नई दिल्ली: देश में 17वें लोकसभा चुनाव की सुगबुगाहट तेज़ हो गई है. चुनाव आयोग ने मतदान की तारीखों का भी एलान कर दिया है. ऐसे में तमाम राजनीतिक पार्टियां कमर कस चुकी हैं और चुनाव में दमखम दिखाने को तैयार हैं. इस बार के चुनाव में कई महिला उम्मीदवारों की साख भी दांव पर लगी हुई है. राजस्थान में सत्ता गंवा चुकी बीजेपी की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष वसुंधरा राजे इस दफा लोकसभा चुनाव में वोटों की आस लिए मैदान में उतर सकती हैं. 2014 के लोकसभा चुनाव में राजस्थान में बीजेपी 100 प्रतीशत सीटें हासिल करने में कामयाब रही थीं. प्रदेश में इतनी बड़ी कामयाबी का श्रेय कुछ लोगों ने नरेंद्र मोदी को तो कुछ ने वसुंधरा राजे को दिया था.


कौन हैं वसुंधरा ?
वसुंधरा राजे का ताल्लुक ग्वालियर के राजघराने से है. वो स्वतंत्रता पूर्व ग्वालियर के आखिरी राजा जीवाजीराव सिन्धिया और राजमाता विजया राज सिन्धिया की बेटी हैं. उनका जन्म 8 मार्च 1953 को मुंबई में हुआ था. वसुंधरा राजे ने तमिलनाडू से अपनी स्कूल की पढ़ाई पूरी की और मुंबई यूनिवर्सिटी के सोफिया कॉलेज से राजनीतिक शास्त्र और अर्थशास्त्र में ग्रैजुएशन की डिग्री ली. 17 नवंबर 1972 को वसुंधरा राजे की शादी धौलपुर के रॉयल जाट महाराज राणा हेमंत से हुई. लेकिन कुछ वक्त के बाद ही दोनों का एक दूसरे से अलगाव हो गया. वसुंधरा राजे के बेटे दुष्यंत सिंह झालावर सीट से बीजेपी के लोक सभा सांसद हैं.


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बात पहले वसुंधरा की
वसुंधरा राजे इस वक्त बीजेपी की उन कद्दावर नेताओं में से हैं, जो सत्ता गंवाने के बाद भी अपने राज्य में बेहद लोकप्रिय और मज़बूत नेता मानी जाती हैं. 2018 के राजस्थान चुनाव में तीन प्रमुख मुद्दे थे. रोज़गार की कमी, किसान का गुस्सा और दलित की नाराज़गी, जिसपर कांग्रेस ने सत्ता के खिलाफ लहर बनाने की कोशिश. इसके अलावा पांच साल के सत्ता विरोधी लहर को भी कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव में ठीक ठाक भुनाया, नतीजतन वसुंधरा वापसी का दम भरती रहीं और सत्ता हाथ से फिसल गई. अब ये देखना बेहद दिलचस्प होगा कि आगामी लोकसभा चुनाव में कांग्रेस वसुंधरा राजे के खिलाफ क्या रणनीति बनाती है.


हाल में राजस्थान की कुर्सी गंवा चुकीं वसुंधरा राजे लोकसभा चुनाव में बीजेपी के लिए कितनी अहम नेता हैं? इस पर राजस्थान की राजनीति को करीब से देखने और समझने वाले वरिष्ठ पत्रकार नारायण बारेठ कहते हैं, “निसंदेह वो अहम हैं. वो दो बार मुख्यमंत्री रही हैं. पार्टी की अध्यक्ष रही हैं. प्रतिपक्ष की नेता रही हैं. ये चर्चा ज़रूर है कि हाईकमान उनको बहुत ज़्य़ादा पसंद नहीं करता. लेकिन केंद्र में बैठा बीजेपी का नेतृत्व अभी ज़ोखिम नहीं ले सकता. अभी बीजेपी पुलवामा की घटना के बाद काफी उत्साहित है. उनका आत्मविश्वास बढ़ा है. फिर भी चुनाव तो चुनाव है, इसलिए केंद्रीय हाईकमाम वसुंधरा राजे से काम लेना चाहेगा. चाहे वो उनको पसंद करे या न करे.”


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आपको याद दिला दें कि राजस्थान में साल 2013 में हुए विधानसभा चुनाव में वसुंधरा राजे की अगुवाई में बीजेपी ने कांग्रेस का सूपड़ा साफ कर दिया था. उस वक्त सत्ता पर काबिज़ कांग्रेस 96 सीटों से सीधा 21 सीटों पर आ गिरी थी. जबकि वसुंधरा की लोकप्रियता का आलम ये था कि 2008 के चुनाव में 78 सीटें हासिल करने वाली बीजेपी 2013 में 163 सीटें लेकर आ गई. प्रचंड बहुमत हासिल करने के महज़ 4 महीने बाद ही देश में 16वां लोकसभा चुनाव हुआ. इसमें भी वसुंधरा राजे के प्रदेश में बीजेपी ने 25 में से 25 सीटें हासिल की. हालांकि, इस बार प्रदेश की तस्वीर क्या होगी इसपर कुछ भी कहना जल्दबाज़ी होगी.


