Rigveda: ऋग्वेद को सबसे पुराना और सबसे बड़ा वेद माना गया है. पुरातात्विक प्रमाणों के अनुसार इस वेद की भाषा भी सबसे कठिन है. ऋग्वेद का भाष्य बहुत ही कम लोगों ने किया था, पारंपरिक आचार्यों के अनुसार सयानाचार्य का भाष्य लगभग सबको स्वीकार्य है.


ऋग्वेद कैसे पढ़ें? (How to read Rigveda)


ऋग्वेद 10 मंडलों (Book part) में विभाजित है. प्रत्येक मंडल में सूक्त होते हैं और हर सूक्तों में विभिन्न मंत्र होते हैं. अगर आपको ऋग्वेद का पहला मंत्र पढ़ना हो तो आपको ऐसा बोलना पढ़ेगा, "मैं ऋग्वेद 1.1.1 पढ़ रहा हूं (1 (पहला मंडल. 1 पहला सूक्त. 1 मंत्र)."


ऋग्वेद की शाखाएं



  • हजार से भी अधिक शाखाओं में विस्तृत वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद नाम से प्रसिद्ध है. ऋग्वेद की अध्ययन-परम्परा ऋषि पैल से आरम्भ हुई है. छन्दोबद्ध मन्त्रों से इस वेद की ग्रन्थाकृति आविर्भूत हुई है. महाभाष्य के आधार पर ऋग्वेद की इक्कीस शाखाएं होने का उल्लेख है. सम्प्रति विशेषता शाकल, बाष्कल, आश्वलायन, शांखायन और माण्डूकायन नामक पांच ही उपलब्ध शाखाएं प्रसिद्धि में रही है.

  • यद्यपि शाकल के अतिरिक्त अन्य चारों शाखाओं की संहिता नहीं मिलती है; तथापि इनका अनेक स्थानों पर वर्णन मिलता है. किसी का ब्राह्मण, कि सीका आरण्यक तथा श्रौत सूत्र मिलने से पांच शाखाएं ज्ञात होने की पुष्टि होती है. जैसे कि शाकल के आधारपर ऋग्वेद का अन्तिम मन्त्र "समानी व आकूतिः" है, लेकिन बाष्कल के आधार पर 'तच्छंयोरावृणीमहे' अन्तिम ऋचा है.

  • बाष्कल शाखा की यह ऋचा ऋक्परिशिष्ट के अन्तिम संज्ञान सूक्त का अन्तिम मंत्र है. इसी सूक्त से बाष्कल शाखा-सम्मत संहिता समाप्त होती है. शाकल शाखा के मन्त्र क्रम से बाष्कल के मन्त्र क्रम में बहुत कुछ अन्तर मिलता है.

  • वर्तमान में आश्वलायन शाखा के श्रौतसूत्र और गृह्यसूत्र ही मिलते हैं. इसी तरह शांखायन संहिता के ब्राह्मण और आरण्यक ही प्रकाशित है. लेकिन संहिता नहीं मिलती. प्रकाशित शाकल शाखा और शांखायन शाखा में केवल मन्त्र क्रम में ही भेद है. जैसे शाकल में ऋक् परिशिष्ट और बालखिल्य सूक्त संहिता से पृथक् हैं, जबकि वे शांखायन में संहिता के अन्तर्गत ही है.

  • माण्डूकायन शाखा के भी ग्रन्थ आजकल उपलब्ध नहीं है. इन पांच शाखाओं में भी आज शाकल और बाष्कल शाखाएं ही प्रचलित हैं. जिसमें मण्डल, सूक्त आदि से विभाग किया हो, वह शाकल और जिसमें अष्टक अध्याय-वर्ग आदि के क्रम से विभाग किया गया हो, उसको बाष्कल कहते हैं, यह एक मत है.


