Yajurveda: वैदिक मंत्रों का विभाजन ऋषि वैष्णम्पायन ने लिखने के तरीके को ध्यान मे रखकर, किसी समय याज्ञवल्क्य से करवाया. ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद के रूप में तीन भागों में किया गया है. छन्दों वाले मंत्रों का नाम ऋग्वेद, गद्यात्मक मंत्र समुदाय को यजुर्वेद नाम दिया गया और गेय मंत्र सामवेद के नाम से प्रसिद्ध है.


यजुर्वेद का अर्थ यास्क ने बताया कि इससे यज्ञ के स्वरूप का निर्धारण होता है. यज्ञस्य मात्रां वि मिमीत उ त्वः' (ऋग्वेद 10.71.11)


यजुर्वेद के भेद:– 



  • शुक्लयजुर्वेद – आदित्य परम्परा से प्राप्त मंत्र शुक्लयजुर्वेद और 

  • कृष्णयजुर्वेद – ब्रह्म परम्परा से प्राप्त मंत्र को कृष्णयजुर्वेद कहते हैं.


इसके पीछे एक रोचक कहानी 


सर्वप्रथम सत्यवती के पुत्र पाराशर, भगवान वेदव्यास ने एक ही वेद संहिता का चार भागों में विभाजन करके ऋक्, यजुः, साम और अथर्व नाम के चारों वेदों को क्रमशः पैल, वैशम्पायन, जैमिनि और सुमन्तु नाम के चार शिष्यों को पढ़ाया. उसके बाद वैशम्पायन ने आदित्य से शुक्लयजुषों को प्राप्त किया है, यह बात स्पष्ट है कि याज्ञवल्क्यादि अपने शिष्यों को यजुर्वेद का श्रवण कराया था. एक समय ज़ब वैशाम्पायन कृद्ध होकर याज्ञवालक्य से अपनी विद्या लौटने को बोले. उक्त अवसर पर याज्ञवालक्य ने योगबल से अपना गुरु आज्ञा से समस्त ज्ञान का वमन कर दिया. उन मंत्रों को 'कृष्णयजुर्वेद' कहते हैं. उक्त वमन किए हुए यजुषों को वैशम्पायन के अन्य शिष्यों ने तित्तिरि (पक्षी विशेष) रूप धारण करके भक्षण कर लिया. तब से वे यजुर्मन्त्र 'कृष्णयजुर्वेद 'के नाम से प्रसिद्ध हुए.


यजुर्वेद की शाखाएं:– महाभाष्यकार पतंजलि के अनुसार यजुर्वेद की 101 शाखाएं थीं, जिनमें कृष्णयजुर्वेद की 86 और शुक्लयजुर्वेदकी 14 शाखाएं हैं. इनमें आजकल अज्ञात कारणों से सभी शाखाएं विलुप्त हो गई है.


शुक्ल यजुर्वेदीय शाखाएं :–
चरणव्यूहादि ग्रन्थों में उक्त शुक्लयजुर्वेद की 14 शाखाओं का नाम आचार्य सायण ने काण्वभाष्य-भूमिका में इस प्रकार दिया है-
काण्वाः, माध्यन्दिनाः, शापेयाः, तापायनीयाः, कापालाः, पौण्ड्वत्साः, आवटिकाः, परमावटिकाः, पाराशर्याः, वैधेयाः, वैनेयाः, औधेयाः, गालवाः, वैजवाः, कात्यायनीयाः।


शुक्ल यजुर्वेद का परिचय:
महर्षि सूर्य की आराधना से याज्ञवालक्य को प्राप्त शुक्ल यजुर्वेद का अपने काण्वादि 15 शिष्यों को उपदेश दिया. उन शिष्यों को वाजसेनी कहा जाता हैं. शुक्लायजुर्वेदी को वाजसेनी कहे जाने के दो हेतु हैं.

आचार्य सायन के अनुसार जिसके पिता ने अन्नदान किया है वह वाजसनेय है क्योंकि उनके पिता याज्ञवलक्य अन्नदान करते थे. इस शाखा को इसीलिए वाजसेनी भी कहते हैं. कण्व संहिता में सायन ऋषि ने लिखा है- वाजस्य अन्त्रस्य, सनिः दानं यस्य महर्षेरस्ति सोऽयं वाजसनिः, तस्य पुत्रो वाजसनेयः (वाजसनि ढक्)'- इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिसने अन्नदान किया है, वह वाजसनि है और उसी के पुत्र का नाम वाजसनेय है. महर्षि याज्ञवल्क्य के पिता अन्नदान करते थे. अतः वाजसनेय याज्ञवल्क्य का दूसरा नाम है. दूसरा कारण सूर्य का दूसरा नाम वजसनेय है. उनका पुत्र होने के नाते वे इस नाम के कहलाए.


