मुफ्ती का नाम आते ही आमतौर पर एक विशेष धार्मिक पहचान दिमाग में उभरती है, लेकिन क्या यह पद केवल जन्म से मुस्लिम व्यक्ति के लिए ही सीमित है? क्या कोई हिंदू इस्लामिक शिक्षा हासिल कर मुफ्ती बन सकता है, या यह सिर्फ एक सैद्धांतिक बहस है? भारत के संविधान, इस्लामी परंपराओं और धार्मिक संस्थानों की जटिल संरचना के बीच यह सवाल कई परतों में छिपा है, जिसका जवाब उतना सीधा नहीं है, जितना कि दिखता है.

Continues below advertisement

मुफ्ती का अर्थ और भूमिका

इस्लाम में मुफ्ती कोई सामान्य धार्मिक पद नहीं है, बल्कि वह व्यक्ति होता है जो शरीयत यानी इस्लामी कानून के आधार पर फतवा जारी करता है. फतवा कोई बाध्यकारी आदेश नहीं, बल्कि धार्मिक और कानूनी राय होती है, जिसे गहन अध्ययन, अनुभव और नैतिक जिम्मेदारी के साथ दिया जाता है. इसलिए मुफ्ती बनने के लिए केवल उपाधि नहीं, बल्कि वर्षों की कठोर बौद्धिक और नैतिक तैयारी जरूरी होती है.

Continues below advertisement

इस्लाम में मुफ्ती बनने की शैक्षणिक प्रक्रिया

इस्लामी परंपरा में मुफ्ती बनने के लिए कोई एक औपचारिक डिग्री निर्धारित नहीं है, लेकिन एक स्थापित शैक्षणिक मार्ग जरूर है. आमतौर पर इसकी शुरुआत आलिम कोर्स से होती है, जो लगभग आठ वर्षों का होता है. इसमें कुरान, तफसीर, हदीस, फिक्ह, उसूल-ए-फिक्ह और अरबी भाषा का गहन अध्ययन कराया जाता है. इसके बाद इफ्ता कोर्स या मुफ्ती कोर्स किया जाता है, जो एक से दो साल या उससे अधिक का हो सकता है. इस दौरान फतवा लिखने की विधि, पुराने मामलों का अध्ययन और समकालीन सामाजिक प्रश्नों पर शरीयत लागू करने का प्रशिक्षण दिया जाता है.

क्या गैर-मुस्लिम के लिए यह रास्ता खुला है?

सैद्धांतिक रूप से देखा जाए तो इस्लामिक शिक्षा किसी एक धर्म के अनुयायियों तक सीमित नहीं है. भारत का संविधान प्रत्येक नागरिक को धार्मिक स्वतंत्रता और अध्ययन का अधिकार देता है. इसका अर्थ यह है कि कोई हिंदू व्यक्ति मदरसे या इस्लामिक संस्थान में इस्लामी शिक्षा प्राप्त कर सकता है. कुरान, हदीस और फिक़्ह का अध्ययन करने पर कोई कानूनी रोक नहीं है.

व्यवहारिक और परंपरागत चुनौतियां

हालांकि व्यवहारिक रूप से तस्वीर काफी अलग है. मुफ्ती का पद मुस्लिम समुदाय के धार्मिक और सामाजिक ढांचे से गहराई से जुड़ा होता है. फतवा देने के लिए न केवल ग्रंथों का ज्ञान, बल्कि इस्लामी आस्था, तकवा और समुदाय का भरोसा भी आवश्यक माना जाता है. यही कारण है कि गैर-मुस्लिम व्यक्ति का मुफ्ती के रूप में स्वीकार किया जाना थोड़ा कठिन है. अधिकतर इस्लामी संस्थान भी मुफ्ती बनने के लिए इस्लाम को आस्था के रूप में अपनाने की अपेक्षा रखते हैं.

नैतिकता और जिम्मेदारी का पहलू

मुफ्ती से केवल विद्वान होने की अपेक्षा नहीं की जाती है, बल्कि उससे उच्च नैतिक चरित्र, निष्पक्ष सोच और ईश्वर-भय की भी मांग होती है. फतवा अक्सर समाज, परिवार और व्यक्तिगत जीवन को प्रभावित करता है, इसलिए इसमें छोटी सी चूक भी बड़े विवाद का कारण बन सकती है. यही वजह है कि मुफ्ती बनने की प्रक्रिया में गुरु-शिष्य परंपरा और वर्षों का व्यावहारिक प्रशिक्षण अहम भूमिका निभाता है.

यह भी पढ़ें: कहां से शुरू हुई नहाने की परंपरा? सर्दियों में पानी से डरने वाले जान लें जवाब