इन दोनों शाकल और बाष्कल शाखाओं के भेदक मण्डल, सूक्तक्रम, अध्याय और वर्ग क्रम को छोड़कर एक ही जगह मण्डल-संख्या और अध्याय-संख्याओं का भी निर्देश प्राचीन ग्रन्थों में किया गया है. जैसे कि ऋग्वेद में 64 अध्याय, 8 अष्टक, 10 मण्डल, 2006 वर्ग, 1000 सूक्त, 85 अनुवाक और 10440 मन्त्र होने का उल्लेख विद्याधर गौडकृत कात्यायन श्रौतसूत्र की भूमिका में मिलता है. मण्डल में सूक्तों की संख्या क्रमशः 191, 43, 62, 58,87, 75,104, 103, 114, 191 अर्थात् कुल 1027 निर्धारित मिलती है. कात्यायनकृत चरणव्यूह परिशिष्ट में दस हजार पांच सौ सवा अस्सी मन्त्र होने का उल्लेख मिलता है.


सूक्तों की संख्या शाखा- भेद के कारण न्यूनाधिक देखी जा सकती है. इन सूक्तों के अतिरिक्त अष्टम मण्डल के बीच 43 सूक्त से 59 सूक्त तक पढ़े गये 11 बालखिल्य सूक्त मिलते हैं. स्वाध्याय के अवसर पर इन सूक्तों का पाठ करने की परम्परा ऋग्वेदी विद्वानों की है. प्राप्त शाखाओं मे से शाकल शाखा की विशिष्ट उच्चारण-परम्परा केरल में मिलती है. आश्वलायन और शांखायन शाखीय गुर्जर (गुजरात) में ब्राह्मण परिवार मिलते हैं.


वेदों में कितने छंद हैं? (How Many Berses in the Vedas) 



  • 44 अक्षरों से बनने वाली त्रिष्टुप् छंद

  • 24 अक्षरों की गायत्री छंद और

  •  48 अक्षरों की जगती छन्द प्रधानता से पूरी ऋग्वेद की संहिता में है. चार पादवाले, तीन पादवाले और दो पादवाले मंत्र इसमें देखे जा सकते हैं. दो पादवाली ऋचाएं अध्ययन-काल में चतुष्पदा और यज्ञ के अवसरपर द्विपदा मानी जाती है. दो पादवाली ऋचा को चतुष्पदा करने के लिए प्रगाथ किया जाता है. अन्तिम पाद को पुनः अभ्यास कर के चार पाद बनाने की प्रक्रिया प्रगाथ है.


ऋग्वेदीय सूक्तों से होता है सामाजिक स्थिति का बोध 


यह विशेष गौरवपूर्ण तथ्य है कि मात्र भारत ही नहीं, बल्कि विश्व के लिए ऋग्वेद ज्ञान, विज्ञान और ऐतिहासिक तथ्य एवं सांस्कृतिक मूल्यों के लिए धरोहर है. इसमें अनेक सूक्तों के माध्यम से रोचक एवं महत्त्वपूर्ण विषय का प्रतिपादन किया गया है. कतिपय सूक्तों में दान स्तुति का प्रतिपादन मिलता है. ऐसे सूक्त ऋक्सर्वानुक्रमणिका के आधार पर 22 हैं, लेकिन आधुनिक गवेषक 68 सूक्त होने का दावा करते हैं.


आधुनिक इतिहासकारों का मानना है कि इन मंत्रों में ऋषियों ने दानशील राजा की दान महिमा बतलाई है. लेकिन वैदिक सिद्धान्त की दृष्टि से अपौरुषेय वेद के आधार पर ये दान स्तुतियां प्ररोचना (प्रशंसा) के रूप में स्वीकार्य है. इसमें प्रबन्ध काव्य एवं नाटकों के साथ सम्बन्ध जोड़ने वाले लगभग बीस सूक्त मिलते हैं. कथनोपकथन के प्राधान्य से इन सूक्तों को 'संवादसूक्त' नाम दिया गया है.


इनमें से तीन प्रसिद्ध, रोचक एवं नैतिक मूल्यप्रदायक आख्यायिकाओं से जुड़े संवादसूक्त मिलते हैं. वे पुरूरवा-उर्वशी संवाद (ऋग्वेद 10.85), यम-यमी-संवाद (ऋग्वेद 10.10) और सरमा-पणि-संवाद (ऋग्वेद 10.130) है. पुरूरवा एवं उर्वशी की कथा रोमांचक प्रेम का प्राचीन कालिक निदर्शन है, जिसमें स्वर्ग की अप्सरा पृथ्वी के मानव से विवाह करती है. सशर्त किया हुआ यह विवाह शर्तभंग के बाद वियोग में परिणत होता है.


