स्टारकास्ट- रत्ना शाह पाठक, कोंकणा सेन शर्मा, अहाना कुमरा पल्बिता बोरठाकुर, विक्रांत मेस्से, सुशांत सिंह, शशांक अरोड़ा, जगत सिंह सोलंकी


डायरेक्टर- अलंकृता श्रीवास्तवा


रेटिंग- ****


‘लिपस्टिक अंडर माय बुर्का’ फिल्म घोर पुरूष प्रधान समाज को आईना दिखाती फिल्म है. ये एक ऐसी फिल्म है जो औरत को घर की देहरी तक सीमित कर बेहद सहज रहने वाले समाज को असहज करती है. ये समाज की कुंठा को अलग-अलग किरदारों के जरिए दिखाती है. ये समाज के उस चेहरे से नकाब हटाती है जिसके लिए औरत की शारीरिक जरूरत कोई मायने नहीं रखती. ये वो समाज है जो महिलाओं को वर्जनाओं के घेरे में बांधे रहना चाहता है. जब बढ़ती उम्र की महिला अपनी दैहिक कल्पनाओं (Fantasy) की उड़ान भरती है तो उसे चरित्रहीन साबित करने की कोशिश की जाती है. ये कल्पनाएं जब एक लड़की के अंदर जागती हैं तो उसे घर की इज्ज़त का का हवाला देकर चुप कराया जाता है. वही जब एक बीवी देखती है तो उसके साथ बिस्तर पर जबरदस्ती करके उसका मुंह बंद कराया जाता है. बेहद आम सी चार महिलाओं की आम ख्वाहिशों की उड़ान के जरिये महिलाओं की घुटन औऱ आजादी की तड़प को बेहतरीन तरीके से पर्दे पर उतारा गया है. ये एक ऐसी फिल्म है जिसे हर महिला खुद से जोड़कर देख पाएगी.


महिलाओं की इच्छा असंस्कारी क्यों?


जब इस फिल्म का ट्रेलर जब रिलीज हुआ था उस वक्त सेंसर बोर्ड ने इसे ‘असंस्कारी’ करार दिया था. फिल्म देखने के बाद ये सवाल मन में आते हैं कि क्या किसी महिला की को अपने शारीरिक सुख की परिभाषा खुद तय करने औऱ उसे जीने का हक नहीं है. क्या उसकी ये ख्वाहिशें उसे असंस्कारी बनाती हैं? सवाल ये भी है कि ‘फैंटेसी सिर्फ पुरूषों की जागीर क्यों? जहां हर जगह महिलाओं के हक की बात हो रही हो वहीं महिलाओं की फैंटेसी पर बैन करने की बात सेंसर बोर्ड को क्यों सूझी? सेंसर बोर्ड को ‘असंस्कारी’ शब्द को परिभाषित करना चाहिए? क्या सपने देखना असंस्कारी है या फिर उन सपनों को पूरा करने की जिद में जुट जाना ‘असंस्कारी’ है?



इस फिल्म की डायरेक्टर अलंकृता श्रीवास्तवा को सैल्यूट है जिन्होंने कानूनी लड़ाई लड़ी लेकिन फिल्म को लेकर कोई समझौता नहीं किया. फिल्म में कई बोल्ड सीन हैं लेकिन वो अश्लील से ज्यादा फिल्म की जरूरत है. उन दृश्यों के जरिए जो मैसेज अलंकृता देना चाहती थीं उसे दर्शकों तक बिना किसी हिचक उन्होंने समझा दिया है.


कहानी


भोपाल में रहने वाली चार महिलाओं की कहानी है. ऊषा (रत्ना शाह पाठक) जो हवाई महल में रहती हैं और सभी उन्हें बुआ कहकर बुलाते हैं. तीन बच्चों की मां शीरिन (कोकणा सेन शर्मा) जो पति (सुशांत सिंह) से छुपकर सेल्स में काम करती है. शीरिन के पति की मानसिक दशा एक डायलॉग से जाहिर हो जाती है ‘बीवी हो, तो बीवी रहो शौहर मत बनो’. मोहल्ले में ही पार्लर चलाने वाली लीला (अहाना कुमरा) जो अपनी देह की इच्छाओं को दबाकर रखने में बिल्कुल यकीन नहीं रखती. और चौथी कॉलेज जाने वाली रिहाना जो माइली सायरस की फैन है और सिंगर बनना चाहती है.



