स्टार कास्ट: राजकुमार राव
डायरेक्टर: हंसल मेहता
लेखक: मुकुल देव और हंसल मेहता
रेटिंग: तीन स्टार (***)


निर्देशक हंसल मेहता जब कोई फिल्म लेकर ऑडियंस के सामने आते हैं तो ये तय होता है कि उनकी फिल्म में कुछ तो असामान्य या असाधरण देखने को मिलने वाला है. फिर चाहे हम फिल्म 'शाहिद' की बात करें या फिर 'अलीगढ़' की . फिल्म की कहानी एक ऐसे शख्स के जीवन पर आधारित है जो पढ़ा-लिखा है लेकिन जेहाद और धर्म के नाम पर उसका ब्रेन वॉश कर दिया जाता है. निर्देशक हंसल मेहता इस फिल्म पर पिछले करीब 12 साल से काम कर रहे थे और अब जाकर उनका ये प्रोजेक्ट बनकर तैयार हो सका है.


फिल्म का नाम सुनते ही सबसे पहले जेहन में ये खयाल आता है आखिर इसका नाम 'ओमेर्टा' क्यों रखा गया है. तो सबसे पहले तो हम आपको इसका मतलब बताते हैं. ओमेर्टा का मतलब होता है खामोशी. असल में ये एक कोड वर्ड है जिसका इस्तेमाल जुर्म की दुनिया में किया जाता है. इस शब्द का प्रयोग आमतौर पर अपराधियों द्वारा अपने अपराध से जुड़ी जानकारी किसी के साथ साझा न करने को लेकर किया जाता है. फिल्म में आपको भारत सहित विश्व की तीन महत्वपूर्ण घटनाओं के बारे में बताया गया है जो कहीं न कहीं एक ही धागे से बंधी हैं. पहली घटना 1993 मुंबई बम धमाकों की है, दूसरी घटना 1992 भारत-नेपाल प्लेन हाईजैक की है और तीसरी घटना 9/11 के आतंकी हमले की है जो अमेरिका के वर्ल्डट्रेड सेंटर पर किया गया था. यूं तो इन तीनों ही घटनाओं के दरियामान कई साल का अंतर है लेकिन ये सभी घटनाएं एक सिरे से जाकर मिलती हैं और वो छोर है उमर सईद शेख. यूं तो फिल्म की कहानी आपको अंत तक बांधे रखती है और जब आप फिल्म देखकर निकलते हैं तो आपके मन में एक सवाल आता है कि आखिर हंसल मेहता ने ये फिल्म क्यों बनाई है? आईए आपको इसकी कहानी के बारे में बताते हैं.


कहानी


फिल्म की कहानी एक ऐसे शख्स उमर सईद शेख की है जो ब्रिटेन का नागरिक और लंदन में रहता है. उमर 90 के दशक की शुरुआत में बोस्निया और फिलिस्तीन में मारे जा रहे मुस्लमानों के लिए इंसाफ चाहता है और साथ हो रही नाइंसाफी के खिलाफ लड़ना चाहता है. अपने इन्हीं जज्बातों को वो लंदन के एक मौलाना के साथ साझा करता है और फिर शुरू होता है जिहाद का सफर. इस सफर के दौरान वो पाकिस्तान से होते हुए भारत में दाखिल होता है.



उमर जिसने अपने इस जिहाद की शुरुआत तो बोस्निया में मुसलमानों के साथ हो रही नाइंसाफी के लिए की थी लेकिन बाद में वो भी कश्मीर राग में उलझकर रह गया. अपनी इस जिहाद की लड़ाई के पहले पड़ाव में वो भारत की राजधानी दिल्ली पहुंचता है. यहां वो लोगों से ये कहकर मिलता है कि वो लंदन का रहने वाला है और अपने माता पिता से मिलने के लिए यहां आया है. इसी दौरान उमर भारत के चार टूरिस्टों को किडनैप कर लेता है. हालांकि पुलिस की समझदारी और तेजी के चलते उन चारों ही टूरिस्टों को बचा लिया जाता है. इसके बाद वो जेल में जाता है और फिर बाहर आता है. जेल से बाहर आते ही वो 1993 में हुए बम धमाकों के दौरान भारत सरकार को और पाकिस्तान सरकार को दो झूठे फोन करता है. जिसके चलते दोनों ही देशों की सीमाओं पर युद्ध जैसी स्थिति बन जाती है. इसके बाद पुलिस की कार्रवाई में उमर सहित दो अन्य आतंकवादियों को 93 के बम धमाकों की साजिश के आरोप में जेल में बंद कर दिया जाता है.