स्वर्ग की अप्सरा उर्वशी वापस चली जाती है. सूक्त में कुछ कथन पुरूरवा के और कुछ कथन उर्वशी के देखे जा सकते हैं. वैसे ही यमी अपनी काम-इच्छाएं अपने ही भाई यम से पूरी करने के लिए प्रयास करती है. नैतिक एवं चारित्रिक उदात्तता से ओत-प्रोत यम यमी को दूसरा पति ढूंढ़ने का परामर्श देकर भाई-बहन के रक्त-सम्बन्ध में पवित्र एवं मर्यादित करता है. यह आर्यों की महत्त्वपूर्ण संस्कृति रही है.


इसी तरह ऋग्वेदीय सामाजिक विशेषता प्रस्तुत करने वाला सरमा पणि-संवाद सूक्त है. जिसमें पणि लोगों के द्वारा आर्य लोगों की गाएं चुराकर कहीं अंधेरी गुफा में रखने की आख्यायिका आयी है. इन्द्र ने अपनी शुनी (कुत्ती) सरमा को पणियों को समझाने के लिए दौत्यकर्म सौंपा. उसके बाद सरमा आर्य लोगों के पराक्रम की गाथा गाकर पणियों को धमकाती है. इसी प्रकार की सामाजिक स्थिति का बोध ऋग्वेदीय सूक्तों से कर सकते हैं.


शाकल संहिता के सूक्त: शाकल संहिता के अन्त में ऋक्परिशिष्ट नाम से 36 सूक्त संगृहीत किए गये हैं. इनमें से चर्चित सूक्त हैं- श्रीसूक्त, रात्रिसूक्त, मेधासूक्त, शिवसङ्कल्पसूक्त तथा संज्ञानसूक्त. ये सूक्त ऋक्संहिता के विविध मण्डलों में पढ़े गए हैं. 'सितासिते सरिते यत्र संगते (ऋक्परिशिष्ट 22 वां) सूक्त स्कन्दपुराण के काशीखण्ड (7.44) और पद्मपुराण (6.246.35) में उद्धृत हैं. पुराण के इन दोनों स्थानों पर यह मंत्र प्रयागपरक अर्थ देता है अर्थात प्रयाग में मिलने वाली सित (गंगा) और असित (यमुना)- के संगम-तीर्थ की महिमा भी इससे ज्ञात होती है.


ऋग्वेद की यज्ञपरता और ब्राह्मण-ग्रन्थ यजुर्वेद यज्ञ का मापन करता है. ऋग्वेद और सामवेद यज्ञ में आहूत देवों की प्रसन्नता के लिए शस्त्र और स्तोत्र बतलाते हैं. अथर्ववेद यज्ञ में अनुशासन का पालन करवाता है. इस तरह यज्ञ का पूर्ण स्वरूप चारों वेदों से सम्पन्न किया जाता है. इसके लिए ब्राह्मण ग्रंथ मंत्र-विनियोजनपूर्वक कर्मोंक प्रख्यापन करते हैं.


'स्तुतमनुशंसति' इस ब्राह्मणवाक्य के निर्देशानुसार होतृगण ऋग्वेदीय सूक्तों के शंसन से देवों की स्तुति करते है. होतृगण में होता, मैत्रावरुण, अच्छावाक और ग्रावस्तुत वैदिक नाम वाले चार ऋत्विज्ञ रहते हैं. ऋग्वेद के ऐतरेय और शांखायन ब्राह्मण मिलते हैं. ये ब्राह्मण यज्ञ के प्रख्यापन के साथ-साथ रोचक आख्यायिकाओं से मानवीय मूल्यों एवं कर्तव्यों का शिक्षण करते हैं.