वसुंधरा फैक्टर बीजेपी के लिए राजस्थान में कितना मददगार होगा? इस सवाल पर नारायण बारेठ कहते हैं, “ऐसा लगता है कि पार्टी की दो सोच है या द्वंद्व है. वो उनको यहां से दूर भी रखना चाहता है, लेकिन इतनी जल्दी समय में वसुंधरा राजे चार राज्यों में कुछ करिश्मा नहीं कर पाएंगी. अगर पार्टी ने उनको दूर रखा तो राजस्थान में उनको नुकसान पहुंच सकता है. पार्टी का एक वर्ग राजे के खिलाफ शिकायत करता रहा है और इस बात के लिए उन्हें ज़िम्मेदार बताता है कि पिछले चुनाव में उनकी वजह से हार हुई है.”


हालांकि नारायण बारेठ ये भी कहते हैं कि ये सब पार्टी का आंतरिक मामला है, लेकिन वो इस बात को कहने से भी गुरेज़ नहीं करते कि कोई भी व्यक्ति जो दो बार मुख्यमंत्री रहता है, इतने लंबे वक्त तक सियासत करता है, तो उसका एक समर्थक वर्ग तैयार हो ही जाता है. नारायण बारेठ समर्थकों को वसुंधरा की ताकत बताते हैं.



वसुंधरा राजे का राजनीतिक सफर
वसुंधरा राजे की मां विजया राजे सिंधिया चुनाव लड़ चुकीं हैं. अपनी मां की तरह ही वसुंधरा राजे ने भी राजनीति में आने की फैसला किया. साल 1984 में वो बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में शामिल हुईं. 1985-87 के बीच वो राजस्थान में बीजेपी की युवा मोर्चा की उपाध्यक्ष रहीं. इसके बाद उन्हें 1987 में राजस्थान प्रदेश बीजेपी का उपाध्यक्ष पद सौंपा गया.


अटल सरकार में साल 1998-99 में वसुंधरा राजे को बड़ी ज़िम्मेदारी दी गई. उन्हें विदेश राज्यमंत्री बनाया गया. 1999 में वसुंधरा को केंद्रीय राज्यमंत्री के तौर पर स्वतंत्र प्रभार सौंपा गया. लेकिन 2001 में उन्हें केंद्रीय राज्य मंत्री का पद दे दिया गया. 2002 में भैरों सिंह शेखावत के उप राष्ट्रपति बनने के बाद वसुंधरा राजे को बीजेपी राज्य इकाई का अध्यक्ष बना दिया गया था.


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वसुंधरा राजे पांच बार लोकसभा सदस्य रहीं और पांच बार ही विधानसभा की भी सदस्य रही हैं. साल 2003 में वो राजस्थान की पहली महिला मुख्यमंत्री बनीं. वसुंधरा अब तक दो बार राजस्थान की मुख्यमंत्री बन चुकी हैं. करीब 35 साल के राजनैतिक सफर में वसुंधरा राजे ने खुद को कई मौकों पर साबित किया है. ऐसे में इस बार उनकी साख भी दांव पर होगी.


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सोनिया गांधी, प्रियंका गांधी, मायावती और ममता बनर्जी सरीखे महिला नेताओं की फेहरिस्त में वसुंधरा राजे कहां ठहरती हैं. इस सवाल पर नारायण बारेठ कहते हैं, “लोकप्रियता उनकी है. पर उनका दर्जा वो नहीं हो सकता, जो सोनिया गांधी का या ममता बनर्जी का है. क्योंकि इन दोनों महिलाओं ने अलग अलग तरह से एक बड़ी मुहिम और एक बड़े संगठन का नेतृत्व किया है. ममता बनर्जी ने खुद बंगाल जैसी जगह में स्थान बनाया, जहां बिना लंबे संघर्ष के स्थान नहीं बन सकता. वसुंधरा राजे को सब कुछ स्वाभिक तौर पर मिला है. पारिवारिक विरासत से मिला है राजनीतिक विरासत से मिला है.”


नारायण बारेठ का कहना है कि पार्टी का संगठन और शुरुआती दौर में भैरों सिंह शेखावत का आशीर्वाद वसुंधरा राजे के साथ था. उन्होंने कहा, “ वो (वसुंधरा) उस दायरे का विस्तार नहीं कर पाई हैं कि वो अपना दायरा राज्य से बाहर ले जाएं. केंद्रीय स्तर पर उनकी महत्वाकांक्षा ज़रूर है, लेकिन इसके लिए जो कोशिशें करनी चाहिए थीं, वो उन्होंने नहीं की. उनको लगा कि जो उनका राजशाही का करिश्मा है शायद उसी से लाभ मिल जाएगा. एक जन नेता बनने के लिए आपको राजशाही के तौर तरीके छोड़ने पड़ते हैं. आपको अवाम के बीच में आना पड़ता है. उनमें इस चीज़ का अभाव है, जो उन्हें बहुत दूर तक नहीं ले जा पा रहा.”


सत्ता गंवाने के बाद वसुंधरा राजे की लोकप्रियता पर क्या कुछ असर पड़ा है? इसके जवाब में नारायण बारेठ कहते हैं, “बेशक, उनकी लोकप्रियता घटी है कुछ नुकसान तो हुआ है. फिर भी क्योंकि आप जब 10 साल मुख्यमंत्री रहते हैं, तो आप अपने हाथ से बहुत से वर्गों को, व्यक्तियों को, जातीय समूहों को और धार्मिक समूहों को फायदा पहुंचाते हैं. वो आपके पैरोकार बन जाते हैं. वो आपके प्रवक्ता बन जाते हैं.”


अंत में नारायण बारेठ ने कहा कि ये सब चीज़ें लोकप्रियता में मदद करती हैं, जो किसी भी पार्टी के लिए नफा नुकसान में तब्दील हो सकती हैं.