Partition Of Bengal 1905 Foundation Of Indo-Pak: भले ही भारत और पाकिस्तान का बंटवारा हुए 75 साल से अधिक हो गए हों, लेकिन इस बंटवारे की नींव इतिहास की गर्त में दबा वो दस्तावेज है जो याद दिलाता है कि इंसानी लालच और स्वार्थ के चलते कैसे सरहदें बंट जाती हैं. इस बंटवारे की नींव अंग्रेजों ने साल 1905 में बंगाल के विभाजन (Partition Of Bengal ) के साथ ही रख डाली थी. हालांकि इस बंटवारे के लिए अकेले अंग्रेजी शासन ( British Rule) को दोष नहीं दिया जा सकता है.


इसमें कांग्रेस (Congress), मुस्लिम लीग (Muslim League) भी उतने ही भागीदार रहे हैं, क्योंकि वक्त रहते वो अंग्रेजों के बंटवारे की नब्ज नहीं पकड़ पाएं. साल 1905 के बंटवारे की कहानी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के जिक्र के बगैर अधूरी है.आज हम देश के आजादी के अमृत महोत्सव (Azadi Ka Amrit Mahotsav) पर उस दौर की तरफ पलट कर एक नजर डालते हैं, जो अभी भी भारत ही नहीं बल्कि पाक के लिए भी परेशानी का सबब बना हुआ है


जब पड़ी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की नींव


भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (Indian National Congress) की स्थापना आजादी से पहले भारत के इतिहास का एक अहम पड़ाव था. रिटायर्ड ब्रिटिश भारतीय सिविल सेवा (आईसीएस) अधिकारी एलन ऑक्टेवियन ह्यूम (Allan Octavian Hume) ने इसकी स्थापना की थी. 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम के बाद भारत का नियंत्रण ईस्ट इंडिया कंपनी से ब्रिटिश साम्राज्य को दे दिया गया था. इस वक्त  ब्रिटिश साम्राज्य अंग्रेजीदां और मैत्रीपूर्ण भारतीयों की मदद से अपने शासन को न्यायोचित ठहराने की कोशिश कर रहा था.


इन स्थितियों को देखते हुए ए ओ ह्यूम ने मई 1885 में "इंडियन नेशनल यूनियन" बनाने के लिए वायसराय से मंजूरी ली. इसे ब्रिटिश सरकार से संबद्ध किया गया. इस तरह से भारतीय जनता की राय को आवाज देने के लिए एक मंच बनाया गया. इसके बाद 28 दिसम्बर 1885 को 72 प्रतिनिधियों की मौजूदगी में बंबई (मुंबई) के गोकुल दास तेजपाल संस्कृत महाविद्यालय में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई.


इसके संस्थापक महासचिव ह्यूम खुद बने. उन्होंने कलकत्ता (कोलकता) के व्योमेश चन्द्र बनर्जी को अध्यक्ष बनाया. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने साल 1885 और 1905 के बीच अपने वार्षिक सत्रों में कई प्रस्ताव पारित किए. इनके जरिए कांग्रेस ने ब्रिटिश सरकार के सामने नागरिक अधिकार, प्रशासनिक, संवैधानिक और आर्थिक नीतियों जैसी मांगें रखी थीं. उदाहरण के लिए कांग्रेस नेताओं ने नागरिकों के अधिकारों के तहत अभिव्यक्ति और प्रेस की स्वतंत्रता, जुलूसों, सभाओं और इसी तरह के अन्य अधिकारों के आयोजन के अधिकार को महसूस किया जो ब्रितानी साम्रज्य में मुश्किल था. 


इस दौर में शिक्षाविद् सैयद अहमद खान जैसे मुस्लिम समुदाय के किसी भी नेता ने कांग्रेस को नकारात्मक तौर पर देखा, क्योंकि इसकी सदस्यता में हिंदुओं का वर्चस्व था. वहीं हिंदू समुदाय ने कांग्रेस को पश्चिमी संस्कृति के हमले के समर्थक के तौर पर देखा. हिंदू धार्मिक नेता भी इसके खिलाफ रहे.