माध्यन्दिन शाखा:–


माध्यन्दिन शाखा के बारे मे दो राय है. याज्ञवालक्य के 15 शिष्यों में एक माध्यन्दिन भी थे. सम्भवतः उनके नाम के आधार पर यह उन्हीं के नाम से जानी गई अथवा याज्ञवलक्य को यह शिक्षा मध्यान्ह में मिलने पर यह नाम पड़ा होगा. तर्कसंगत तो प्रथम ही है. इस शाखा का प्रचार उत्तर भारत मे बहुत हुआ. इस शाखा की संहिता को माध्यन्दिन वाजसेनी संहिता भी कहते हैं.


इसके द्वारा प्रतिपादित विषय श्रोत कर्मकांड है. प्रथम एवं द्वितीय अध्यायों में दर्श-पूर्णमास तथा पिण्डपितृ यज्ञ, तृतीय अध्याय में अग्रिहोत्र, चातुर्मास्य मंत्रों का संकलन, 4 से 8 तक में सोम संस्थाओं का वर्णन है. उसमें भी सभी सोमयागों का प्रकृति याग होने के कारण अग्निष्टोम के विषय में विस्तृत वर्णन है. 9वें तथा 10वें अध्यायों में राजसूय और वाजपेययाग का वर्णन है. 11 से 18 तक में अग्निचयन का वर्णन है.


इसी के अन्तर्गत 16वें में शतरुद्रिय होम के मंत्र तथा 18वें में वसोर्धारा-सम्बद्ध मंत्र है. 19 से 21वें तक में सौत्रामणी याग, 22 से 25 तक में सार्वभौम क्षत्रिय राजा के द्वारा किए जाने वाले अश्वमेध- याग का वर्णन है. 26 से 29 तक में खिल मंत्रों का संग्रह है. 



  •  काण्व शाखा:– शुक्लजुर्वेद की दूसरी शाखा जो आज भी उपलब्ध है, वह काण्व नाम से प्रसिद्ध है. इस संहिता के उपदेशक ऋषि कण्व थे. यह महाराष्ट्र, उत्कल क्षेत्र, गुजरात और कर्नाटक में प्रसिद्ध है. इसका भी प्रतिपाद्य मध्यन्तिदिन शुक्लायजुर्वेद के समान ही है.

  •  शुक्लयजुर्वेदीय ब्राह्मण:– इसमें यज्ञ अनुष्ठान से जुड़ा सबसे महत्वपूर्ण भाग शतपथ ब्राह्मण है जो काण्व और माध्यतिदिन शुक्ल यजुर्वेदीय में भी है. इसमें पिंड पितृ यज्ञ को छोड़कर बाकी सामान ही है. इसकी यह विशेषता है कि दोनों शतपथ ब्राह्मण में यज्ञ निरुपन की परिपूर्णता है. छोटे से छोटे विधि विधान का वर्णन है.

  • ब्रहद अरण्यक:–ब्रहद अरण्यक के प्रवचन कर्ता महर्षि याज्ञवलक्य है. अरण्यक ब्राह्मण ग्रंथों का अंतिम भाग है.

  • शुक्लयजुर्वेदीय शतपथ – शुक्ल यजुर्वेदीय शतपथ ब्राह्मण माध्यन्दिन शाखा का 14वां काण्ड तथा काण्व-शाखा का 18वां काण्ड शुक्लयजुर्वेद का अरण्यक ग्रन्थ है. विषय की दृष्टि से अरण्यक और उपनिषद्‌ में साम्य होने से बृहदारण्यक आदि अरण्यक ग्रन्थों को उपनिषद् भी माना जाता है.

  • उपनिषद:– मुक्तिकोपनिषद् (शुक्लयजुर्वेदीय) के अनुसार शुक्लयजुर्वेद से सम्बद्ध 19 उपनिषद् हैं, जिनमें प्रमुख ईशावास्योपनिषद् और बृहदारण्यकोपनिषद् है.

  •  शुक्लयजुर्वेदीय कात्यायन श्रौतसूत्र – शुक्लयजुर्वेदीय श्रौतसूत्रों में आजकल उपलब्ध एकमात्र श्रौतसूत्र का नाम 'कात्यायन श्रौतसूत्र' है. यह ग्रन्थ श्रौतसूत्रों में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है. श्रौतसूत्र के स्वरूप को जानने के लिए कात्यायन श्रौतसूत्र प्रतिनिधि मूलक ग्रन्थ है. श्रौतसूत्रों का मुख्य उद्देश्य श्रौतयागों का संक्षिप्त सुव्यवस्थित क्रमबद्ध प्रतिपादन है.


