Rupee Crisis: भारतीय रुपया अमेरिकी डॉलर के मुकाबले 90.63 के अपने अब तक के सबसे निचले स्तर पर पहुंच चुका है. इसी बीच भारत के आर्थिक इतिहास के एक और भी बुरे दौर की यादें ताजा हो गई हैं. ऐसा पहली बार नहीं है जो भारत को करेंसी शॉक का सामना करना पड़ रहा है. भारत को सबसे बड़ा झटका 1991 में लगा था, जब देश दिवालिया होने की कगार पर था. उस साल रुपये का संकट इतना गहरा था कि भारत को बचने के लिए अपना सोना गिरवी रखना पड़ा था.

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1991 का बैलेंस ऑफ पेमेंट्स संकट 

1991 में भारत ने अपने अब तक के सबसे बुरे बैलेंस ऑफ पेमेंट्स संकट का सामना किया. विदेशी मुद्रा भंडार खतरनाक रूप से कम हो गया था. यह तेल और भोजन जैसे जरूरी आयात के लिए भी मुश्किल से दो या तीन हफ्तों के लिए ही बचा था. अंतरराष्ट्रीय कर्जदाताओं का भरोसा खत्म हो चुका था, क्रेडिट रेटिंग्स गिर चुकी थी और भारत अपने बाहरी कर्ज की देनदारी पर डिफॉल्ट करने के करीब था. 

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क्यों हुआ था यह संकट इतना गंभीर 

इस संकट की जड़े सालों से गलत तरीके से आर्थिक प्रबंधन करने के साथ-साथ वैश्विक झटकों में थी. भारत जीडीपी के 8% से ज्यादा का भारी राजकोषीय घाटा चला रहा था. उसी समय विदेशी मुद्रा भंडार तेजी से घट रहा था. 1990-91 के खाड़ी युद्ध ने कच्चे तेल की कीमतों को तेजी से बढ़ा दिया था, जिस वजह से भारत का आयात बिल बढ़ गया. इसी के साथ मध्य पूर्व में काम करने वाले भारतीयों से आने वाला पैसा भी कम हो गया. 1989 और 1991 के बीच राजनीतिक अस्थिरता ने विदेशी निवेशकों को और भी ज्यादा डरा दिया, जिस वजह से पूंजी पलायन हुआ.

सोने का गिरवी रखना

जब कोई रास्ता नहीं बचा तो सरकार ने एक बड़ा फैसला लिया. मई और जुलाई 1991 में भारतीय रिजर्व बैंक ने बैंक ऑफ इंग्लैंड और बैंक ऑफ जापान के पास लगभग 67 टन सोना गिरवी रखा. इस कदम से भारत को आपातकालीन फंड के रूप में लगभग $600 मिलियन जुटाने में मदद मिली. उस समय सोने को कड़ी सुरक्षा के बीच देश से बाहर ले जाया गया था. सरकार के इस कदम में भारत को पूरी तरह से डिफॉल्ट होने से रोक दिया था. 

आईएमएफ बेलआउट और कड़ी शर्तें 

सोना गिरवी रखने के साथ-साथ भारत में वित्तीय सहायता के लिए अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से संपर्क किया. अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष बेलआउट पैकेज देने पर सहमत हो गया, लेकिन उसने कड़ी शर्तें लगाई. इनमें संरचनात्मक सुधार, राजकोषीय अनुशासन, व्यापार उदारीकरण और मुद्रा का डीवैल्युएशन शामिल था. 

रुपये का डीवैल्युएशन 

जुलाई 1991 में सरकार ने जानबूझकर दो चरणों में रुपये का मूल्य लगभग 18% से 20% कम कर दिया. एक्सचेंज रेट में तेजी से बदलाव आया और 1990 में लगभग ₹17.50 प्रति डॉलर से बढ़कर 1991 में लगभग ₹22.74 हो गया. 1993 तक यह लगभग ₹30 हो गया. 

उदारीकरण का जन्म 

प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव और वित्त मंत्री डॉ मनमोहन सिंह की लीडरशिप में ऐतिहासिक सुधार हुए. भारत ने लाइसेंस राज को खत्म किया, आयात शुल्क कम किए, विदेशी प्रत्यक्ष निवेश के लिए दरवाजे खोलें और साथ ही खुद को वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ मिलाया. 

भारत की अर्थव्यवस्था पर दीर्घकालिक प्रभाव 

1991 में फैसलों ने भारत को सिर्फ पतन से बचाने से कहीं ज्यादा किया. उन्होंने दशकों की आर्थिक वृद्धि, बढ़ते विदेशी निवेश और वैश्विक एकीकरण की नींव रखी. भारत पुरानी विदेशी मुद्रा की कमी से दुनिया के सबसे बड़े विदेशी मुद्रा भंडार में से एक बनने की तरफ बढ़ा.

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