दिल्ली का इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा बीते दिन सफेद अंधेरे की गिरफ्त में रहा. आधी रात से छाई कोहरे की घनी चादर ने उड़ानों की रफ्तार पर ऐसा ब्रेक लगाया कि करीब 160 विमानों के पर कतर दिए गए. सुबह सूरज की किरणों ने कोशिश तो की, लेकिन विजिबिलिटी के मोर्चे पर नाकामी ही हाथ लगी. आलम यह था कि चार अंतरराष्ट्रीय उड़ानों समेत घरेलू विमानों का लंबा रेला रनवे के बजाय जमीन पर ही खड़ा रह गया और मुसाफिरों की उम्मीदें धुंध में कहीं खो गईं. ऐसे में यह जानना बेहद जरूरी हो जाता है कि आखिर जीरो विजिबिलटी में उड़ने वाली उड़ाने आखिर रनवे पर कैसे सुरक्षित लैंड करती हैं.
किस तकनीक से जमीन छूते हैं विमान
कड़ाके की ठंड और उत्तर भारत की वो सुबह, जब खिड़की के बाहर हाथ को हाथ न सुझाई दे, तब हजारों फीट की ऊंचाई पर उड़ते हवाई जहाज के लिए रनवे को ढूंढना किसी चमत्कार से कम नहीं लगता है. घने कोहरे की चादर जब पूरे शहर को अपनी आगोश में ले लेती है, तो आम इंसान सड़क पर गाड़ी चलाने से कतराता है, लेकिन एक पायलट सैकड़ों यात्रियों की जान लेकर उसी धुंध को चीरते हुए जमीन चूमने की तैयारी करता है. यह कोई जादू नहीं, बल्कि विज्ञान और जज्बे की वो जुगलबंदी है जिसे 'कैट-3' (CAT-III) कहा जाता है. आखिर कैसे बिना कुछ देखे एक पायलट सटीक तरीके से रनवे की पट्टी पर टायर टिका देता है?
अदृश्य रनवे और मशीनों का 'छठा अहसास'
जब आसमान में सफेद अंधेरा कोहरा छा जाता है और पायलट की आंखों के सामने सिर्फ एक धुंधली दीवार होती है, तब विमान की अपनी 'आंखें' काम करना शुरू करती हैं. इस तकनीक को एविएशन की भाषा में 'कैट-3 बी' नेविगेशन सिस्टम कहा जाता है. यह कोई साधारण रडार नहीं, बल्कि एक ऐसा हाई-टेक सिस्टम है जो सीधे सैटेलाइट और रनवे पर लगे खास सेंसरों से बातचीत करता है. जैसे ही विमान लैंडिंग के करीब पहुंचता है, पायलट 'ऑटो-पायलट' मोड को कमांड देता है. यहां से सारा खेल कंप्यूटर और सिग्नल्स के हाथ में चला जाता है. विमान को रनवे से रेडियो तरंगें मिलती हैं, जो उसे बताती हैं कि वह जमीन से कितनी ऊंचाई पर है और रनवे का केंद्र ठीक कहां है.
इस तरह लैंड करती है फ्लाइट्स
दिलचस्प बात यह है कि इस दौरान पायलट के हाथ कंट्रोल पर तो होते हैं, लेकिन विमान अपनी दिशा खुद तय कर रहा होता है. सिस्टम हर सेकंड में हजारों गणनाएं करता है ताकि हवा के दबाव और कोहरे के घनत्व के बावजूद विमान अपनी राह से न भटके. यह तकनीक इतनी सटीक है कि अगर विजिबिलिटी महज 50 मीटर भी हो, तो भी यह सिस्टम जहाज को सुरक्षित जमीन पर उतारने का दम रखता है. पायलट इस दौरान केवल मॉनिटर पर नजर रखते हैं और 'ऑटो-लैंड' की प्रक्रिया को सुपरवाइज करते हैं. यह ठीक वैसा ही है जैसे कोई आंख पर पट्टी बांधकर केवल कानों में मिल रहे निर्देशों के भरोसे किसी संकरी गली को पार कर ले.
सिस्टम की भी अपनी हदें
इतनी उन्नत तकनीक होने के बावजूद, एविएशन में सुरक्षा ही सर्वोपरि है. कैट-3 बी सिस्टम की भी अपनी एक लक्ष्मण रेखा है. अगर रनवे पर विजिबिलिटी 50 मीटर से भी कम हो जाए, यानी पायलट को अपनी कॉकपिट की खिड़की से रनवे की लाइटें बिल्कुल भी न दिखें, तो लैंडिंग को टालना ही समझदारी मानी जाती है. ऐसी स्थिति में पायलट 'गो-अराउंड' का फैसला लेता है या विमान को किसी ऐसे दूसरे एयरपोर्ट (Alternative Airport) पर ले जाता है जहां मौसम साफ हो.
किस एयरपोर्ट पर है यह तकनीक
भारत में दिल्ली का आईजीआई (IGI) एयरपोर्ट उन चुनिंदा हवाई अड्डों में से है जो इस तकनीक से लैस है, यही वजह है कि यहां कोहरे के बावजूद कई उड़ानें उतर पाती हैं. हालांकि, दुनिया के हर एयरपोर्ट पर यह सिस्टम नहीं होता है. जिन जगहों पर कैट सिस्टम नहीं है, वहां कोहरा होते ही ऑपरेशन ठप हो जाते हैं. एक पायलट के लिए सबसे बड़ी चुनौती तकनीक पर भरोसा करने के साथ-साथ अपने विवेक का इस्तेमाल करना होता है. जब तक मशीनों से मिलने वाले सिग्नल और जमीन की दूरी का तालमेल 100% सटीक न हो, तब तक पहिए जमीन को नहीं छूते हैं.
यह भी पढ़ें: Sudan Currency: भारत के मुकाबले बेहद कमजोर है सूडान की करेंसी, फिर भारतीय वहां क्यों करते हैं नौकरी?