मोदी मंत्रिमंडल के विस्तार के साथ ही साथ देश के नए मंत्रालय को भी मंत्री मिल गए हैं. वो चौंकाने वाला चर्चित मंत्रालय है सहकारिता और इस शाहाकार के शाह बन गए हैं गृहमंत्री. मतलब गृहमंत्री होने के साथ-साथ अमित शाह के हाथों में सहकारिता की बागडोर भी आ गई है. इसके पीछे प्रशासनिक, राजनीतिक, आर्थिक और सियासी हैसियत के राज क्या हैं, इस पर करेंगे बात.


सहकारिता मंत्रालय का विचार नया और अनोखा तो है ही, लेकिन सियासी और आर्थिक रूप से गेमचेंजर भी है. बदलाव भी सिर्फ राजनीतिक नहीं, बल्कि प्रशानिक स्तर पर भी अहम हैं और वास्तव में मौजूदा सरकार और संगठन में औपचारिक रूप से शाह की हैसियत को बहुत ज्यादा बढ़ाने वाला भी है.


तो राज की बात में हम आपको बताएंगे सहकारिता मंत्रालय बनाने की पीछे का मक्सद क्या है. राज की बात में हम आपको बताएंगे कि देश को इससे क्या फायदा होने जा रहा है और आपको ये भी बताएंगे सियासी तौर पर मोदी सरकार का ये कितना बड़ा कदम है. आर्थिक और सामाजिक पक्ष की बात से पहले बात उस राज की जिससे सहकारिता के जरिये तमाम राज्यों में राजनीतिक दल राज करते हैं.


सबसे बड़ी बात कि हर राज्य में सहकारिता पर वहां की ताकतवर पार्टी का कब्जा रहता है. सभी बड़े राज्यों में सहकारिता के बूते राजनतिक दलों का राज चलता है. मसलन महाराष्ट्र में एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार कैसे सहकारिता के जरिये ही राजनीतिक दबदबा बनाकर रखे हुए हैं. चाहे सहकारी बैंक हों या सहकारिता के अन्य आयाम सभी जगह पवार का फुटप्रिंट रहा है. यूपी जैसे राज्य में भी जो ताकतवर दल होता है वो सहकारिता पर कब्जा कर विपक्ष में रहने के बावजूद अपना राज चलाता रहता है. मतलब ये सब कील कांसे दुरुस्त करने की जिम्मेदारी राजनीतिक तौर पर शाह के हाथ में आ गई है.


अब आर्थिक और सामाजिक पहलू की बात करें तो देश में चाहे दुग्ध क्रांति की बात हो जो अमूल के जरिये गुजरात से गांव-गांव तक पहुंची. अमूल के बाद मदर डेयरी या पूरे देश में किस तरह की डेयरी हैं और ये हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा बन चुका है ये सब सामने है. 


सहकारिता आंदोलन से महिला सशक्तीकरण और स्वावलंबन भी जुड़ा हुआ है. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, सहकारिता से परोक्ष या प्रत्यक्ष तौर पर देश के 40 करोड़ लोग जुड़े हैं. आप समझ सकते हैं कि ये संख्या देश के विकास से लेकर सियासत तक के लिए कितनी महत्वपूर्ण है.
उदाहरण के लिए सहकारिता के विस्तार की बात करें तो देश में 1 लाख 94 हजार 195 कॉपरेटिव डेयरी सोसइटी हैं और 330 कॉपरेटिव शुगर मिल संचालित हो रही हैं. देश में श्वेत क्रांति की बयार बहाने में सहकारी समितियों का बड़ा योगदान रहा है जिसके ज्वलंत उदाहरण अमूल और लिज्जत पापड़ जैसे उपक्रम हैं जो अब ब्रांड बन चुके हैं. देश में उत्पादित होने वाली 35 फीसदी चीनी सहकारिता से जुड़ी समितियां करती हैं. बैंकिंग और फाइनेंस को ग्रामीण स्तर तक पहुचाने में भी सहकारिता का बड़ा योगदान देश में रहा है. नाबार्ड की 2019-20 की रिपोर्ट के मुताबिक स्टेट कॉपरेटिव बैंक्स ने कृषि क्षेत्र से जुडी इंडस्ट्रीज को 1 लाख 48 हजार 625 करोड़ा का लोन बांटा.


