Bhagat Singh Birth Anniversary Special: मौत के आगोश में लेने के लिए फांसी का फंदा सामने हो, पर होठों पर मुस्कान लिए उसे चूम लेने की प्रेरक तस्वीर दुनिया में एकमात्र मां भारती के लाल सरदार भगत सिंह की है. मौत की मौजूदगी का एहसास ही दुनिया के हर जीव को भयाक्रांत कर देता है, लेकिन प्यारे वतन की आजादी का कैसा जुनून होगा कि महज 23 साल के नौजवान ने फांसी के फंदे को सामने देख अपने साथियों को गले लगाया और हंसते हुए उस फंदे को चूम लिया.


अभी सूरज भी नहीं निकला था कि अपने राज में सूरज नहीं डूबने देने वाली ब्रिटिश हुकूमत ने डर के मारे मां भारती के इस लाल और साथियों को फांसी के फंदे पर लटका दिया. मौत से आंखें चार कर रहे इन सपूतों के चेहरे पर शिकन तक नहीं आई. मां भारती की आजादी का कुछ ऐसा ही जुनून था सरदार भगत सिंह का.


पिता ने भगत को बचाने के लिए की थी पैरवी


28 सितंबर को उनकी जयंती है. आज हम बात वतन परस्ती के प्रति उनके उस जज्बे की कर रहे हैं, जिसमें उन्होंने अपने लिए अंग्रेजी हुकूमत से पैरवी करने पर पिता को कठोर चिट्ठी लिखकर कह दिया था कि आप की जगह कोई और होता तो मैं उसे गद्दार कहता. यह वाकया 4 अक्टूबर 1930 का है. लाहौर षड्यंत्र केस में भगत सिंह, साथी सुखदेव और राजगुरु के खिलाफ ट्रिब्यूनल में मुकदमा चल रहा था.


30 सितंबर 1930 को भगत सिंह के पिता सरदार किशन सिंह ने ट्रिब्यूनल को एक अर्जी देकर भगत सिंह के लिए बचाव पेश करने के लिए अवसर की मांग की, क्योंकि उन्हें और कुछ देशभक्तों को लगता था कि शायद भगत को फांसी से बचाया जा सकता है. इसकी जानकारी जैसे ही सरदार भगत सिंह को मिली, उन्होंने 4 अक्टूबर 1930 को पिता को खत लिख डाला. हालांकि यह पत्र उनके पिता को देरी से मिला और 7 अक्टूबर 1930 को मुकदमे का फैसला सुना दिया गया था. चलिए आज हम बताते हैं उन्होंने अपने पिता को क्या लिखा था पत्र में.


पिताजी आप इम्तिहान में नाकाम रहे


भगत ने अपने पिता को लिखा कि पिताजी, मैं बहुत दुखी हूं. मुझे भय है कि आप पर दोषारोपण करते हुए मैं सभ्यता की सीमा ना लांघ जाऊं, और मेरे शब्द ज्यादा सख्त ना हो जाएं, लेकिन मैं यहां स्पष्ट शब्दों में अपनी बात अवश्य कहूंगा. यदि कोई और ऐसा करता, तो मैं इसे गद्दारी से कम न मानता. लेकिन आप के संदर्भ में मैं इतना ही कहूंगा कि यह एक निचले दर्जे की कमजोरी है. इस वक्त हम सबका इम्तिहान हो रहा था और आप इस इम्तिहान में नाकाम रहे हैं. मैं जानता हूं पिताजी कि आप भी उतने ही देश प्रेमी हैं जितना कि कोई और व्यक्ति हो सकता है. आपने अपनी पूरी जिंदगी आजादी के लिए लगा दी है, लेकिन इस अहम मोड़ पर आपने ऐसी कमजोरी दिखाई है, जिसे मैं नहीं समझ सकता. अंत में मैं आपसे और मेरे मुकदमे में दिलचस्पी लेने वालों से यह कहना चाहता हूं कि मैं आपके इस कदम को नापसंद करता हूं.  


अपनी चिट्ठी को छपवाने को भी कहा
भगत ने पत्र में लिखा, आपका बेटा होने के नाते मैं आपकी पैतृक भावनाओं और इच्छाओं का पूरा सम्मान करता हूं, लेकिन इसके बावजूद मैं समझता हूं कि आपको मेरे साथ सलाह-मशविरा किये बिना ऐसे आवेदन देने का कोई अधिकार नहीं था. मैंने कभी भी अपना बचाव करने की इच्छा प्रकट नहीं की और न ही मैंने कभी इस पर संजीदगी से गौर किया है. पत्र के अंत में भगत ने लिखा, "सबको असलियत पता चले, इसलिए मेरी ये चिट्ठी जल्द से जल्द प्रकाशित करवा दीजिएगा.''


सिर्फ़ 23 साल की उम्र में हुई थी फांसी


आपको बता दें कि सरदार भगत सिंह का जन्म पंजाब के बंगा में 28 सितंबर 1907 को हुआ था. भगत सिंह बचपन से ही मातृभूमि के प्रति समर्पण की अपनी राह चुन ली थी. लाहौर षडयंत्र के तहत अंग्रेजों ने उन्हें केवल 23 साल की उम्र में फांसी पर चढ़ा दिया. ये 23 मार्च 1931 का मनहूस दिन था, जब लाहौर सेंट्रल जेल में वो भारत मां की आजादी का ख्वाब दिल में लिए मां भारती पर कुर्बान हो गए थे. विरोध भड़कने के डर से सूरज उगने से पहले ही अंग्रेजों ने उन्हें फांसी पर लटका दिया था.


वे कहा करते थे,


लिख रहा हूं मैं अंजाम जिसका, कल आगाज आएगा 
मेरे लहू का हर एक कतरा, इंकलाब लाएगा
मैं रहूं या ना रहूं पर यह वादा है मेरा तुमसे
कि मेरे बाद वतन पर मरने वालों का सैलाब आएगा 


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