One Nation One Election: वन नेशन वन इलेक्शन को लेकर एक बार फिर बहस तेज है, माना जा रहा है कि मोदी सरकार की तरफ से बुलाए गए संसद के विशेष सत्र में इसे लेकर बिल पेश किया जा सकता है. ऐसी तमाम अटकलों के बाद अब एक देश एक चुनाव का मुद्दा हर किसी की जुबान पर है, विपक्षी नेता लगातार इसका विरोध कर रहे हैं और सोशल मीडिया पर भी लोग अपनी राय दे रहे हैं. वन नेशन वन इलेक्शन के पक्ष में सबसे बड़ा तर्क ये दिया जा रहा है कि इस फॉर्मूले से चुनावों पर होने वाले करोड़ों रुपये का खर्च कम हो जाएगा. आइए जानते हैं कि देश में कराए जाने वाले चुनावों में आखिर कितना पैसा खर्च होता है.
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में चुनाव कराना एक बड़ी चुनौती की तरह है. खासतौर पर जब लोकसभा चुनाव की बात होती है तो चुनाव आयोग को इसके लिए काफी पहले से ही तैयारियां करनी होती हैं. इसमें सुरक्षा से लेकर चुनाव अधिकारियों की नियुक्ति और वोटिंग मशीनों पर सबसे ज्यादा खर्चा होता है.
लगातार बढ़ता जा रहा है चुनावी खर्चपिछले कुछ दशकों को देखें तो चुनावी खर्च लगाता बढ़ता जा रहा है. सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि साल 1999 में जब लोकसभा चुनाव हुए थे तो इस पूरी प्रक्रिया में कुल 880 करोड़ रुपये खर्च हुए थे, वहीं इसके बाद 2004 के चुनाव में ये खर्च बढ़कर 1200 करोड़ हो गया. इसके बाद 2019 के चुनाव के आंकड़े बताते हैं कि इसमें करीब 6500 करोड़ रुपये का खर्च आया. इसके अलावा करोड़ों रुपये कैश पकड़ा जाता है.
सरकारी खजाने पर पड़ने वाले असर की बात करें तो 2014 के लोकसभा चुनाव में करीब 3870 करोड़ रुपये का खर्च आया था. देश के पहले चुनाव के मुकाबले ये 370 गुना ज्यादा है. ठीक इसी तरह विधानसभा चुनाव में भी हर साल लाखों और करोड़ों रुपये पानी की तरह बहाए जाते हैं. सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में करीब 4 हजार करोड़ रुपये खर्च हुए थे.
लोगों को वोटिंग के प्रति जागरुक करने के लिए चुनाव आयोग की तरफ से करोड़ों रुपये के विज्ञापन दिए जाते हैं, इसके अलावा चुनाव में नियुक्त कर्मचारियों और बाकी चीजों पर भी करोड़ों रुपये खर्च होते हैं. इस तरह एक चुनाव सैकड़ों करोड़ रुपये का बन जाता है.