40 अध्याय,8 पञ्चिका और 285 कण्डिकाओं में विभक्त ऐतरेय ब्राह्मण होतृगण से सम्बद्ध शस्त्रशंसनादि कार्यों का विस्तृत विवेचन प्रस्तुत करता है. प्रत्येक पांच अध्याय मिलाकर निर्मित पञ्चिका के अन्तर्गत प्रथम और द्वितीय पञ्चिका में सभी यागों के प्रकृतिभूत अग्निष्टोम (सोमयाग) में होतृगण के विधि-विधानों एवं कर्तव्यों का विवेचन है. इसी प्रकार तृतीय और चतुर्थ पञ्चिका में प्रातः, माध्यन्दिन तथा तृतीय सवन (सायं-सवन) पर शंसन किए जाने वाले बारह शस्त्रों का वर्णन मिलता है.


पंचम और षष्ठ पञ्चिका में द्वादशाह (सोमयाग) एवं अनेक-दिन-साध्य सोमयाग पर हौत्रकर्म निरूपित है. सप्तम पञ्चि का राजसूय याग के वर्णन के क्रम में शुनःशेप का आख्यान विस्तृत रूप से प्रस्तुत करती है. यह आख्यान अत्यन्त प्रसिद्ध है. अन्तिम अष्टम पञ्चिका में ऐतिहासिक महत्त्व वाले 'ऐन्द्र महाभिषेक' जैसे विषय देखने में आते हैं. इसी 'ऐन्द्र महाभिषेक' के आधारपर चक्रवर्ती नरेशों के महाभिषेक का रोचक प्रसंग आया है. इस प्रकार ऐतरेय ब्राह्मण प्रमुख रूप से सोमयाग में हौत्रकर्म बतलाता है.


30 अध्यायों और 226 खण्डों में विभक्त ऋग्वेद का दूसरा शांखायन ब्राह्मण लम्बे-लम्बे गद्यात्मक वाक्यों में अपने प्रतिपाद्यों का निरूपण करता है. इस ब्राह्मण को 'कौषीतकि ब्राह्मण' भी कहा जाता है, क्योंकि इसमें अनेक आचार्यों के मतों का उल्लेख करके कौषीतकि का मत यथार्थ ठहराया गया है. विषय-वस्तु की दृष्टि से यह ब्राह्मण ऐतरेय का ही अनुसरण करता है. इसके अनुशीलन से महत्त्वपूर्ण जानकारियां मिलती है.


जैसे- उदीच्य देश संस्कृत का केन्द्र है, इस देश के भ्रमण का प्रसंग, रुद्र की महिमा वर्णन, 'यज्ञो वै विष्णुः’ के आधार पर विष्णु को उच्चकोटि में रखने का प्रसंग, इन्द्र द्वारा वृत्त को मारने के लिए महानाम्नी साम-मन्त्रों को पढ़ना तथा शक्वरी ऋचाओं की निरुक्ति एवं महत्त्व का प्रख्यापन आदि इस ब्राह्मण के उल्लेख्य विषय है.


ऋग्वेद के दो आरण्यक ऐतरेय और शांखायन  



  • ऋग्वेद के ऐतरेय और शांखायन नाम के दो आरण्यक प्रसिद्ध हैं. पहला ऐतरेय आरण्यक में अवान्तर पांच आरण्यक भाग है, जिनमें से प्रथम आरण्यक में 'गवामयन' नामक सत्रयाग के अंगभूत महाव्रत-कर्मका वर्णन है.

  • द्वितीय आरण्यक में प्राणविद्या एवं पुरुष आदि का विवेचन है. इसी के अन्तर्गत 'ऐतरेय उपनिषद्' भी वर्णित है.

  • तृतीय संहितोपनिषद् नामक आरण्यक संहिता, पद, क्रम, स्वर एवं व्यंजन आदि का निरूपण करता है.

  • चतुर्थ आरण्यक में महानाम्नी ऋचाओं का वर्णन और अन्तिम आरण्यक में निष्केवल्य शस्त्र निरूपित है. इनमें से प्रथम तीन के द्रष्टा ऐतरेय, चतुर्थ के आश्वलायन और पांचवें के शौनक माने गये हैं.

