आई है. जो डीके और कांग्रेस के लिए खतरे की घंटी साबित हो सकता है. आइए समझते हैं कैसे... 


कर्नाटक में फेल रहा था फॉर्मूला
बाकी राज्यों की बात करें उससे पहले कर्नाटक की ही उस कहानी का जिक्र करते हैं, जब पावर शेयरिंग वाला फॉर्मूला बुरी तरह से फेल रहा और सरकार गिर गई. बात साल 2004 की है, जब कर्नाटक में विधानसभा चुनाव हुए. इस चुनाव में किसी भी पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिल पाया था. बीजेपी को 224 सीटों में से सबसे ज्यादा 79 सीटें मिली थीं, उसके बाद कांग्रेस को 65 और जेडीएस को 58 सीटों पर जीत मिली. सिंगल लार्जेस्ट पार्टी होने के बाद भी बीजेपी गठबंधन नहीं कर पाई और कांग्रेस-जेडीएस ने साथ मिलकर सरकार बना ली. इस सरकार में धरम सिंह मुख्यमंत्री बने. 


इसके बाद 2006 में जेडीएस ने कांग्रेस से अपना समर्थन वापस ले लिया और सरकार गिर गई. बीजेपी के साथ जेडीएस ने बातचीत की और पावर शेयरिंग का एक फॉर्मूला तैयार हुआ. जिसके तहत 20 महीने जेडीएस का सीएम और बाकी बचे 20 महीने बीजेपी का मुख्यमंत्री होना था. जेडीएस के एचडी कुमारस्वामी इस गठबंधन में 20 महीने के लिए मुख्यमंत्री बने, लेकिन जब पावर शेयरिंग की बारी आई तो बीजेपी को कुर्सी सौंपने के जगह कुमारस्वामी ने राज्यपाल को इस्तीफा सौंप दिया. इस तरह सरकार गिर गई और राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया.


कहानी यहीं खत्म नहीं हुई, जेडीएस के कुछ दिनों बाद बीजेपी के बीएस येदियुरप्पा को सीएम बनाने पर हामी भरी और नवंबर 2017 में येदियुरप्पा ने सीएम पद की शपथ ली, लेकिन मंत्रिमंडल को लेकर बात नहीं बनने पर एक ही हफ्ते में जेडीएस ने अपना समर्थन वापस ले लिया. फिर से राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया. हालांकि बीजेपी और खासतौर पर येदियुरप्पा ने इसे जमकर भुनाया और जनता के बीच इस बात को पहुंचाया कि उन्हें धोखा मिला है. सहानुभूति के तौर पर 2008 चुनाव में उन्हें जमकर वोट मिले और पार्टी ने कर्नाटक में सरकार बनाई. बीजेपी ने 110 सीटों पर जीत दर्ज की और जेडीएस 28 सीटों पर सिमट गई. वहीं कांग्रेस को इस बार 80 सीटें मिलीं. 


छत्तीसगढ़ में भी जमकर बवाल
कांग्रेस शासित राज्य छत्तीसगढ़ में भी इस फॉर्मूले की जमकर चर्चा हुई थी. यहां कांग्रेस ने 2018 में 90 सीटों में से 68 सीटों पर बड़ी जीत दर्ज की. कर्नाटक की ही तरह यहां भी पार्टी के दो बड़े नेताओं के बीच टकराव की स्थिति बनी थी, तब कांग्रेस आलाकमान की तरफ से पावर शेयरिंग के फॉर्मूले की बात कही गई थी. कहा गया कि पहले ढ़ाई साल भूपेश बघेल मुख्यमंत्री रहेंगे और उसके बाद टीएस सिंह देव को सीएम पद दे दिया जाएगा. 


2021 में सरकार का आधा कार्यकाल पूरा होने के बाद जब टीएस सिंह देव ने आवाज उठाई तो भूपेश बघेल ने पावर शेयरिंग से साफ इनकार कर दिया. बघेल की राहुल गांधी और केंद्रीय नेतृत्व के साथ नजदीकियों के चलते इस फॉर्मूले को भुला दिया गया और बघेल ही सीएम पद पर बने रहे. नाराज सिंह देव ने पंचायत एवं ग्रामीण विकास मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया, हालांकि इससे ज्यादा कुछ नहीं हुआ और आलाकमान ने बघेल को नहीं हटाया. अब अगले कुछ ही महीनों में छत्तीसगढ़ में भी चुनाव होने जा रहे हैं, ऐसे में टीएस सिंह देव पार्टी के सामने मुश्किलें खड़ी कर सकते हैं. 


बसपा-बीजेपी का पावर शेयरिंग फॉर्मूला
साल 1996 में सबसे पहले पावर शेयरिंग फॉमूला पूरी तरह से फेल हुआ था. तब मायावती की बसपा और कांग्रेस ने चुनाव से पहले गठबंधन कर लिया था. नतीजे सामने आए तो बीजेपी को सबसे ज्यादा 174 सीटें मिलीं, जबकि सपा को 110, बसपा को 67 और कांग्रेस को 33 सीटें मिली थीं. तब उत्तराखंड अलग नहीं हुआ था और राज्य में कुल 424 सीटें थीं. चुनाव के बाद बहुमत किसी भी दल के पास नहीं था और गठबंधन भी नहीं हो पाया, जिसका नतीजा ये रहा कि कुछ महीनों तक राष्ट्रपति शासन लगा रहा. 


मार्च 1997 में बसपा और बीजेपी की बातचीत शुरू हुई और एक फॉर्मूला तय हुआ. जिसके तहत 6-6 महीने में मुख्यमंत्री बदले की बात कही गई. क्योंकि 1995 में एक बार पहले ही बीजेपी-बसपा का गठबंधन फेल रहा था, ऐसे में बीजेपी की तरफ से लिखित में मायावती से समझौता किया गया. मायावती ने सीएम पद की शपथ ली और 6 महीने पूरे होने के बाद बीजेपी को पावर ट्रांसफर कर दिया. बीजेपी के कल्याण सिंह ने सीएम पद की शपथ ली, लेकिन एक ही महीने तक वो सीएम रह पाए. क्योंकि मायावती ने अपना समर्थन वापस ले लिया और सरकार गिर गई. इस तरह 90 के दशक में भी पावर शेयरिंग का फॉर्मूला पूरी तरह से फेल साबित हुआ. 


अब कर्नाटक में भी डीके शिवकुमार इसीलिए इस फॉर्मूले से ज्यादा खुश नजर नहीं आ रहे हैं. क्योंकि भारतीय राजनीति का इतिहास बताता है कि जो पहले कुर्सी पर बैठता है, असली पावर उसी के हाथों में होती है और जिसने सत्ता का स्वाद चख लिया वो उसे किसी दूसरे के हाथों में आसानी से नहीं देता है. देखना होगा कि कर्नाटक में डीके शिवकुमार इस फ्लॉप फॉर्मूले पर हामी भरते हैं, या फिर वो डिप्टी सीएम और मंत्रालयों की जिम्मेदारी मिलने से ही संतुष्ट रहते हैं.