वेब सीरीज के इस दौर में क्या बनाना है और कैसे बनाना है, यह महत्वपूर्ण सवाल है. विषय ढेर हैं और प्लेटफॉर्मों की भी कमी नहीं है. कमी है तो सही सोच की. चीन के साथ 1962 का युद्ध बीते कुछ महीनों में खूब याद किया गया है. दोनों देशों के बीच हालिया तनाव के दौर में बार-बार दोहराया गया कि यह नया भारत है. चीन 1962 वाली गलती न करे. कुछ ऐसे प्रसंग भी सामने आए, जिनमें युद्ध में पराजय के बावजूद हमारे सैनिकों की शौर्य गाथाओं को याद किया गया. इन्हीं में लद्दाख की चुशूल हवाई पट्टी पर कब्जे के चीन के मंसूबों को नाकाम करने वाला पराक्रम शामिल है. जब हमारे केवल 125 वीर जवानों ने चीन के 3000 सैनिकों को धूल-धूसरित कर दिया था. इस सच्ची घटना को डिज्नी-हॉटस्टार अपनी वेब सीरीज ‘1962: द वार इन द हिल्स’ में लेकर आया है.


महेश मांजरेकर इसके निर्देशक हैं और चारूदत्त आचार्य ने सीरीज लिखी है. मगर मुश्किल यह है कि इस घटना को सुनने से जो जोश पैदा होता है, वह सीरीज देखते हुए ठंडा पड़ जाता है. वजह यह कि पूरे घटनाक्रम को रायते की तरह फैला-फैला कर लिखा और दिखाया गया है. कहीं कसावट नहीं है. निर्देशक जेपी दत्ता की शानदार फिल्म बॉर्डर (1997) से लेखक-निर्देशक जबर्दस्त रूप से प्रभावित हैं. उन्होंने यहां युद्ध, उसकी पृष्ठभूमि, राजनीतिक बहस के साथ सैनिकों की निजी, घरेलू और प्रेम कथाओं को मौके-बेमौके जमकर बिछाया है.



ऐसा लगता है कि वे वेब सीरीज नहीं बल्कि टीवी सीरियल बना रहे हैं, जिसमें मुख्य कथा के साथ भर्ती के ट्रेक इसलिए चलाए जाते हैं कि कहानी का च्यूइंगम बना रहे. दर्शक जुगाली करते रहें. जबकि वेब सीरीज का गणित ठीक उल्टा है. यहां रफ्तार चाहिए. जिसकी 1962 के इस घटनाक्रम में जबर्दस्त गुंजाइश थी. लेकिन मांजरेकर-आचार्य की जुगलबंदी से नतीजा यह निकला कि किरदारों की गृहस्थी, रोमांस, लव लैटरबाजी, प्रेम त्रिकोण, सगाई और शादी जैसी घटनाओं के बीच यह महत्वपूर्ण युद्ध सैंडविच बन गया है.



देश प्रेम मनोरंजन की दुनिया का कामयाब फॉर्मूला है, अगर उसे सही ढंग से इस्तेमाल किया जाए. मगर ये इमोशन जबर्दस्ती पैदा नहीं किया जा सकता. इस लिहाज से महेश मांजरेकर और उनकी टीम यहां नाकाम साबित होती है. न तो वह पूरी तरह से देश भक्ति के जज्बात पैदा कर पाती है और न ही रोमांस. लेखक-निर्देशक मुख्य रूप से क्या दिखाना चाहते हैं, अंत तक साफ नहीं होता क्योंकि युद्ध में पराक्रम दिखाने वाला सैनिक जब आखिर में घर लौटता है तो घिसे-पिटे बॉलीवुड या सास-बहू मार्का टीवी ड्रामे की तरह उसकी प्रेग्नेंट प्रेमिका शादी के मंडप में किसी और के संग फेरे ले रही होती है!



1962: द वार इन द हिल्स में एक सी कंपनी है, जिसमें अधिकतर सैनिक रेवाड़ी (हरियाणा) के हैं. इनका लीडर है मेजर सूरज राठौड़ (अभय देओल). बहादुर और तेजी से फैसले लेने वाला. देओल को यहां मैदान में सुमित व्यास, आकाश थोसर और अनूप सोनी का साथ मिला है. जबकि चीनी कमांडर के रूप में मियेंग चांग नजर आते हैं. निर्देशक ने दर्शकों की सुविधा के लिए यहां चीनी सैनिकों, अफसरों और तमाम किरदारों से साफ-सुथरे लहजे में हिंदी बुलवाई है.



असम, अरुणाचल और नाफा (नॉर्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी) में लगातार घुसपैठ के बाद चीन लद्दाख को कब्जाना चाहता है. उसके नेता और सैन्य अफसर योजना बनाते हैं कि भारत को युद्ध में परास्त करके लद्दाख पर अधिकार किया जाए. इसके लिए वह सबसे पहले चुहुल हवाई पट्टी को जीतने की योजना बनाते हैं. उनका लक्ष्य है कि भारत के स्वतंत्रता दिवस के मौके पर हमला करके उसे ‘तोहफा’ दिया जाए. लेकिन सूरज राठौड़ के नेतृत्व वाली सी कंपनी के मात्र 125 सैनिक 3000 चीनी सैनिकों के इरादे नाकाम कर देते हैं.



वेब सीरीज अनावश्यक रूप से लंबी है और इसके दस एपिसोड 45 से 55 मिनिट तक के हैं. जो दर्शक को उस कथा-लक्ष्य से दूर रखते हैं, जिसे देखने की उम्मीद लिए वह आया है. फिल्म देव डी (2009) में नजर आई अभय देओल और माही गिल की जोड़ी यहां नहीं जमी. माही बिल्कुल असर नहीं छोड़तीं. उनके किरदार में भी यहां दम नहीं है.


सैनिकों के रूप में सभी अभिनेताओं ने अपना-अपना काम ठीक ढंग से किया है. 1962 के दौर को स्क्रीन पर उतारने में निर्देशक-लेखक सफल हैं परंतु वेब सीरीज देखे जाने के लिए यह वजह पर्याप्त नहीं है. फिर भी अगर आप देश प्रेम की चाशनी में लिपटी प्यार-व्यार और गृहस्थी की कहानियां देखना चाहते हैं तो यह वेब सीरीज आपके लिए है.