  • पांचवें आरण्यक के द्रष्टा शौनक और बृहद्देवता के रचयिता शौनक के बारे में विद्वानों का मतभेद रहा है. इसी तरह दूसरा शांखायन नामक आरण्यक 30 अध्यायों में विभाजित हैं और ऐतरेय आरण्यक का ही अनुसरण करता हैं. इस आरण्यक के 15वें अध्याय में आचार्य के वंश–वर्णन के क्रमानुसार आरण्यकद्रष्टा गुणाख्य शांखायन और उनके गुरुरूप में कहोल कौषीतकि का उल्लेख मिलता है. अध्यात्मविद्या का रहस्य बतलाने वाले उपनिषद्- खण्ड में ऐतरेय उपनिषद् ऋग्वेद से सम्बद्ध है. इसके अतिरिक्त सोलह अवान्तर उपनिषद होने का उल्लेख भी मिलता है.


क्या ऋग्वेद में मूर्ति पूजा का वर्णन मिलता हैं?


मूर्ति पूजा का सीधे तौर पर वर्णन नहीं मिलता लेकिन परोक्ष रूप से जरूर मिलता है. ऋग्वेद 10.107.10 में देवमा॒नेव॑ आया है, जिसमे कई भाष्यकारों ने इसे देवालय (मंदिर) बताया है.


आचार्य राम शर्मा (पहले आर्य समाज में थे उसके बाद उन्होंने खुद का गायत्री परिवार बनाया) अपने भाष्य में अनुवाद इस प्रकार करतें हैं: –"दानदाता पुरुष द्रुतगामी और अलंकृत अश्व तथा सुन्दरी नारी को प्राप्त करता है. पुष्करणी के समान स्वच्छ और देव मन्दिर के समान रमणीय घर भी उमे मिलता है".


आचार्य राम गोविंद जी :– "दाता को शीघ्रगन्ता अश्व, अलंकृत करके, दिया जाता है. उसके लिए सुन्दरी स्त्री उपस्थित रहती है. पुष्करणी के समान निर्मल और देवालय के समान मनोहर गृह दाता के लिए ही विद्यमान है." 


डॉ रेखा व्यास :– "दक्षिणा देने वाले को शीघ्र ही घोड़ा दिया जाता है. उसी को वस्त्र अलंकार से शोभित कन्या मिलती है. उसे पुष्करिणी के समान साफ और देवालय के समान विचित्र घर दिया जाता है."


रूपेश प्रकाशन : –"दाता को शीघ्रगन्ता अश्व अलंकृत करके दिया जाता है. उसके लिए सुन्दरी स्त्री उपस्थित रहती है. पुष्करणी के समान निर्मल और देवालय के समान मनोरथ गृह दाता के लिए ही विद्यमान है."


लगभग सभी विद्वानों ने इसे ‘देवालय’ ही कहा है. अब देवालय है तो वहां मूर्ति पूजा तो होगी ही. इससे प्रमाणीत होता है कि वेद मूर्ति पूजा का समर्थन करते हैं.


आचार्य राम शर्मा ने अपने भाष्य में पाषाण पूजने का भी प्रमाण दिया है. प्रैते वदन्तु प्र वयं वदाम ग्रावभ्यो वाचं वदता वदद्भयः। यदद्रयः पर्वताः साकमाशवः श्लोकं घोषं भरथेन्द्राय सोमिनः॥1॥ (ऋग्वेद 10.94.1)


ये मावा (पाषाण) अभिषव क्रिया करें. हम याजक उन ध्वनि करने वाले पाषाणों की प्रार्थना करते हैं. हे ऋत्विग्गण ! आप स्तोत्र-पाठ करें. जिस समय आदरणीय और सुदृढ़ ग्रावा, इन्द्रदेव के लिए सोमाभिषव की ध्वनि करते हैं, उस समय वे सोमपान करके सन्तुष्ट होते हैं. इन सब से प्रमाणित हो जाता है कि मूर्ति पूजा का समर्थन ऋग्वेद में है.


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