कृष्णयजुर्वेद की शाखाएं :–
कृष्णयजुर्वेद की 86 शाखाओं में आज केवल 4 शाखाएं उपलब्ध हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं- (1) तैत्तिरीय, (2) मैत्रायणीय, (3) कठ और (4) कपिष्ठल.


कृष्णयजुर्वेद का परिचय:– 



  • तैत्तिरीय शाखा:– शुक्लकृष्ण-यजुषों के भेद-निरूपण में याज्ञवल्क्य के वमन किए हुए यजुषों को वैशम्पायन के अन्य शिष्यों के पक्षी विशेष बनकर यह ज्ञान सहेजा. तित्तिरिरूप धारण करके वान्त यजुषों का भक्षण करने से उन यजुषों का कृष्णत्व हो गया.

  • तैत्तिरीय संहिता- कृष्णयजुर्वेदीय तैत्तिरीय संहिता का प्रसार दक्षिण भारत  में अधिक है. कुछ महाराष्ट्र प्रान्त तथा समग्र आन्ध्र-द्रविड देश इसी शाखा के अनुयायी हैं. इस शाखा ने अपनी संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद्, श्रौतसूत्र तथा गृह्यसूत्र- इन सभी को बड़ी तत्परता से अक्षुण्ण बनाए रखा है. 

  • मैत्रायणीय शाखा- कृष्णयजुर्वेद की शखाओं में मैत्रायणीय शाखा अन्यतम है. इसकी मैत्रायणीय संहिता है. 'मित्रयु' नामक आचार्य के प्रवचन करने के कारण इसका नाम मैत्रायणी हो गया होगा. पाणिनि ने अपने गणपाठ में मैत्रायण का उल्लेख किया है. 

  • कठ शाखा – उपलब्ध शाखाओं में कठशाखा भी एक है. इसका प्रवचन कठ नामक आचार्य ने किया है. इसी कारण इस शाखा की संहिता का नाम 'काठक संहिता' है. कृष्णयजुर्वेद की 27 मुख्य शाखाओं में काठक संहिता (कठशाखा) भी अन्यतम है. पतंजलि के कथनानुसार कठशाखा का प्रचार तथा पठन-पाठन प्रत्येक ग्राम में था. "ग्रामे ग्रामे काठकं कालापकं च प्रोच्यते (महाभाष्य)"। जिससे प्राचीन काल में इस शाखा के विपुल प्रचार का पूर्ण परिचय प्राप्त होता है, परंतु आजकल इसके अध्येताओं की संख्या  की अधिक जानकारी नहीं.

  • कपिष्ठल शाखा- कपिष्ठल ऋषि के द्वारा प्रोक्त यजुषों का नाम कपिष्ठल शाखा है. कपिष्ठल का नाम पाणिनि ने 'कपिष्ठलो गोत्रे' (8.3.91) सूत्र में किया है. इसमें 'कपिष्ठल' शब्द गोत्रवाची है. सम्भवतः कपिष्ठल ऋषि ही इस गोत्र के प्रवर्तक थे. निरुक्त के टीकाकार दुर्गाचार्य ने अपने को कपिष्ठल वासिष्ठ बताया है- 'अहं च कपिष्ठलो वासिष्ठः'(निरुक्तटीका)।

  • कृष्णयजुर्वेदीय ब्राह्मण– कृष्णयजुर्वेदीय शाखाओं में अद्यावधि पूर्णरूप से उपलब्ध तथा अधिक महत्त्वशाली एकमात्र ब्राह्मण 'तैत्तिरीय ब्राह्मण' है. 'काठक ब्राह्मण' का भी नाम सुना जाता है, परंतु वह उपलब्ध नहीं है. शतपथ ब्राह्मण के सदृश तैत्तिरीय ब्राह्मण भी सस्वर है.


आचार्य सायण के अनुसार यजुर्वेद से यज्ञशरीर की निष्पत्ति होती है. अतः यजुर्वेदीय होने के कारण तैत्तिरीय ब्राह्मण में अध्वर्युकर्तृक सम्पूर्ण क्रियाकलापों का वर्णन है. उपर्युक्त विषयों के अतिरिक्त भरद्वाज, नचिकेता,प्रह्लाद और अगस्त्य-विषयक आख्यायिकाएं, सत्यभाषण, वाणी की मधुरता, तपोमय जीवन आदि का भी उल्लेख है.


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