भारत के आम लोगों को कांग्रेस के अस्तित्व के बारे में पूरी तरह से जानकारी नहीं दी गई थी. कांग्रेस ने कभी भी गरीबी, स्वास्थ्य देखभाल में कमी, सामाजिक उत्पीड़न और ब्रिटिश सरकार के लोगों के अन्याय को समझने की कोशिश नहीं की. यही वजह रही की कांग्रेस जैसी संस्था को जनता ने एक अभिजात्य, शिक्षित और धनी लोगों की संस्था के तौर पर लिया. कांग्रेस की स्थापना के बाद के वर्षों में आजादी के लिए हुए भारत छोड़ो जैसे आंदोलन में और भारत के बंटवारे के वक्त कांग्रेस के कई सदस्य अति सक्रिय रहे.


भारत छोड़ो आंदोलन में पूरी तरह से उतरने के लिए चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया तो कुछ आजाद हिंद फौज के समर्थन में उतर आए थे. खान अब्दुल गफ्फार खां, सैफुद्दीन किचलू और डॉ. खां साहब ने खुले तौर पर भारत के बंटवारे का विरोध किया. गौरतलब है कि स्थापना के शुरुआती 20 साल में कांग्रेस ने देश की आज़ादी से अधिक ब्रिटिश राज में भारतीयों की दशा सुधारने पर अधिक ध्यान दिया था. लेकिन जब 1905 में बंगाल का विभाजन हुआ तो कांग्रेस ने जोरशोर से राजनीतिक सुधारों की मांग की और पूर्ण स्वराज का नारा दिया. 


बंगाल का बंटवारा जिसने बांट दिया हिंदुस्तान


बंगाल प्रेसीडेंसी में बंगाल, बिहार, छत्तीसगढ़ के कुछ हिस्से, उड़ीसा और असम शामिल थे. यह 78.5 मिलियन यानी 7.5 करोड़ की आबादी के साथ ब्रिटिश भारत का सबसे बड़ा प्रांत था. यहां की आबादी पूरे भारत की आबादी का एक चौथाई थी. बकौल ब्रिटिश सरकार बड़ा प्रांत होने की वजह से यहां प्रबंधन में मुश्किलें पेश आ रही थीं और गरीब पूर्वी क्षेत्र की उपेक्षा हो रही थी. इसलिए बंगाल के  विभाजन को केवल प्रशासनिक वजहों से अमलीजामा पहनाया गया था. 


इस काम का जिम्मा भारत में 1899 में वायसराय बनकर आए लॉर्ड कर्जन (Lord Curzon) ने लिया और वह बंगाल के बंटवारे के साल 1905 तक इस पद पर रहे. कर्जन ने उड़ीसा और बिहार को विभाजित करने और असम के साथ बंगाल के 15 पूर्वी जिलों को जोड़ने की योजना बनाई. पूर्वी प्रांत में 31 मिलियन की आबादी मेंअधिकांश मुस्लिम थे. इसका केंद्र ढाका में था.


एक बार विभाजन पूरा हो जाने के बाद, कर्जन ने कहा कि वह नए प्रांत को मुस्लिम मानते थे.  कहा जाता है कि लॉर्ड कर्जन का इरादा खासकर हिंदुओं को मुसलमानों से अलग करना नहीं था, बल्कि केवल बंगालियों को अलग करना था. पश्चिमी जिलों ने उड़ीसा और बिहार के साथ दूसरे प्रांत का गठन किया. इसके साथ ही पश्चिमी बंगाल, उड़ीसा और बिहार के एक होने से बंगाली भाषा बोलने वाले अल्पसंख्यक की श्रेणी में आ गए. बंगाल के अंग्रेजी-शिक्षित मध्यम वर्ग ने इसे अपनी मातृभूमि के विभाजन के साथ-साथ अपने हकों को कम आंकने की एक रणनीति के तौर पर देखा


यही से हिन्दू-मुस्लिमों के बीच दरार पड़ने का सिलसिला शुरू हुआ. कर्जन का यह कदम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को कमज़ोर करने की मंशा की तरह देखा गया. इसके पीछे एक अहम वजह थी कि इस दौरान भारतीयों के अंदर राष्ट्रवाद पनपने लगा था और इसका मुख्य केंद्र उस वक्त बंगाल था. इस बड़े खतरे का अहसास अंग्रेजों को भी हो चुका था, इसलिए उन्होंने बंगाल के बंटवारे की चाल चली.


