Osho Philosophy: ओशो के अनुसार, बचपन से ही मनुष्य को सिखाया जाता है कि वह दूसरों की तरह जिए, समाज के नियम माने और सबसे अधिक इस भय में रहे कि लोग क्या कहेंगे. यही भय व्यक्ति को भीड़ की गुलामी में बांध देता है.
क्या कहते हैं ओशो?
ओशो समझाते हैं कि जब तक मनुष्य अकेले खड़े होने का साहस नहीं करता, तब तक वह अपने वास्तविक स्वरूप, अपनी स्वतंत्रता और अपने सत्य से परिचित नहीं हो सकता.
अकेले चलना कठिन है, लेकिन वही जीवन की असली शुरुआत है. ओशो कहते हैं कि जीवन में सबसे कठिन काम धन कमाना नहीं है. धन तो भीड़ के साथ चलकर भी कमाया जा सकता है.
परिवार संभालना, रिश्ते निभाना और समाज में प्रतिष्ठा पाना भी कठिन नहीं है, क्योंकि यह सब भीड़ के नियमों का पालन करके सहज हो जाता है. ओशो का कहना है कि जीवन में सबसे कठिन काम भीड़ से अलग होकर अकेले चलना है.
भीड़ में व्यक्ति भूल जाता है अपना चेहरा
ओशो समझाते हैं कि मनुष्य को जन्म से ही भीड़ का हिस्सा बनने का प्रशिक्षण दिया जाता है. पैदा होते ही उसे बताया जाता है कि यह करो, वह मत करो, लोग क्या कहेंगे, समाज क्या सोचेगा. धीरे-धीरे व्यक्ति अपना असली चेहरा भूल जाता है और भीड़ का मुखौटा पहन लेता है.
अकेले चलने का अर्थ है अपने भीतर की आवाज सुनना. इसका अर्थ है अपने निर्णय स्वयं लेना. ओशो कहते हैं कि यही सबसे कठिन है, क्योंकि अकेले चलने में कोई सहारा नहीं होता. भीड़ सुविधा देती है, लेकिन वह सुविधा स्वतंत्रता की कीमत पर मिलती है.
सत्य बोलने वालों का विरोध करती है भीड़
ओशो के अनुसार, भीड़ का कोई विवेक नहीं होता. भीड़ केवल ऊर्जा का उफान होती है. जैसे ही व्यक्ति भीड़ का हिस्सा बनता है, उसकी व्यक्तिगत चेतना सो जाती है.
वह न सोचता है, न प्रश्न करता है, न जिम्मेदारी लेता है. ओशो कहते हैं कि इतिहास इसका प्रमाण है. भीड़ ने हमेशा सत्य बोलने वालों का विरोध किया है.
भीड़ ने सुकरात को ज़हर दिया, जीसस को सूली पर चढ़ाया, बुद्ध और महावीर को अपमानित किया. ओशो समझाते हैं कि इसका कारण यह है कि सत्य विद्रोही होता है और भीड़ को विद्रोह से डर लगता है.
लोग क्या कहेंगे- यह सबसे बड़ा डर
ओशो का कहना है कि मनुष्य का सबसे बड़ा डर मृत्यु नहीं है, न गरीबी है, न असफलता है. मनुष्य का सबसे बड़ा डर है लोग क्या कहेंगे. ओशो समझाते हैं कि यह डर बचपन से ही व्यक्ति की रगों में भर दिया जाता है.
माता-पिता, शिक्षक और समाज मिलकर उसे सिखाते हैं कि भीड़ से अलग मत होना, वरना अस्वीकार कर दिए जाओगे. ओशो कहते हैं कि इस डर के कारण मनुष्य जीना नहीं सीखता, वह केवल नकल करना सीखता है. वह भीड़ के साथ हंसता है, भीड़ के साथ रोता है.
भीड़ में रहने से उसे लगता है कि वह सुरक्षित है, अकेला नहीं है. लेकिन ओशो कहते हैं कि यह सुरक्षा झूठी है. ओशो के अनुसार, सच्चा साहस वह है जब तुम बिना भीड़ की गवाही के खड़े हो सको. जब तुम्हें इस बात की चिंता न रहे कि दुनिया क्या कहेगी, बल्कि यह महत्वपूर्ण हो जाए कि तुम खुद क्या सोचते हो.
अकेलापन नहीं, एकांत चुनिए
ओशो समझाते हैं कि लोग अकेले होने से डरते हैं, क्योंकि वे अकेलेपन और एकांत में अंतर नहीं समझते. अकेलापन पीड़ा है, क्योंकि उसमें व्यक्ति दूसरों पर निर्भर होता है.
दूसरों के बिना वह टूट जाता है. लेकिन एकांत आनंद है. एकांत में व्यक्ति अपने भीतर उतरता है. ओशो कहते हैं कि अकेलापन बीमारी है, लेकिन एकांत औषधि है. अकेलापन दुख देता है, लेकिन एकांत आपको मनुष्य बनाता है.
ओशो बताते हैं कि बुद्ध, महावीर और जीसस ने एकांत को चुना. उन्होंने भीड़ छोड़ी और भीतर झांका. ध्यान का अर्थ ही है अकेले बैठना, मौन में उतरना और सारे मुखौटे उतार देना.
अकेले का अर्थ दुनिया से भागना नहीं
ओशो कहते हैं कि सत्य कभी भीड़ में नहीं मिलता. भीड़ शोर कर सकती है, नारे लगा सकती है, नियम बना सकती है, लेकिन सत्य गहन मौन में जन्म लेता है.
ओशो समझाते हैं कि अकेले चलने का अर्थ दुनिया से भागना नहीं है. अकेले चलने का अर्थ है अपने निर्णय स्वयं लेना है. ओशो का कहना है कि अकेले चलने में डर लगता है, लेकिन यही डर धीरे-धीरे आनंद में बदल जाता है.
इसीलिए बुद्ध ने कहा था अप्प दीपो भव, स्वयं अपना दीपक बनो. ओशो कहते हैं कि उधार की रोशनी कभी अंधकार नहीं मिटा सकती. भीड़ को छोड़ना हार नहीं है, यही जीत है. जब व्यक्ति अकेले खड़ा होता है, तभी वह सच में स्वतंत्र होता है.
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