Nagpur News: नागपुर में डॉक्टरों ने एक 13 महीने के बच्चे की 16 घंटे लंबी मैराथन लाइव डोनर लीवर ट्रांसप्लांटेशन सर्जरी कर जान बचाई है. 13 महीने के मोहम्मद अब्बास अली का वजन सिर्फ छह किलो था. बता दें कि बच्चे की मौसी सुल्ताना बेगम ने आर्थिक रूप से कमजोर गैरेज मैकेनिक के इकलौते बेटे को बचाने के लिए अपने ऑर्गन्स का 20-25% हिस्सा दान कर दिया था. वहीं डॉक्टरों के अनुसार, मध्य भारत में एक बच्चे पर की जाने वाली यह अपनी तरह की पहली सर्जरी है.


बच्चा जन्मजात बिलेरी एट्रेसिया से पीड़ित था
टीओआई की रिपोर्ट के मुताबिक जून में की गई सर्जरी के लिए आवश्यक अनुमानित 20 लाख रुपये को क्राउडफंडिंग और एनजीओ सहायता के माध्यम से जमा किया गया था. न्यू एरा अस्पताल में लीवर ट्रांसप्लांट कंसल्टेंट और उन्नत हेपेटोबिलरी सर्जन डॉ राहुल सक्सेना के नेतृत्व में डॉक्टरों की टीम ने बच्चे को बचाने के लिए काफी जद्दोजहद की थी. मासूम जन्मजात बिलेरी एट्रेसिया से पीड़ित था. इस स्थिति में, गॉलब्लैडर कार्य नहीं करता है और बिलरी ट्रैक्ट या तो ब्लॉक हो जाता है या मौजूद नहीं होता है. इसके साथ ही ये बीमारी  डायजेशन को प्रभावित करने वाले लीवर से गॉलब्लैडर तक बाइल के मार्ग को ब्लॉक कर देती है.


डॉक्टरों ने कहा था कि बच्चा 6 महीने से ज्यादा नहीं जी सकता है
बच्चे के पिता अब्दुल शफीक की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि वह उसका इलाज करा सकें. लेकिन वह  दो बेटियों के बाद पैदा हुए अपने बेटे को खोना नहीं चाहता था. डॉक्टरों ने उससे कहा था कि बच्चा छह महीने से ज्यादा नहीं जी पायेगा. इसके बाद अब्दुल अब्बास बच्चे को मुंबई ले गया था, लेकिन वहां के डॉक्टरों ने उसका वजन बहुत कम, कमजोर और मंद विकास के अलावा गहरा पीलिया होने का हवाला देकर उसका ऑपरेशन करने से इनकार कर दिया. अब्दुल अब्बास अब बच्चे को फिर दिल्ली ले जाने का जोखिम नहीं उठा सकता था, लेकिन जब किसी ने उसे उम्मीद दी तो वह उसे न्यू एरा अस्पताल ले गया.


बच्ची की मौसी ने किया था लीवर डोनेट
एनेस्थेटिस्ट डॉ साहिल बंसल और डॉ आयुष्मान जेजानी द्वारा समर्थित डॉ सक्सेना ने कहा कि प्लानिंग, तैयारी और एग्जीक्यूशन में कई बाधाएं थीं. उन्होंने कहा कि बच्चे का पिता एकमात्र घर-परिवार का पोषण करने वाला था इसलिए वह अपना लीवर डोनेट करने का जोखिम नहीं उठा सकता था. वहीं मासूम की मां फैटी लीवर से पीड़ित थी और माता-पिता का ब्लड ग्रुप अलग था.इसके बाद हमें अन्य रिश्तेदारों का टेस्ट करना पड़ा और फिर बच्चे की मौसी ने अपने आर्गन डोनेट किए. ”


लीवर का साइज भी कम करना पड़ा था
डॉ सक्सेना ने आगे कहा कि लीवर का साइज भी कम करना पड़ा था क्योंकि डोनर एक एडल्ट थी और ऑर्गन को एक 13 महीने के बच्चे के एबडॉमिनल कैविटी में एडजस्ट किया जाना था. वहीं लीवर ट्रांसप्लांट एक्सपर्ट ने कहा कि “10 किग्रा से कम के मरीजों पर किसी भी सर्जरी को हाई रिस्क वाला माना जाता है. बच्चे की रक्त वाहिकाओं और वयस्क लीवर ग्राफ्ट के बीच एक हाई साइज का बेमेल था. बच्चे की धमनी, शिराओं और पित्त नलिकाओं का डायामीटर भी बहुत छोटा था और उसके लीवर का वजन 120 ग्राम था. ”


बच्चो को दवा की डोज देना भी चुनौतीपूर्ण था
एनेस्थेटिस्ट डॉ बंसल ने कहा कि सबसे चुनौतीपूर्ण हिस्सा इतने छोटे बच्चे को दवा की खुराक की कैलकुलेशन करना था. उन्होंने कहा कि, “हमें यह सुनिश्चित करना था कि बच्चे को हाइपोथर्मिया या उसके शरीर के तापमान में अचानक गिरावट न आए.  अगली बड़ी चुनौती सम्मिलन में पूर्णता सुनिश्चित करना था जिसमें डक्ट-टू-डक्ट, वेन्स-टू-वेन्स का मिलान किया जा रहा था, ”उन्होंने कहा कि ब्लिडिंग कंट्रोल करना भी बड़ी चुनौती थी.”


पोस्ट-ऑपरेटिव केयर भी काफी जोखिम भरी रही
भूटाडा ने कहा कि ऑपरेशन के बाद के सेशन में गहन चिकित्सक की भूमिका काफी अहम रही ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि जब तक शरीर ग्राफ्ट स्वीकार नहीं करता तब तक महत्वपूर्ण अंगों को बनाए रखा जाए. उन्होंने कहा, "इस मामले में पोस्ट-ऑपरेटिव केयर बेहद मुश्किल थी ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि शरीर द्वारा ग्राफ्ट को रिजेक्ट ना किया जाए."


न्यू एरा अस्पताल के डॉ आनंद संचेती ने कहा कि प्रबंधन ने सुनिश्चित किया कि आर्थिक रूप से कमजोर परिवार को पोस्ट-ऑपरेटिव केयर में भी सपोर्ट दिया जाए और अब तक उनसे कोई पैसा नहीं लिया गया है.


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