यही वजह रही की 1903 में अंग्रेजों की तरफ से लॉर्ड कर्जन ने बंगाल के विभाजन का प्रस्ताव रखा. इसमें पूरे बंगाल को पूर्वी और पश्चिमी बंगाल में बांटने का प्रस्ताव दिया गया. इसके पूर्वी बंगाल की राजधानी ढ़ाका तो पश्चिमी बंगाल की राजधानी कलकत्ता को बनाया गया. पूर्वी बंगाल में मुस्लिम अधिक थे तो पश्चिमी बंगाल में हिंदू अधिक थे. ढाका (Dhaka) के नवाब सल्लीमुल्लाह (Sallimullah) के नेतृत्व में मुसलमानों ने बंटवारे का समर्थन किया तो हिंदुओं ने इसका विरोध किया.


बंटवारे पर विरोध के स्वर


दिसंबर 1903 में जैसे ही भारत के नेताओं को बंगाल बंटवारे की खबर मिली. पूरे बंगाल में अंग्रेजों के इस प्रस्ताव के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों का दौर शुरू हो गया. बंगाल के प्रभावशाली नेता कृष्ण कुमार मित्र और सुरेंद्र नाथ बनर्जी जैसे नेताओं ने इसका पुरजोर विरोध किया. उन्होंने बंटवारे के खिलाफ हितबदी और बंगाली समाचार पत्रों से बड़ा अभियान चलाया.


इसका नतीजा ये हुआ कि हज़ारों लोगों ने बंटवारे के प्रस्ताव के खिलाफ ब्रिटिश सरकार को याचिकाएं भेजनी शुरू कर दी थी. सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने सुझाव दिया था कि बंगाली भाषी समुदाय के दो हिस्सों को विभाजित करने के बजाय उड़ीसा और बिहार के गैर-बंगाली राज्यों को बंगाल से अलग कर दिया जाए, लेकिन लॉर्ड कर्जन इससे सहमत नहीं थे. 


उधर दूसरी तरफ भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस भी अपने स्तर से सार्वजनिक बैठकों, भाषणों और याचिकाओं से लोगों को इस विभाजन के खिलाफ खड़ा कर रही थी. इसके विरोध में जमींदार भी कांग्रेस के साथ हो लिए थे. इन विरोधों का खास असर नहीं हुआ और बंगाल विभाजन के लिए जुलाई 1905 तय कर दी गई. इसके साथ ही कांग्रेस का विश्वास अंग्रेजी शासन से उठने लगा. देश में इस बंटवारे के विरोध में बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, अजीत सिंह और चिदंबरम पिल्लई जैसे नेता लोगों का नेतृत्व कर रहे थे. 

स्वदेशी पर बल और बहिष्कार आंदोलन


बंगाल बंटवारे के विरोध में हुई बैठकों में अंग्रेजी वस्तुओं का बहिष्कार का फैसला लिया गया. यह बहिष्कार आंदोलन 1905 से लेकर 1911 तक चला था. इसके प्रचार-प्रसार करने के लिए त्योहारों और मेलों का सहारा भी लिया गया. बाल गंगाधर तिलक ने महाराष्ट्र में गणपति और छत्रपति शिवाजी महाराज के उत्सव करवाएं


सुरेंद्र नाथ बनर्जी ने देश भर में घूमकर लोगों से अंग्रेजी सामानों को त्यागने और स्वदेशी अपनाने की अपील की. यहां तक ब्रिटेन से आने वाले नमक का इस्तेमाल न करने को कहा. इतना सब होने के बाद भी अंग्रेजों ने 16 अक्टूबर, 1905 में बंगाल का विभाजन कर दिया. इस दिन, स्कूलों और दुकानों को बंद कर दिया गया. लोग इसके खिलाफ वंदे मातरम गाते हुए सड़कों पर उतर आए. अंग्रेजी कपड़ों की होली जलाई गई.