इसके बाद पाकिस्तान के आतंकी भारतीय प्लेन हाईजैक कर तीन आतंकवादियों की रिहाई मांगते हैं. इन तीन आतंकवादियों में उमर के साथ हाफिज सईद भी शामिल था. 1999 में भारत-नेपाल की फ्लाइट को हाइजैक किया गया था जिसके पैसेंजर्स की सुरक्षा के बदले उमर सहिद दो आतंकवादियों को भारत सरकार द्वारा रिहा किया गया और उसके बाद होता है वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर आतंकी हमला. इस हमले ने अमेरिका की नींव को हिलाकर रख दिया था साथ ही पूरी दुनिया को सकते में डाल दिया था. हालांकि फिल्म में उमर का इस हमले में डायरेक्ट इन्वॉलवमेंट नहीं दिखाया गया है. लेकिन अमेरिका के एक पत्रकार डेनियल पर्ल ने अपनी इन्वेस्टिगेटिव रिपोर्टिंग के जरिए इस हमले से उमर का कनेक्शन निकाल लिया था और इसके तार कश्मीर में बैठे अलगाववादी नेता गिलानी तक जोड़ लिए थे. डेनियल की मुलाकात उमर से होती है और उमर उसको विश्वास दिलाता है कि वो उसे गिलानी से मिलवाएगा. इसी दौरान उमर डेनियल को अगवा कर उसकी हत्या कर देता है. बाद में इसी हत्या के आरोप में उसे जेल होती है.



आपको बता दें कि हंसल मेहता ने पूरी तरह से उमर की कहानी को पर्दे पर उतारकर रख दिया है. इसे फिल्म की जगह अगर आतंकवादी उमर के जीवन पर बनी एक डॉक्यूमेंट्री कहेंगे तो गलत नहीं होगा, क्योंकि हंसल मेहता ने फिल्म में कई जगह उस दौरा की घटनाओं के असली फुटेज का इस्तेमाल किया है. जिसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर हाफिज सईद और उमर की रिहाई के फुटेज शामिल है.


डायरेक्शन


हंसल मेहता ने इस फिल्म का निर्देशन बेहद सच्चाई से किया है. उन्होंने कहीं भी फिल्म को एंटरटेनिंग बनाने के नाम पर कहानी में मनघड़ंत पेंच नहीं जोड़े हैं. हंसल मेहता ने उस दौरा और उमर के जीवन से जुड़ी जितनी भी घटनाएं फिल्म में दिखाई हैं उनपर बेहद अच्छी रिसर्च की है. हालांकि फिल्म में क्रिएटिव लिबर्टी नहीं ली है जिसके कारण ये एक बेहद गंभीर डॉक्यूमेंट्री जैसी लगती है. हालांकि हंसल मेहता ने अंत तक ये बात समझाने में असमर्थ दिखते हैं कि आखिर उन्होंने ये फिल्म बनाई क्यों है? ऐसा पहली बार है जब किसी फिल्म एक आतंकवादी को सेंट्रल कैरेक्टर के तौर पर दिखाया गया है. लेकिन उन्होंने इस फिल्म को बड़ी ही सावधानी से बनाया है. पूरी फिल्म के दौरान आपको एक पल के लिए भी ऐसा नहीं लगता कि फिल्म में कहीं भी आंतकवाद या आतंकवादी मानसिकता का माहिमांडन किया गया है.



एक्टिंग


एक बार फिर राजकुमार राव ने अपने अभिनय और अभिनय प्रतिभा को साबित किया है. फिल्म में मुख्य भूमिका में तो राजकुमार राव ही हैं. लेकिन अलग-अलग घटनाओं में कई एक्टर्स नजर आते हैं हालांकि कोई भी बहुत नामी एक्टर फिल्म में नहीं दिखता. लेकिन सभी ने अपने-अपने किरदारों को बखूबी निभाया है. वहीं, अगर राजकुमार राव की बात करें तो फिल्म के दौरान कई पल ऐसे आते हैं जब आपको यूं लगने लगता है मानो ये राजकुमार नहीं बल्कि उमर शेख ही है.


क्यों देखें:




  • फिल्म की कहानी पूरी तरह से सच्ची घटनाओं पर आधारित है. जो आपको 90 के दशक की कई बड़ी व अहम आतंकवादी घटनाओं के बारे में जानकारी देती है.

  • फिल्म का निर्देशन और अभिनय दोनों ही बेहतरीन हैं. फिल्म आपको एंटरटेन शायद न करे लेकिन आपको जानकारी काफी सारी दे देगी.


क्यों न देखें:




  • फिल्म में एंटरटेन के नाम पर आपको कुछ नहीं मिलेगा. फिल्म की कहानी एकदम सीधे चलती है और ट्विट्स और टर्न्स आपको देखने को नहीं मिलते.

  • फिल्म के कुछ सीन आपको विचलित भी कर जाते हैं, कई सीन्स में हिंसा को बेहद बेरहमी के साथ फिल्माया गया है.

  • फिल्म की कहानी यूं तो आपको अंत तक बांधे रखती है, फिल्म खत्म होने के बाद आपको कुछ अधूरापन महसूस होता है और आपके जेहन में सवाल उठता है कि आखिर ये फिल्म बनाई क्यों गई है?