Bihar Caste Based Survey Report: बिहार सरकार ने सोमवार (2 अक्टूबर) को जातिगत सर्वे के आंकड़ों को जारी कर दिया. बिहार के मुख्य सचिव के जरिए जारी किए गए आंकड़ों से पता चलता है कि राज्य में ओबीसी यानी अन्य पिछड़ी जातियों की आबादी 63 फीसदी है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की सरकार के जरिए करवाए जाए जातिगत सर्वे को लेकर काफी विवाद मचा था. ये मामला सुप्रीम कोर्ट तक चला गया. हालांकि, आखिर में राज्य सरकार की तरफ से आंकड़ें सामने आ गए हैं. 


बिहार में हुए जातिगत सर्वे को 'बिहार जाति आधारित गणना' के तौर पर भी जाना जाता है. इसकी रिपोर्ट में बताया गया है कि राज्य की आबादी 13 करोड़ है. ओबीसी में दो कैटेगरी हैं, जिसमें से पिछड़ी जाति की आबादी 27 फीसदी है, जबकि अति पिछड़ी जाति की आबादी 36 फीसदी है. हालांकि, ये पहला मौका नहीं है, जब जाति आधारित गणना करवाई गई है. पहले भी ऐसा किया गया था, मगर उस वक्त आंकड़े जारी नहीं किए गए थे. आइए इसकी वजह जानते हैं. 


भारत में पहली बार कब जनगणना हुई? 


भारत में जनगणना का इतिहास 100 साल से भी ज्यादा पुराना है. भारत में पहली बार साल 1881 में जनगणना करवाई गई. अंग्रेजों के सरकार में हुई इस जनगणना में जातियों का आंकड़ा भी इकट्ठा किया गया. हर 10 साल पर होने वाले जनगणना के जरिए जातिगत आंकड़ों के जारी होने का सिलसिला 1931 तक चलता रहा. 1931 वो आखिरी साल था, जब जातियों का आंकड़ा सार्वजनिक किया गया. इसके बाद से अब तक राष्ट्रीय स्तर पर जातियों की जनसंख्या का कोई भी ठोस आंकड़ा नहीं है. 


क्या आजाद भारत में हुई जातिगत जनगणना? 


वहीं, 1941 में भी जाति के आधार पर जनगणना की गई. मगर अंग्रेजी हुकूमत की तरफ से इसका आंकड़ा लोगों के लिए जारी किया ही नहीं गया. इसके 10 साल बाद जब 1951 में आजाद भारत में लोगों की गिनती की गई, तो सरकार ने फैसला किया कि जातियों का आंकड़ा तो जारी किया जाएगा. मगर इसके लिए जब जनगणना होगी, तो उसमें सिर्फ अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के आंकड़ें ही शामिल किए जाएंगे. 


कैसे लागू हुई थीं मंडल कमीशन की सिफारिशें? 


हालांकि, बाद में सरकार ने हर 10 साल पर जनगणना करवाई, मगर उसमें कभी जातियों से जुड़ी विस्तृत जानकारी सामने नहीं रखी गई. भारत ने 90 के दशक में जब मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू कर पिछड़े वर्ग को आरक्षण दिया, तो उसके लिए 1931 में मौजूद जातिगत गणना के डाटा का इस्तेमाल किया गया. 1931 के आंकड़ों के मुताबिक, देश में ओबीसी की आबादी 52 फीसदी होने की बात कही गई. मगर उसी दौर से जातिगत गणना की मांग उठने लगी थी. 


आजाद भारत में जाति आधारित जनगणना कब हुई? 


दरअसल, यूपीए-2 की सरकार के समय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार पर जातिगत जनगणना कराने का दबाव बनाया गया. साल 2010 में लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव जैसे ओबीसी नेताओं ने सरकार पर दबाव बनाया कि उसे जातियों की जनगणना करवाना चाहिए. पिछड़े समुदाय से आने वाले कांग्रेसी नेताओं ने भी यही बात दोहराई.


वहीं, ओबीसी नेताओं की तरफ से बन रहे दबाव का असर भी देखने को मिला. 2011 में सरकार ने फैसला किया कि वह 'सोसियो-इकनॉमिक कास्ट सेंसस' (SECC) करवाएगी. इसके लिए चार हजार करोड़ रुपये खर्च किए गए.  ये जनगणना 2013 में पूरी भी हो गई, मगर इसके जरिए हासिल की गई जातियों का आंकड़ा आज तक सामने नहीं आया है. 