कांग्रेस में भी बंगाल के बंटवारे को लेकर नरम और गरम दल के नेताओं में मतभेद बढ़ने लगे और साल 1907 में ये दोनों दल अलग-अलग हो गए. कांग्रेस के अंदर की कलह का नुकसान स्वदेशी आंदोलन को उठाना पड़ा. ब्रिटिश सरकार ने समाचार पत्रों और सार्वजनिक बैठकों को बंद करने के आदेश पारित किए. कई प्रभावशाली नेता जेलों में ठूंस दिए गए. बाल गंगाधर तिलक को 6 साल की कैद में बर्मा (म्यामांर) की मैंडेली जेल भेज दिया गया.


अजीत सिंह, चिदंबरम पिल्लई, अरबिंदो घोष पर साजिश रचने का केस चला. इसका नतीजा कांग्रेस के गरम दल के नेता बिपिन चंद्र पाल ने राजनीति से संन्यास लिया तो लाला लाजपत राय भी कांग्रेस के बंटने से पहले ब्रिटेन और फिर अमेरिका चले गए. साल 1908 तक कोई भी नेता इस आंदोलन से बच न सका था. स्वदेशी आंदोलन के प्रचार के लिए हिन्दू त्योहारों की मदद ली गई थी. इस वजह से मुस्लिम समुदाय के कुछ समूहों को इस पर संदेह था. आखिरकार धीरे-धीरे ये आंदोलन कमज़ोर पड़ता गया और ख़त्म हो गया. 


क्यों हुआ मुस्लिम लीग का गठन


इतिहासकार जोया चटर्जी के मुताबिक दरअसल, 1905 में धर्म के आधार पर बंगाल का बंटवारा कर अंग्रेजों ने भारत के बंटवारे की नींव खोद डाली थी. नतीजन साल 1932 के बाद से बंगाल में हिंदू-मुसलमानों के टकराव में बढ़ोतरी होती गई. बंगाल के बंटवारे ने सांप्रदायिक तनाव को हवा दी और मुसलमानों को लगा उनके हक सुरक्षित नहीं हैं. नतीजन 30 दिसंबर,1906 को ढाका के नवाब आगा खां और नवाब मोहसिन-उल-मुल्क ने मुस्लिम लीग (Muslim League) बना डाली.


पहले मुस्लिम लीग को ब्रितानी सरकार ने मदद दी, लेकिन जब लीग ने भी स्वशासन के विचार को अपनाया तो ब्रिटिशों ने इससे दूरी बना ली. सर सैय्यद अली इमाम की अगुवाई में साल 1908 में मुस्लिमों के लिए अलग निर्वाचन मंडल की मांग हुई. तो इसे ब्रितानी सरकार ने 1909 के मॉर्ले-मिन्टो सुधारों के तहत पूरा कर दिया.मोहम्मद अली जिन्ना मुस्लिम लीग में 1913 में शामिल हुए. इस लीग ने ही साल 1947 में ब्रिटिश भारत के बंटवारे के वक्त अलग मुस्लिम राष्ट्र बनाने के लिए आंदोलन की अगुवाई की थी.


14 अगस्त साल 1947 को इसे भंग कर दिया गया. ये किसी से छुपा नहीं है कि मुस्लिम लीग ने अलग देश मांगा था. यही वजह रही कि बंटवारे का सारा दोष मुसलमानों के सिर मढ़ दिया गया, लेकिन ऐसा नहीं था कि सारे मुसलमान बंटवारे के पक्ष में थे. मौलाना आज़ाद (Abul Kalam Maulana Azad) और ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान (Abdul Ghaffar Khan) यानी सीमांत गांधी भारत के बंटवारे के धुर विरोधी थे. उन्होंने इसके लिए पुरजोर विरोध भी किया था. इसके साथ ही इमारत-ए-शरिया के मौलाना सज्जाद, मौलाना हाफ़िज़-उर-रहमान, तुफ़ैल अहमद मंगलौरी ने बेहद सक्रियता के साथ मुस्लिम लीग की बंटवारे वाली राजनीति को आड़े हाथों लिया था. 


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