फिल्म की शुरूआत रोज़ी की कहानी सुनाने के साथ होती है जो फिल्म की नायिका है. वो रोज़ी आपमें है, मुझमें है और हर महिला में है. रोज़ी के ख्वाहिशों की कहानी सुनाई देती है इसके साथ ही इन चारों महिलाओं की जिंदगी कब रोजी से जुड़ जाती हैं फिल्म देखते वक्त ये आपको भी नहीं पता चलता. फिल्म कहीं से भी भटकती नहीं है. फिल्म में इन चारों की कहानी ऐसे आगे बढ़ती है कि कुछ भी और सोचने का वक्त नहीं मिलता. चाहें डायलॉग की बात हो या फिर डायरेक्शन की.. फिल्म दमदार है, प्रभावशाली है और आपको एक सवाल के साथ छोड़ जाती है.


एक्टिंग
बॉलीवुड में कुछ ही फिल्में बनती हैं जो बाक्स ऑफिस की परवाह किए बगैर वाकई कुछ संदेश देना चाहती हैं. इस फिल्म के सभी कलाकार ऐसे हैं जिन्हें अभिनय में महारत हासिल है. रत्ना शाह पाठक अपने किरदार को जीती नज़र आती हैं. बुआ जी के किरदार में उन्हें देखकर आपको जरूर अपने आस-पास की याद आ जाएगी. बुआ जी की दुनिया ऐसी कि उन्हें अपना नाम भी बड़ी मुश्किल से याद आता है. और उस वक्त उनके चेहरे का भाव अंदर तक झकझोर जाता है कि आखिर ये कौन सी दुनिया है जहां एक औरत को ऐसी जिंदगी जीने की आदत हो गई है कि उसे अपना नाम याद करने के लिए भी दिमाग पर जोर लगाना पड़ता है.


कोंकणा सेन शर्मा ने अपने अभिनय से साबित किया है कि शीरिन का किरदार उनसे बेहतर कोई नहीं कर सकता था. अबॉर्शन से परेशान शीरीन अपनी जिंदगी खुद बदलना चाहती है. इस चाहत में वो खुद ही कंडोम खरीदकर लाती है लेकिन पति से झूठ बोलती है कि किसी महिला से लेकर आई है. इस पर पति उसे फेंकते हुए कहता है- ‘मुझे भी लगा तुम इतनी बेशर्म कैसे हो गई?’ ये डायलॉग भी कई सवाल छोड़ जाता है. क्या पुरूष होने का मतलब ये है कि बिस्तर पर सिर्फ उसकी मर्जी ही चलेगी. पत्नी की चाहत का क्या ?



अहाना कुमरा की एक्टिंग भी इस फिल्म में उभर कर सामने आई है. एक बिंदास लड़की के किरदार में उन्होंने जान भर देती हैं जिसे समाज और दुनिया से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता. अलग अलग परिस्थितियों और उम्र में जी रही ये महिलाएं अपने हिस्से की आजादी चाहती हैं. शारीरिक इच्छाओं को खुलकर जाहिर करना औऱ उसे भरपूर जीना चाहती हैं. देह की जरूरत सिर्फ पुरूष तक सीमित रहे इस सोच पर आघात करती हैं और अपनी घुटन भरी जिंदगी को बेहतर बनाने की फैंटेसी में जीती हैं.


फिल्म ने सांकेतिक रूप से मेरिटल रेप के मुद्दे पर भी सवाल खड़े किए हैं. शादी से पहले अगर कोई जबरदस्ती करने को कीशिश करे तो वो रेप है लेकिन शादी के बाद अगर पत्नी की मर्जी के बिना कोई संबंध बनाए तो उसे क्या कहा जाए? क्या कोई भी रिश्ता किसी को इस हद तक हक दे सकता है कि औरत का अपने शरीर पर कोई हक ना रहे.


क्यों देखें


ये फिल्म इसलिए देखी जानी चाहिए क्योंकि इसे बनाने की हिम्मत शायद हर किसी में नहीं. महिलाओं की ख्वाहिशों को बहुत सारी फिल्मों में थोड़ा-थोड़ा दिखाया गया है लेकिन ये फिल्म सिर्फ महिलाओं के बारे में है, उनकी कल्पनाओं के बारे में है, उनके सपनों की छोटी सी दुनिया के बारे में है जिन्हें पूरा करने के लिए इस बड़ी सी दुनिया में थोड़ी सी जगह चाहिए. दुनियाभर में ये फिल्म सराही जा रही है. ये फिल्म अब तक 35 फिल्म फेस्टिवल में दिखाई जा चुकी है. लंदन फिल्म फेस्टिवल में बेस्ट फिल्म सहित इस फिल्म ने अब तक करीब 11 बड़े अवॉर्ड अपने नाम कर लिए हैं.


साथ ही ये फिल्म इसलिए देखें ताकि आपको पता चले कि महिलाएं अपनी शारिरिक इच्छाओं को लेकर कैसे सोचती हैं. आप जो देखते हैं उसके साथ-साथ उनकी एक समानांतर दुनिया भी है जिन्हें वो अकेले जीती हैं.


Twitter: @rekhatripathi