Atharvaveda: बहुत से विद्वान् अथर्व वेद को अर्वाचीन मानते हैं. लेकिन यह बात पूरी तरह से सत्य नहीं है. चारों वेदों को पृथक तो कृष्णद्वैपयान व्यास ने ही किया था.


वेद के नाम का तीन प्रकार से उच्चारण से होता है- 



  • जिस मंत्र में अर्थ के आधार पर पाद-व्यवस्था निश्चित है, उसे 'ऋक्' (ऋग्वेद) कहते हैं.

  • गीत्यात्मक छंद साम में हैं.

  • पद्य और गीत के अतिरिक्त सभी मंत्र यजुर्वेद में हैं. लेकिन अथर्ववेद में तीनो शैलियां पाई जाती है. इसमें मंत्र लक्षण नहीं अपितु प्रतिपाद्य के अनुसार नाम दिया जाता है.



अथर्ववेद के विविध नाम :–


अन्य वेदों की तरह अथर्ववेद का भी एक ही नाम क्यों नहीं रहा? अथर्ववेद को विभिन्न नाम देने में क्या प्रयोजन है? ऐसी जिज्ञासा सभी के मन में होती है.  इसका उत्तर जानने के लिए संक्षेप में कुछ विचार किया जा रहा है-


अथर्ववेद अनेक नामों से जाना जाता है, जैसे-अथर्ववेद, अथर्वाङ्गिरोवेद, ब्रह्मवेद, भिषग्वेद तथा क्षत्रवेद आदि.


अथर्ववेद- 'थर्व' धातु का अर्थ चलना, विचलित होना है. इस का निषेधात्मक अथर्व-निश्चल रहना है. निश्चल, अपरिवर्तनीय परमात्मा का अविनश्वर ज्ञान अथर्ववेद है, जिससे कोई हिंसा नहीं होती उसे अथर्व कहते हैं.


अथर्वाङ्गिरस वेद– 'छन्द' आनन्द का वाचक है, अत: जिसका अध्ययन आनन्दप्रद है. इसलिए अथर्ववेद छन्दवेद कहलाता है. अंगिरा ऋषि को प्राप्त होने से इसे अथर्वाङ्गिरस वेद भी कहा जाता है. 



अथर्ववेद (10.7.20), महाभारत (वन पर्व,305.2), मनुस्मृति (11.33), याज्ञवल्क्यस्मृति (1.312) तथा औशनसस्मृति (3.44) आदि ग्रन्थों में द्वन्द्वसमास के रूप में 'अथर्वाङ्गिरस' शब्द प्रयुक्त है. इस नाम के संदर्भ में गोपथब्राह्मण में एक आख्यायिका है-


'प्राचीन काल में तपस्या कर रहे स्वयम्भू ब्रह्मा के रेत का जल में स्खलन हुआ. उससे भृगु नाम के महर्षि उत्पन्न हुए. वे भृगु स्वोत्पादक ब्रह्मा के दर्शनार्थ व्याकुल हो रहे थे. उसी समय आकाशवाणी हुई 'हे अथर्वा! तिरोभूत ब्रह्मा के दर्शनार्थ इसी जल में अन्वेषण करो' 'अथर्वाऽनमेतास्वेवास्वन्विच्छ' गो० ब्रा० 1।4]। तब से भृगु का नाम ही 'अथर्वा' हो गया.


पुनः रेत युक्त जल से आवृत 'वरुण' शब्दवाच्य ब्रह्मा के सभी अंगों से रसों का क्षरण हो गया. उससे अङ्गिरा नाम के महर्षि उत्पन्न हुए. उसके बाद अथर्वा और अङ्गिरा के कारणभूत ब्रह्मा ने दोनों को तपस्या के लिए प्रेरित किया. उन लोगों की तपस्या के प्रभाव से एक कारण भी 'ब्रह्मवेद' यह नाम हो सकता है. यानी दो ऋचाओं के मंत्र द्रष्टा बीस अथर्वा और अङ्गिरसों की उत्पत्ति हुई.


उन्हीं तपस्या कर रहे ऋषियों के माध्यम से स्वयम्भू ब्रह्मा ने जिन मंत्रों के दर्शन किए, वही मन्त्रसमूह अथर्वाङ्गिरस वेद हो गया. साथ ही एक ऋचा के मन्त्रद्रष्टा ऋषियों की ब्रह्म की सर्वत्र चर्चा होने से इसे ब्रह्मवेद की संज्ञा मिली. अथर्ववेद में 20 काण्ड, 731 सूक्त एवं 5977 मंत्र हैं.