उपलब्धियों का दायरा इतना बड़ा होने के बावजूद कानूनी और प्रशासनिक तौर पर बहुत कुछ अभी छिटका हुआ है, जिसे एक मंत्रालय के दायरे में लाकर व्यवस्थित करने की बड़ी मुहिम देश में चलने जा रही है. सहकारिता और सहकारी समितियों को विस्तार की बात करें तो इसका सीधा संबध लगभग 2 दर्जन मंत्रालयों से है. और इन्हीं 2 दर्जन मंत्रालयो का समन्वयक बनेगा सहकारिता मंत्रालय जो देश भर में फैली सहकारी समितियों के आर्थिक और सामाजिक पक्ष को सुदृढ़ करने की जिम्मेदारी उठाएगा.


राज की बात ये है कि सहकारिता मंत्रालय से हर पक्ष को फायदा है. सियासी और प्रशासनिक तौर से देखें तो केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह का दायरा बहुत ज्यादा बड़ा हो गया है. हालांकि गृहमंत्रालय की जिम्मेदारी भी बहुत बड़ी है लेकिन अब सुरक्षा और समनव्य के साथ ही अमित शाह के हाथों में देश की बड़ी आबादी के वित्तीय पक्ष को मजबूत करने की जिम्मेदारी भी आ गई है और जनता से सरकार के कनेक्ट को और मजबूत करने का बीड़ा भी.


चूंकि सहकारिता को पोषित करने वाले मंत्रालयो की बात करें तो इनमें वित्त मंत्रालय भी है, वाणिज्य मंत्रालय भी है, ट्राइबल मंत्रालय भी है, कपड़ा मंत्रलाय भी है, कृषि मंत्रलाय भी है और ऐसे ही 2 दर्जन मंत्रालय सहकारिता आंदोलन को देश में मजबूत कर रहे हैं. ऐसे में अब सहकारिता मंत्री होने के नाते अमित शाह की समीक्षा के दायरे में ये सभी मंत्रालय आ गए हैं. मतलब दो दर्जन मंत्रालयों में जो सहकारिता की पूछ फंसी हुई थी, अब पूरा का पूरा अमित शाह के दायरे में आ गया है.


यहां दूसरी राज की बात ये है कि इन सभी विभागों में जहां सहकारिता से जुड़े मसलों के चलते गृह और सहकारिता मंत्री अमित शाह का सीधा दखल होगा. तमाम मसले जो पीएम के पास जाते थे, वो शाह की टेबल पर ही निस्तारित हो जाएंगे. इतना ही नहीं तमाम मसलो पर कोई भी फाइल पीएम के पास पहुंचने से पहले अमित शाह से होकर गुजरेगी. ऐसे में समझा जा सकता है कि प्रधानमंत्री ने उनकी जिम्मेदारियों का दायरा कितना बड़ा और विस्तृत कर दिया है. वैसे मोदी सरकार में शाह की हैसियत और कद का अंदाजा सभी को है. वो कितने ताकतवर हैं, किसी से छिपा नहीं है. इसके बावजूद अब सहकारिता के इस नए शाहाकार से शाह का कद किसी की भी तुलना में बहुत ज्यादा बढ़ गया है. आम भाषा में समझें तो नंबर एक के बाद अब शाह का ही कद है, बाकी किसी से कोई तुलना नहीं.


हालांकि, हर ताकत अपने साथ जिम्मेदारियों की नई चुनौती भी लेकर आती है. सहकारिता से वोटों का गणित सुधारने की चुनौती के साथ-साथ आर्थिक पक्ष को भी मजबूत करने और देश के विकास में योगदान लाने की चुनौती भी है. सहकारिता आंदोलन के अन्य पक्षों को देखा जाए तो सरकार का सीधा कनेक्ट उन लोगों से बनेगा जिनका अभी तक सरकार से सीधा मतलब नहीं होता था. और सबसे बड़ी बात ये है कि जब सहकारिता से जुड़े लगभग 40 करोड़ लोगों तक सरकार और योजनाएं पहुंचेंगी तो एक बड़ा वोट बैंक भी सधेगा. चूंकि बीजेपी और आरएसएस ग्रास रूट लेवल या सियासी शब्दों में कहें तो बूथ लेवल तक की प्लानिंग पर चलते हैं. ऐसे में ग्रामीण और शहरी परिवेश में छोटी छोटी समितियां बनाकर अपनी आजिविका चला रहे लोगों से सरकार जुडेगी और इन्हें अपने वोट बैंक में बदल पाएगी.


इस मंत्रालय के गठन के पीछे महत्वाकांक्षा जो भी हो, लेकिन ये प्लानिगं केवल सियासी तौर पर ही समृद्धि नहीं देगी. बल्कि लगभग 2 दर्जन मंत्रालयों का प्रयास से जब सहकारिता के दायरे में सामूहिक हो जाएगा तब आर्थिक समृद्धि भी बढ़ेगी और सफलता के नए पायदान पर देश का सहकारिता आंदोलन नजर आएगा, ऐसी उम्मीद की जा सकती है.