वैश्विक अर्थव्यवस्था ने पिछले कुछ सालों के दौरान लगातार चुनौतियों का सामना किया है. पिछले 4-5 सालों की बात करें तो अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध से लेकर कोविड महामारी और अभी रूस-यूक्रेन युद्ध तक, अर्थव्यवस्था के लिए नई-नई मुश्किलें आती रही हैं. इन कारणों से दुनिया भर में गरीबी बढ़ी है और अभी खाद्य महंगाई से कई देशों के सामने खाने-पीने की चीजों का संकट खड़ा हो गया है. ऐसे हालातों में अक्सर एक विमर्श शुरू होता है कि पूंजीवाद की व्यवस्था ने इस तरह की दिक्कतें बढ़ाई हैं और फिर विकल्पों पर बात शुरू होती है.


100 साल से भी ज्यादा पुरानी है बहस


पूंजीवाद बनाम अन्य आर्थिक मॉडलों की बहस आज की नहीं है. यह बहस 100 साल से भी पुरानी है. कार्ल मार्क्स ने पूंजीवादी व्यवस्था का एक विकल्प पेश किया था, जिसे साम्यवादी/मार्क्सवादी व्यवस्था कहते हैं. कई देशों में इस व्यवस्था ने हकीकत का रूप भी लिया, लेकिन फिर अलग तरह की समस्याएं उत्पन्न हो गईं. पूंजीवाद बनाम साम्यवाद की बहस उस समय जोरों पर थी, जब भारत उपनिवेशवाद से आजादी के लिए प्रयासरत था.


पूंजीवाद और मार्क्सवाद का संतुलन


रूस में बोल्शेविक क्रांति के बाद पहली बार किसी देश में मार्क्स के मॉडल को जमीन पर उतारा गया. उसके बाद दुनिया दो स्पष्ट ध्रुवों में बंट गई. एक तरफ अमेरिका की अगुवाई वाले देश, जो पूंजीवाद यानी कैपिटलिज्म के मॉडल को अपना रहे थे. दूसरी तरफ सोवियत संघ की अगुवाई वाले तमाम देश, जहां साम्यवादी व्यवस्था अपनाई जा रही थी. इस बहस के बीच महात्मा गांधी ने एक नायाब आर्थिक मॉडल प्रतिपादित किया, जिसे नाम दिया गया ट्रस्टीशिप यानी न्यासिता.


गांधी ने दिखाया बीच का रास्ता


पूंजीवादी व्यवस्था की आलोचना में सबसे प्रमुख बात ये उभरकर सामने आती है कि इसमें अमीरी और गरीबी की खाई न सिर्फ उत्पन्न होती है, बल्कि गहराती चली जाती है. एक वर्ग के पास पूंजी जमा होने लग जाती है. यानी सरल शब्दों में कहें तो अमीर वर्ग और अमीर होते चला जाता है, जबकि गरीब और भी गरीब बनते जाता है. वहीं साम्यवादी व्यवस्था में सरकार के निरंकुश होने और लोगों के अनुत्पादक हो जाने का खतरा रहता है. गांधी का ट्रस्टीशिप मॉडल यहां बीच का रास्ता देता है.


क्या है ट्रस्टीशिप का आर्थिक मॉडल


गांधी का यह मॉडल क्या है और कैसे काम करता है, अब इसे समझते हैं. ट्रस्टीशिप बना ट्रस्ट से. आपने भी कई ट्रस्ट को संचालित होते देखा होगा. धर्मार्थ/परमार्थ यानी सामाजिक कार्यों में कई ट्रस्ट सक्रिय दिख जाते हैं. ट्रस्ट के काम करने का तरीका होता है कि इसमें एक तरफ ट्रस्टी होते हैं, जो पैसे लगाते हैं और दूसरी ओर लाभार्थी होते हैं, जिनके ऊपर पैसे खर्च किए जाते हैं. यह स्वेच्छा से चलने वाले मॉडल पर आधारित हैं. जो ट्रस्टी हैं, उनके ऊपर पैसे खर्च करने का कोई दबाव नहीं है. वे खुशी-खुशी ऐसा करते हैं. मार्क्सवादी मॉडल यहां जबरदस्ती करने और छीनने की पैरवी करता है.


कैसे काम करता है गांधी का ये मॉडल


गांधी का मॉडल ठीक ऐसा ही है. गांधी कहते हैं कि समाज के अमीर वर्ग खुद को पूरे समाज का ट्रस्टी समझें और अपने से कमतर लोगों के कल्याण के लिए काम करें. इसे गांधी ऐसे समझाते हैं- मान लीजिए कि मुझे विरासत में या व्यापार से बड़ी संपत्ति मिलती है. ऐसे में मुझे ये समझना चाहिए कि मेरे पास आई संपत्ति मेरी नहीं है. उस संपत्ति में मेरा हिस्सा उतने पर ही है, जो लाखों अन्य लोगों की तरह सम्माजनक जिंदगी जीने के लिए जरूरी है. उसके बाद जो संपत्ति बचती है, उसे निश्चित तौर पर समाज के कल्याण के लिए खर्च किया जाना चाहिए. गांधी ने बाद में अपने इस आर्थिक दर्शन को विस्तार दिया और अभी भी उसके बारे में वाद-विवाद का क्रम जारी ही है.


टाटा ने अपनाया गांधी का मॉडल


अब गांधी के इस आर्थिक मॉडल के असर की बात करें तो यह सच है कि ट्रस्टीशिप को पूंजीवाद या साम्यवाद की तुलना में बहुत कम स्वीकारा गया. किसी भी देश ने अब तक गांधी के मॉडल पर अमल नहीं किया है. साथ ही ये भी सच है कि गांधी का यह सिद्धांत सिर्फ किताबों या बातों तक सीमित नहीं रहा. भारत के सबसे पुराने और सबसे प्रतिष्ठित कारोबारी घरानों में गिने जाने वाले टाटा समूह के बिजनेस मॉडल पर गांधी के दर्शन का गहरा असर है. इसी कारण टाटा समूह के फाउंडिंग फादर्स ने पूरे कारोबारी साम्राज्य के केंद्र में ट्रस्ट को जगह दी. आज भी टाटा समूह का पूरा काम ट्रस्टों के इर्द-गिर्द ही चल रहा है. गांधी के दर्शन से ही प्रभावित होकर टाटा समूह ने इस बात को मूलमंत्र बना लिया कि किसी कारखाने से हो रही कमाई को वहां के स्थानीय समुदायों के कल्याण पर खर्च करना जरूरी है.


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