ब्रह्मवेद- अथर्ववेद के 'ब्रह्मवेद' अभिधान में मुख्यतः तीन हेतु उपलब्ध होते हैं- 



  • यज्ञकर्म में ब्रह्मत्व-प्रतिपादन,

  • ब्रह्मविषयक दार्शनिक चिन्तन-गाथा तथा

  • ब्रह्मा नामक ऋषि से दृष्ट मन्त्रों का संकलन हुआ हैं।


इस प्रकार किसी भी श्रौतयज्ञ की सफलता के लिए ब्रह्मा की अध्यक्षता आवश्यक होती है. अतः यज्ञकर्म में ब्रह्मत्व प्रतिपादन के कारण अथर्ववेद का दूसरा नाम 'ब्रह्मवेद' युक्तिसंगत ही है.


भिषग्वेद :– औषधियों का भरपूर उल्लेख किया गया है. अतः यह नाम उपयुक्त है.


क्षत्रवेद - अथर्ववेद में स्वराज्य रक्षा के लिए राजकर्म से सम्बन्धित बहुत से सूक्त उपलब्ध है. इसलिए अथर्ववेद को 'क्षत्रवेद' नाम दिया गया है.


अथर्ववेद की शाखाएं– अथर्ववेद की नौ शाखाएं थीं, जिनके नाम इस प्रकार हैं- 



(1) पैप्पलाद, 
(2) तौद, 
(3) मौद, 
(4) शौनक, 
(5) जाजल, 
(6) जलद, 
(7) ब्रह्मवद, 
(8) देवदर्श, और 
(9) चारणवैद्य.


इन शाखाओं में आजकल प्रचलित शौनक शाखा की संहिता पूर्णरूप से उपलब्ध है. पैप्पलादसंहिता अभी अपूर्ण ही उपलब्ध है. इनके अतिरिक्त अन्य शाखाओं की कोई भी संहिता उपलब्ध नहीं.



शौनक संहिता का संक्षिप्त परिचय एवं अथर्व वेद मन्त्रों का संकलनक्रम :-


अथर्ववेद में 20 काण्ड, 730 सूक्त, 36 प्रपाठक और 5987 मंत्र हैं. इसमें मंत्रों का विभाजन क्रम एक विशिष्ट शैली का है. पहले काण्ड से सातवें काण्ड तक छोटे-छोटे सूक्त हैं. पहले काण्ड में प्रायः 4 मन्त्रों के सूक्त हैं. दूसरे काण्ड में 5 मन्त्रों के, तीसरे काण्ड में 6 मंत्रों के, चौथे काण्ड में 7 या 8 मन्त्रों के, पांचवें काण्ड में 8 या उससे अधिक मंत्रों के सूक्त हैं.


छठे काण्ड में 142 सूक्त हैं और प्रायः सभी सूक्त 3 मंत्रों के हैं. सातवें काण्ड में 118 सूक्त हैं और प्रत्येक सूक्त में प्रायः एक या दो मंत्र हैं. आठवें काण्ड से 12 वें काण्ड तक भी अधिक मंत्रों वाले सूक्त हैं, परंतु विषय की एकरूपता है. जैसे बारहवें काण्ड में पृथ्वी सूक्त हैं, जिसमें राजनीतिक तथा भौगोलिक सिद्धान्तों की भावना दृष्टिगोचर होती है. इसी प्रकार 13वें, 14वें और 19वें काण्ड अध्यात्मविषयक हैं आदि.


अथर्ववेद में क्या प्रतिपादित किया गया है?


1) ब्रह्मविषयक दार्शनिक सिद्धान्त :- इस वेद में ब्रह्म का वर्णन विशेषरूप से हुआ है. ब्रह्म का वर्णन इस वेद में जितने विस्तार और सूक्ष्मता से हुआ है, उतने विस्तार से एवं सूक्ष्मता से किसी वेद में नहीं हुआ है. उपनिषदों में ब्रह्मविद्या का जो विकसित रूप मिलता है, उसका स्रोत अथर्ववेद ही है, यह कहना अत्युक्ति नहीं होगा. विविध दृष्टिकोण से इसमें ब्रह्मतत्त्व का विवेचन हुआ है. ब्रह्म क्या है? उसका स्वरूप क्या है? उसकी प्राप्ति के साधन क्या हैं? वह एक है या अनेक ? उसका अन्य देवों के साथ क्या सम्बन्ध है आदि.


