गंदी बात का यह इतिहास में लपेट कर पेश किया गया पैटर्न है. एकता कपूर के आल्ट बालाजी ने इसे बनाया है. पद्मश्री मिलने और गंदी बात पर हुए विवाद के बाद एकता खुद अपना और मां शोभा कपूर का नाम अब इन सीरीजों से नहीं जोड़तीं. नए जमाने की गंदी बात के पांच सीजन दिखाने के बाद आल्ट बालाजी और जी5 ने अंदाज बदला और वह सोलहवीं सदी के हिंदुस्तान के किसी कोने में पौरुषपुर नामक रियासत में जा पहुंचे. जहां राजा भद्र प्रताप (अनु कपूर) के राज्य में स्त्रियां मर्दों के अधीन हैं.


यहां की स्त्रियों के दिल और देह पर ताले लगे हैं. राजा कामी मगर कमजोर है. अतः वह परपीड़ा में आनंद लेता है. उसके अत्याचारों के बाद एक-एक कर चार रानियां महल से गायब हो चुकी हैं. उनका गुमना रहस्य है. सिर्फ पटरानी मीरावती (शिल्पा शिंदे) जिंदा है. वही राजा की सेहत और हसरत के लिए नई-नई रानियों और स्त्रियों का प्रबंध करती है. क्या पौरुषपुर में स्त्रियों पर चल रहा दमनचक्र टूटेगा. क्या पौरुषपुर गिरेगा. क्या कोई पुरुष बाहर से आएगा या महल अथवा नगर की कोई स्त्री बगावत करेगी. ऐसा नहीं हुआ तो क्या किन्नर बोरिस (मिलिंद सोमण) पुरुषार्थ की नई परिभाषा गढ़ेगा.



पौरुषपुर कमजोरियों से भरपूर सीरीज है. सीरीज की सात कड़ियां औसतन बीस-बीस मिनट की हैं और इनमें कहीं आनंद नहीं है. स्त्री देह, कमोत्तेजक दृश्य और समलैंगिक स्त्रियों-पुरुषों के रति-प्रसंग दिखाने पर पूरा फोकस है. वासना कहानी को पिरोए रहने वाला सूत्र है. हालांकि कहानी कच्ची है. टूटती-बिखरती रहती है. ऐसा लगता है कि किरदारों की रचना यह ध्यान में रखते हुए की गई कि कैसे-कहां उन्हें कामुक दृश्यों में फिट किया जा सकता है. डायलॉग के नाम पर सस्ती लाइनें हैं. जैसेः ‘हमारे जिस्म में तपिश भरना तुम्हारा काम है, हमारा नहीं.’ ‘औरत या तो चुनौती देती है या चिंता. औरतों की बातों को गंभीरता से नहीं लेना चाहिए.’


पौरुषपुर के ट्रेलर ने आते ही लोगों का ध्यान खींचा था. लेकिन सीरीज देख कर चाय से ज्यादा केतली गर्म कहावत याद आती है. अच्छी कथा-पटकथा पौरुषपुर को संभाल सकती थी. यहां भव्यता है. खास तौर पर राजमहल के अंदर के दृश्यों में. इस लिहाज से विख्यात सैट डिजाइनर नितिन देसाई और उनकी आर्ट टीम ने बढ़िया काम किया है. यहां अंतरंग दृश्यों को भी खूबसूरती से फिल्माया गया है. मेक-अप, हेयर और लाइट से लेकर कैमरा टीम भी बेहतरीन है. लेकिन बड़े पर्दे की बात हो या मोबाइल स्क्रीन की, सिनेमा सिर्फ तकनीक और चमक-दमक नहीं है. वह ऐसी कहानी है, जिसमें अभिनेता जान फूंकते हैं.



पौरुषपुर में अनु कपूर की प्रतिभा का ढंग से इस्तेमाल नहीं हुआ. वह कुंठित, कामी, कमजोर और अभद्र राजा की भूमिका में हैं लेकिन एक भी दृश्य या संवाद उन्हें ऐसा नहीं मिला कि याद रह जाएं. यही शिल्पा शिंदे के साथ हुआ. वह रानी कम और राजा की दासी अधिक लगती हैं. पौरुषपुर में राजा भद्र प्रताप की कामुकता के साथ कुछ उपकथाएं जोड़ी गई हैं. जिनमें किन्नर बोरिस और उसका वेश्यालय, राजकुमारों और रानी से दैहिक संबंध बनाने वाला नृत्यगुरु भानू तथा कभी खो गई रानी नयनतारा (फ्लोरा सैनी) का मंगेतर नकाबपोश शामिल हैं. इनमें से किसी की भी कहानी खिल कर नहीं आती. न तो ये ढंग से पौरुषपुर के जीवन का हिस्सा बन पाते हैं और न ही उससे खुली बगावत कर पाते हैं. राजमहलों के षड्यंत्र भी यहां ढंग से उजागर नहीं होते.


पौरुषपुर बलजीत सिंह चढ्ढा का कॉन्सेप्ट है और वह इसके क्रिएटिव डायरेक्टर हैं. उन्होंने रणवीर प्रताप सिंह और राजेश त्रिपाठी के साथ मिलकर कथा-पटकथा लिखी. उन्होंने कामुक दृश्य रचने के साथ कहानी पर ध्यान दिया होता तो कुछ बात बन सकती थी. लेकिन संभवतः अच्छी कहानी गढ़ने का उद्देश्य यहां था ही नहीं. पौरुषपुर ऐसी वेबसीरीज नहीं कि जिससे आप जाते हुए वर्ष को अलविदा कहें.



निःसंदेह पहले एपिसोड के साथ यहां शुरुआत अच्छी है मगर जैसे-जैसे सीरीज बढ़ती है, हर स्तर पर फिसलती है. अगर आपकी रुचि कुछ खास दृश्यों में है तो वह सीरीज को फास्ट-फॉरवर्ड करके निपटाए जा सकते हैं. वेबसीरीज सवाल उठाती है कि क्या स्त्री-पुरुष के बीच का फर्क कभी खत्म होगा. फिर जवाब भी देती है कि कभी नहीं क्योंकि यह फर्क तो खुद ईश्वर ने बनाया है. वास्तव में यह एकता कपूर एंड कंपनी का सस्ता स्त्री विमर्श है, जिसे मर्द विरोधी रंग से चटख बना कर पेश किया गया है. मगर इसके बावजूद यहां हर दृश्य में स्त्री खिलौना बनी हुई है. जिसे मर्दों के बाजार में ही बेचने के उद्देश्य से बनाया गया है.