जवानी जिंदगी का प्राइम टाइम है. यह सही ढंग से काम आ जाए, इसी में इसकी सार्थकता है. कोई जवानी देश के काम आती है, कोई समाज के. कोई घर-परिवार की जिम्मेदारियां उठाते-उठाते चुक जाती है. कुछ प्रेम की बलि चढ़ जाती हैं तो कुछ रास्तों से भटक जाती हैं. लेकिन इंदू की जवानी किसी काम की नहीं है. थियेटरों में आई यह फिल्म 2020 की सबसे खराब फिल्मों में है. धनपति निर्माता बंद कमरों की चुटकुलेबाजी, फूहड़ बातों और कुंठित चर्चाओं को कॉमेडी मान लेते हैं. वे इंदू को इंडिया नाम देते हैं और टिंडर जैसे डेटिंग ऐप पर किसी पाकिस्तानी को ढूंढ कर सूने घर में अकेली लड़की की जिंदगी में झंडा गाड़ने के लिए बुला लेते हैं. एक लाइन में यही इंदू की जवानी की कहानी है.


निर्देशक अबीर सेनगुप्ता ने ही फिल्म की कथा-पटकथा लिखी है. वह इंदू के बहाने इंडिया-पाकिस्तान की समस्या को समझा-सुलझा रहे हैं. किसी जमाने में ‘इंदिरा इज इंडिया’ नारा चलता था. मगर यह मोदी का भारत है. इस दौर में अबीर ‘इंदिरा इज इंडिया’ की नई व्याख्या करके अपने हिसाब से मैसेज ब्रॉडकास्ट कर रहे हैं. इंदिरा गुप्ता उर्फ इंदू (कियारा आडवाणी) डिंडर नाम के डेटिंग एप पर वन नाइट स्टैंड के लिए लड़का ढूंढती है. यहां टाइपो-मिस्टेक से उसका नाम इंदिरा की जगह इंडिया हो जाता है. रात में लड़का घर आता है तो पता चलता है, वह पाकिस्तानी (आदित्य सील) है. संगीतकार है. इस तरह यहां इंडिया-पाकिस्तान की संगत बैठती है.



यहां निर्देशक ज्ञानचंद बन कर आपको समझाने लगता है कि पाकिस्तानी भी इंसान हैं. अच्छे लोग हैं. कोई देश अच्छा या बुरा नहीं होता, लोग अच्छे या बुरे होते हैं. किताब पढ़े बिना, उसे कवर देख कर जज करना अच्छी बात नहीं. वगैरह-वगैरह. अबीर यहीं नहीं रुकते. निर्देशक आगे बताता है कि हिंदुस्तानी दोहरे मापदंड वाले हैं. देश में कितनी समस्याएं और असहिष्णुता है. आपसी झगड़ों में हम एक देश के 25 देश बना रहे हैं. हमारी गंदी आदत है कि हम सबको जज करते हैं. फिल्म में रात का एक सीन है. गाजियाबाद में एक पाकिस्तानी आतंकी की तलाश हो रही है. पुलिसवाला वैन में सो रहा है. जब उसे चेताया जाता है कि इंडिया पर संकट आया है, पाकिस्तानी आतंकी घुस गया है तो पुलिसवाला कहता है कि जब से पाकिस्तान बना, इंडिया खतरे में है. कई जगह लगता है कि सेंसरवाले फिल्म देखते वक्त सो रहे थे. इंदू की जवानी महसूस कराती है कि अबीर सेनगुप्ता ने भारत के लोगों के लिए नहीं, पाकिस्तानी दर्शकों के लिए फिल्म बनाई है.



फिल्म ऐसी लड़की की बात करती है, जो अपनी जवानी को लेकर बेचैन है. जमाने भर के लड़के बिगड़े हुए हैं. इंदू को लगता है कि लड़के ही नहीं, बल्कि पूरे मोहल्ले और शहर तक के बड़े-बूढ़े मर्द उसकी जवानी पर अपना परचम फहराना चाहते हैं. इंदू संस्कारी है. बार-बार उसका ब्रेक-अप हो जाता है क्योंकि नए जमाने के लड़के शादी से पहले फिजिकल होना चाहते हैं. वन नाइट स्टैंड उनके प्रेम की पहली सीढ़ी है. अबीर ने पता नहीं कौन सी किताबें पढ़ीं और किन गली-मोहल्लों में रहे हैं. जो फिल्म उन्होंने लिखी, वह उनसे नहीं संभलती. तमाम दृश्य और संवाद जवानी की कुंठाओं की तरफ इशारा करते हैं. इंदू की सहेली सोनल की भूमिका में मल्लिका दुआ हैं. वह कुंठाओं की दुनिया में इंदू का मार्गदर्शन करती हैं. इंदू क्या पढ़ती-लिखती है, फिल्म में यह नहीं दिखता मगर उसका सपना है एयर होस्टेस बनना. लेकिन किसी सीन में उसमें एयर होस्टेस बनने के लक्षण नहीं दिखते.


कुल जमा इंदू की जवानी में अबीर सेनगुप्ता कुंठाओं और भारत-पाकिस्तान के रिश्तों को कॉमिक ढंग से देखने की कोशिश करते हैं मगर गुदगुदा या हंसा नहीं पाते. वजह यह कि उनके पास कहने को कुछ सार्थक नहीं है. वह लड़के-लड़कियों और भारत-पाकिस्तान के रिश्तों को सतही-सस्ती किताबों के नजरिये से देखते हैं. उनके दृश्यों-संवादों में अश्लील ध्वनियां आप आसानी से सुन-समझ सकते हैं. कॉमेडी भी अच्छी और सार्थक होती है. व्यंग्य की धार जमीन-आसमान एक कर देती है. लेकिन इनसे अबीर का शायद वास्ता नहीं पड़ा. यहां न कॉमेडी है, न रोमांस. ड्रामा बर्दाश्त करने काबिल नहीं है. फिल्म की मेकिंग साधारण है और सावन में लग गई आग... रीमिक्स ही कुछ सुनने-देखने लायक है. कियारा आडवाणी और आदित्य सील के लिए यहां अभिनय करने के लिए कुछ विशेष नहीं था. अतः जो कहा गया, वह उन्होंने किया. मल्लिका जरूर अपने रोल में जमी हैं. बावजूद इसके फिल्म में ऐसी बात नहीं है कि आप अपनी जवानी के अच्छे पल यहां खराब करें.