इस दौर में अखबार, टीवी से लेकर वाट्सएप यूनिवर्सिटी तक में असंख्य सच्चे-झूठे, अनगढ़-मनगढ़ंत किस्से-कहानियां बिखरे पड़े हैं. मनोरंजक भी और प्रेरक भी. निराशा, अवसाद, उथल-पुथल और निरर्थक उत्तेजना से भरी खबरों के बीच अचानक कोई किसी उपलब्धि के साथ सामने आता है और पॉजिटिव न्यूज से उपजा प्रेरणा का सैलाब उमड़ पड़ता है. वेबसीरीज जीत की जिद की नायिका कहती है, ‘लीडर्स सिर्फ फ्रंट पर नहीं, हर फील्ड में होते हैं.’ लेकिन जी5 की यह वेबसीरीज हमारी सेना के एक फौजी की कहानी कहती है. यह आम फौजी नहीं है. स्पेशल फोर्स का मेजर है. स्पेशल फोर्स की जानलेवा परीक्षा में सेना के मात्र दो से पांच प्रतिशत जवान सफल होते हैं. ऐसे में जिसने इस परीक्षा को पार कर लिया, समझ लीजिए कि वह जिंदगी में किसी भी तूफान से टकरा सकता है. मगर जिंदगी फौलादी चुनौतियां पेश करने में कब पीछे रहती है.


किशोरावस्था में अपने भाई के आतंकियों के हाथों मारे जाने के बाद नन्हां दीप तय करता है कि वह आर्मी में भर्ती होगा. कश्मीर जाएगा. आतंकियों का सफाया करेगा. उसके जीवन का एक ही लक्ष्य है. अपने लक्ष्य और जीवट से दीप सिंह सेंगर (अमित साध) आर्मी में भर्ती होकर स्पेशल फोर्स की कड़ी परीक्षा को भी पास करता है और कश्मीर पहुंचता है. वह यूनिट का सबसे बहादुर, सबसे स्मार्ट अफसर है. मेजर दीप को कारगिल में पाकिस्तानी सेना के ठिकानों को ठिकाने लगाने का काम मिलता है, जिसे वह टीम के साथ बखूबी निभाता है. मगर इसी ऑपरेशन में उसे पेट में पांच गोलियां लगती हैं. कुछ आर-पार भी हो जाती है. नतीजा यह कि अब दीप अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो सकेगा. जीवन में कभी चल नहीं सकेगा. क्या एक जवान की जिंदगी यहीं ठहर जाएगीॽ क्या आजीवन उसे व्हीलचेयर और बैसाखियों के सहारे चलना पड़ेगा? डॉक्टरों का कहना है, हां.



जीत की जिद मेजर दीप सिंह सेंगर की जिंदगी से प्रेरित है. कारगिल में दिखाए शौर्य के लिए उन्हें राष्ट्रपति पदक से सम्मानित किया गया. वेबसीरीज तमाम सिनेमाई छूट लेते हुए उनकी कहानी दिखाती है. इसमें उनकी बहादुरी के साथ व्हीलचेयर पर आने के बाद अपनी इच्छा शक्ति के बल पर फिर पैरों पर खड़े होते दिखाया गया है. जबकि शुरू से लड़खड़ाती वेबसीरीज अंत तक नहीं संभल पाती. सेना और सैनिक की यह कहानी उस पारंपरिक ऐक्शन-सिनेमा से अलग है, जिसकी ऐसी फिल्मों/वेबसीरीजों से उम्मीद की जाती है. कोई बड़ा सैन्य अभियान यहां नहीं है. इसमें सैनिकों का ट्रेनिंग-पार्ट बार-बार आता है, जो दोहराव के साथ उबाने लगता है. यह 1990 के दशक की कहानी है और सीधी लाइन में नहीं चलती, बल्कि इसका समय आगे-पीछे होता रहता है. कहानी कभी वर्तमान में आ जाती है, कभी 1997 में पहुंच जाती है तो कभी फिर 1992-93 में लौट जाती है. इसी तरह इसमें होने वाले स्थान परिवर्तन भी कनफ्यूजन पैदा करते हैं. वे ठीक से कहानी का हिस्सा नहीं बनते. कुल मिला कर लेखकीय और निर्देशकीय सहजता यहां गायब है.


सात कड़ियों की सीरीज में मेजर की जिंदगी के रोमांस/शादी का ट्रेक भी है, जिसमें जया (अमृता पुरी) यह जानने के बावजूद घायल दीप से विवाह करती है कि वह कभी पैरों पर नहीं खड़ा हो सकेगा. दोनों के वैवाहिक जीवन पर दीप का आत्मसंघर्ष हावी है. उसे लगता है कि लोग उसे दया की नजर से देखते हैं. व्हीलचेयर पर आने के बाद भी एमबीए करना, नौकरी और तरक्की पाना लोगों के लिए खास मायने नहीं रखता. यही बात दीप और जया के बीच दूरियां और अलगाव पैदा करती हैं. दीप जिंदगी से हार कर शराब में डूबने लगता है. यह बातें धीरे-धीरे फिल्मी ड्रामे में बदल जाती हैं. कहानी में एक अहम किरदार कर्नल संदीप चौधरी (सुशांत सिंह) का है, जो दीप के जीवन में अहम भूमिका निभाता है. सुशांत का यह रोल कहानी के पहले हिस्से में जहां बेहद साधारण है, वहीं री-एंट्री के बाद वह थोड़ी जान फूंकते हैं. मगर उससे सीरीज के नतीजे पर फर्क नहीं पड़ता.



कुल जमा 'जीत की जिद' प्रेरक कहानी है, लेकिन लचर राइटिंग और ढीले निर्देशन के कारण फीकी पड़ गई. इसे लंबा खींचा गया है. निर्माता-निर्देशकों के लिए यह नई समस्या है कि किस कहानी को फिल्म के रूप में दिखाया/बनाया जाए और किसे वेबसीरीज के रूप में. यहां वे गच्चा खा गए हैं. हर कड़ी के अंत में असली मेजर दीप सिंह सेंगर और उनकी पत्नी जया दो-तीन मिनट के लिए आते हैं. आपबीती अपने शब्दों में सुनाते हैं. यह जिसका भी फैसला हो, इससे वेबसीरीज को जबर्दस्त नुकसान हुआ. असली किरदारों के बार-बार बीच में आने से कहानी में रची-बुनी दुनिया और स्क्रीन पर दिखने वाला अमित साध का पराक्रम बेकार हो जाते हैं. अमित साध ने इस रोल के लिए कड़ी मेहनत की लेकिन 2020 की वेबसीरीज अवरोधः द सीज विदिन में भी उनका यही लुक था. वह आर्मी मेजर ही थे. इस लिहाज से वह यहां अलग नहीं दिखते. अमृता पुरी को जो भूमिका मिली, उसे उन्होंने ठीक ढंग से निभाया है.