2) भैषज्यकर्म - प्रतिपाद्य विषयों की दूसरी कोटि में विविध रोगों के उपचारार्थ प्रयोग किए जाने वाले भैषज्य सूक्त आते हैं. जिनके मन्त्रों के द्वारा देवताओं का आह्वान तथा प्रार्थना आदि किए जाते हैं. साथ में विभिन्न रोगों के नाम तथा उनके निराकरण के लिए विविध प्रकार की औषधियों के नाम भी उक्त सूक्तों में प्राप्त होते हैं. जलचिकित्सा, सूर्यकिरण चिकित्सा और मानसिक चिकित्सा के विषयों पर इस वेद में विस्तृत वर्णन मिलता है.


3) शान्तिक तथा पौष्टिक कर्म :- विभिन्न प्रकार की क्षति, आपत्ति या अवाञ्छित क्रियाकलापों से मुक्त होने के लिए किए गए उपाय बताए गए हैं.


4) राजकर्म [राजनीति ]:- अथर्ववेद में राजनीतिक विषयों का भरपूर उल्लेख मिलता है. राजा कैसा होना चाहिए? राजा और प्रजा का कर्तव्य, शासन के प्रकार, राजाका निर्वाचन और राज्याभिषेक, राजा के अधिकार एवं कर्तव्य, सभा और समिति तथा उनके स्वरूप, न्याय और दण्डविधान, सेना और सेनापति, सैनिकों के भेद और उनके कार्य, सैनिक- शिक्षा, शस्त्रास्त्र, युद्ध का स्वरूप, शत्रुनाशन, विजयप्राप्ति के साधन आदि विविध विषय इसके अन्तर्गत आते हैं.


5) सामानजस्य कर्म:- अथर्ववेद में राष्ट्रिय, सामाजिक, पारिवारिक, राजनीतिक तथा धार्मिक सामंजस्य के लिए विशेष महत्त्व दिया गया है और परस्पर में सौहार्द-भावना स्थापित करने के लिए विभिन्न सूक्तों का स्मरण करने का विधान किया गया है.


6) प्रायश्चित्त [आत्मालोचना]:- ज्ञात-अज्ञात अवस्था में किए हुए विभिन्न त्रुटिपूर्ण कर्मों के कारण उत्पन्न होने वाले सम्भावित अनिष्टों को दूर करने के लिए क्षमा-याचना, देव-प्रार्थना, प्रायश्चित्त होम, चारित्रिक बदनामी का प्रायश्चित्त और अशुभ नक्षत्रों में जन्मे हुए बच्चों के प्रायश्चित्त आदि विविध प्रायश्चित्तों का वर्णन है.



इस प्रकार अथर्ववेद के विषय-विवेचन से यह पता चलता है कि इसमें धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्षरूपी पुरुषार्थ चतुष्टय के सभी अंगों का वर्णन है. शास्त्रीय दृष्टि से धर्मदर्शन, अध्यात्म और तत्त्व–मीमांसा से सम्बद्ध सभी तत्त्व इसमें विद्यमान हैं. समाजशास्त्रीय दृष्टि से राजनीति, अर्थशास्त्र, धर्मशास्त्र और ज्ञान-विज्ञान का यह भंडार है. साहित्यिक दृष्टि से रस, अलंकार, छन्द तथा भाव एवं भाषा सौन्दर्य आदि विषय इसमें विद्यमान है.


व्यवहारोपयोगिता की दृष्टि से भावात्मक प्रेरणा, मनन-चिन्तन, कर्तव्योपदेश, आचारशिक्षा और नीति शिक्षा का इसमें विपुल भंडार है. संस्कृति की दृष्टि से इसमें उच्च, मध्यम और निम्न- इन तीनों स्तरों का स्वरूप परिलक्षित होता है. अतः अथर्ववेद वैदिक वाङ्मय का शिरोभूषण है. विषय की विविधता, स्थूल से सूक्ष्मतम तत्त्वों का प्रतिपादन, शास्त्रीयता के साथ किया गया है.


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