क्यों जारी नहीं किए गए आंकड़े? 


दरअसल, SECC के जरिए जुटाए गए डाटा के आधार पर एक फाइनल रिपोर्ट तैयार होनी थी. मगर 2014 में सरकार बदली. फिर 2015 में तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा कि जल्द ही जातिगत जनगणना के आंकड़ों को जारी किया जाएगा. उन्होंने बताया था कि आंकड़ों के मुताबिक देश में 46 लाख जातियां और उपजातियां हैं.


हालांकि, इस पर भी संशय था कि इतनी जातियां कैसे हो सकती हैं. उन्होंने बताया था कि इन सभी जातियों को एक करने के लिए राज्यों के पास भेजा जाएगा और फिर नीति आयोग के तहत बनने वाली कमेटी जब इसकी जांच कर लेगी, तो आंकड़ें जारी कर दिए जाएंगे. हालांकि, ये कमेटी कभी बन ही नहीं पाई और आंकड़ें कभी जारी नहीं किए गए. 


कर्नाटक के जातिगत गणना के आंकड़े भी नहीं हुए जारी


कर्नाटक में जब 2015 में कांग्रेस की सरकार थी, तो उसने वहां पर जातिगत गणना करवाई. कर्नाटक राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग ने 2015 में एक 'सामाजिक-आर्थिक और शैक्षिक सर्वे' पेश किया. इसमें राज्य की सभी जातियों का डाटा था. हालांकि, इसके आंकड़े को कभी जारी नहीं किया गया. इसकी वजह ये रही कि वोक्कालिगा और लिंगायत समुदाय के सदस्यों ने इसका विरोध करना शुरू कर दिया.


सर्वे की लीक हुई रिपोर्ट से ये जानकारी भी सामने निकलकर आई थी कि राज्य की कुछ प्रमुख जातियों की जनसंख्या काफी कम थी, जबकि उन जातियों से आने वाले नेताओं का दावा था कि आबादी के लिहाज से वे राज्य की प्रमुख जातियां हैं. विरोध करने वाले लोगों को डर था कि अगर जातियों का डाटा बाहर आएगा और सबको मालूम चल जाएगा कि उनकी आबादी कम है. इसका मतलब हुआ कि उनकी आबादी के लिहाज से ही उनका प्रतिनिधित्व तय होगा. 


बिहार में जातीय गणना की टाइमलाइन कैसी रही है? 


बिहार सरकार को जातिगत गणना करवाने में लगभग चार साल का वक्त लगा है. ये एक बेहद ही लंबा सफर रहा है. ऐसे में आइए आपको जातिगत गणना की पूरी टाइमलाइन बताते हैं.



  • 18 फरवरी 2019: बिहार विधानसभा में जातीय गणना का प्रस्ताव पास हुआ

  • 27 फरवरी 2020: बिहार में जातीय गणना का प्रस्ताव लाया गया 

  • 2 जून 2022: बिहार सरकार की कैबिनेट की तरफ से जातिगत गणना को हरी झंडी मिली

  • 7 जनवरी 2023: बिहार में जातीय गणना के लिए सरकार ने काम शुरू किया

  • 4 मई 2023: पटना हाईकोर्ट ने जातीय गणना पर 3 जुलाई तक अंतरिम रोक लगाई

  • 7 जुलाई 2023: हाईकोर्ट में पांच दिनों तक सुनवाई चली. इसके बाद अदालत ने अपना फैसला सुरक्षित रखा

  • 1 अगस्त 2023: पटना हाईकोर्ट ने अंतरिम रोक हटाई, सरकार के जाति गणना करने के निर्णय को सही ठहराया

  • 19 अगस्त 2023: सुप्रीम कोर्ट ने जाति आधारित सर्वे के नतीजों के प्रकाशन पर रोक लगाने से इनकार किया

  • 25 अगस्त 2023: सीएम नीतीश कुमार ने कहा कि सर्वेक्षण पूरा हो चुका है. जल्द ही आंकड़े सार्वजनिक किए जाएंगे

  • 2 अक्टूबर 2023: बिहार के मुख्य सचिव ने जातियों का आंकड़ा जारी कर दिया. इसके मुताबिक राज्य में ओबीसी की आबादी 63 फीसदी है


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