यह कहना जल्दबाजी होगी कि पश्चिम बंगाल में पराजय से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि को धक्का पहुंचा है और कोरोना काल में फैली अव्यवस्था के कारण अंतरराष्ट्रीय मीडिया में उनकी चमक धुंधली पड़ी है. मगर एक प्रमुख निष्कर्ष यह है कि येन-केन-प्रकारेण हर चुनाव जीतने में प्रवीण ‘महारथी’ की मोदी की छवि इस बार ध्वस्त हो गई.


भारतीय चुनाव कभी सुखदायी मुद्दा नहीं रहे. खास तौर पर बीते एक दशक में तो कतई नहीं. इन गुजरे वर्षों में राज्यों के चुनाव भी इतने विशाल और भव्य तामझाम के साथ लड़े गए कि उनके आगे दुनिया के कई देशों के राष्ट्रीय आम चुनाव तक फीके पड़ जाएं. हाल में संपन्न हुए पश्चिम बंगाल विधान सभा चुनावों में जिस तरह से राजनीतिक दलों और उनके समर्थकों ने साम-दाम-दंड-भेद का इस्तेमाल किया, उसकी गिनती इतिहास के सबसे तीखे-कड़वाहट भरे चुनावों में होगी. यह चुनाव बीजेपी के पतनोन्मुख आचरण का भी साफ संकेत देते हैं कि यह पार्टी चुनाव जीतने के लिए कैसे चुनाव आयोग जैसी संस्था तक का निर्लज्ज इस्तेमाल कर सकती है.


इस पराजय से बीजेपी और खास तौर पर उसके दो दिग्गज कर्णधारों, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह पर पड़ने वाले प्रभावों का आकलन करने से पहले कुछ संभावित आपत्तियों पर गौर करना जरूरी है. 77 सीटें और 38.1 फीसदी वोट पर गर्व करने वाली बीजेपी की पराजय के बावजूद कई लोग यह स्वीकार करने को तैयार नहीं कि यह बीते सात वर्षों में बीजेपी की सबसे बड़ी हार है. वास्तव में यहां सबसे महत्वपूर्ण बात है, कांग्रेस की इन चुनावों में स्थिति. जिसने पश्चिम बंगाल समेत केरल, पुडुचेरी, तमिलनाडु और असम में चुनाव लड़ा और यह साफ हो गया कि अब वह दयनीय अवस्था में पहुंच गई है. इसी तरह कोई साधारण व्यक्ति तक सहज ही बता सकता है कि सीपीएम के प्राण हलक में आ चुके हैं. जबकि कुछ समय पहले तक वह पश्चिम बंगाल की राजनीति को नियंत्रित करती थी.


लेफ्ट-कांग्रेस गठबंधन इस राज्य में एक भी सीट जीतने में कामयाब नहीं रहा. वहीं 2016 की विधानसभा में लेफ्ट ने 76 सीटों पर जीत हासिल की थी. ऐसे में बीजेपी का बचाव करने वाले कह सकते हैं कि वर्तमान पराजय ‘हल्का धक्का’ मात्र है. पार्टी का 2016 में जो वोट शेयर 10.2 फीसदी था, वह 2021 में बढ़ कर 38.1 फीसदी हो गया है. बीजेपी ने लगभग सभी सीटें लेफ्ट और कांग्रेस को दरकिनार करके हासिल की हैं.


यह वास्तविक हकीकत से बिल्कुल अलग तस्वीर है. पिछले आंकड़े असल में 2016 के नहीं बल्कि 2019 के देखे जाने चाहिए. जब 2019 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी ने यहां 40.2 फीसदी वोट हासिल किए थे. आंकड़ों के बाजीगर बता सकते हैं कि सांख्यिकी में दो फीसदी वोट प्रतिशत का कितना बड़ा महत्व होता है. सच्चाई यह है कि गैर-द्रविड़ आर्यावर्त के इस अंग यानी पश्चिम बंगाल पर मोदी और शाह लंबे समय से नजरें जमाए बैठे थे और वह उनके शिकंजे में आते-आते छिटक गया. दूसरी तरफ उन्हें दक्षिण के तमिलनाडु और केरल में निराशा ही हाथ लगी क्योंकि वहां कभी उनकी दाल नहीं गली है.


असल में पीए मोदी ने बंगाल जीतने के लिए जी-जान लगा दी और रणनीतिक रूप से वहां के लोगों को यही संदेश दिया कि इस चुनाव के माध्यम से असल में वह उन (मोदी) पर फैसला देंगे. कुछ ही दिन पहले एक विशाल रैली को संबोधित करते हुए मोदी ने अपने करिश्माई ठाठ से घोषणा की थी कि उन्हें अपने सामने सिर्फ विशाल जन-सागर दिख रहा है. उन्होंने इससे पहले अपनी किसी चुनावी रैली में इतनी भीड़ नहीं देखी. लेकिन उनके चारों तरफ जब हजारों लोग सरकार की दृढ़इच्छा शक्ति के अभाव में कोरोना से दम तोड़ रहे थे, तो रैली की इस बात से मोदी को जग-हंसाई ही मिली. दूसरी तरफ ऐसे ही माहौल में उनके मुख्य सहायक अमित शाह भविष्यवाणी कर रहे थे कि बीजेपी 200 सीटें जीतेगी.


यह साधारण पराजय नहीं है. इसके कई मायने हैं. यह बीजेपी की हार और मोदी के विशुद्ध अपमान से कहीं अधिक है. सैद्धांतिक रूप से चुनाव आयोग भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था की रक्षा के लिए है और इसलिए सम्माननीय है, मगर मोदी ने उसे अपना पिछलग्गु बना लिया. पहली कलाकारी यह की गई कि पश्चिम बंगाल के चुनाव पांच लंबे हफ्तों में आठ चरणों में तय किए गए. यह अपने आप में अभूतपूर्व था. देश के आम चुनाव में इतना समय लेना संभव है और यह बात प्रमाणित करती है कि मोदी ने इन चुनावों को लोकसभा चुनावों की तरह अहम माना. इसके पीछे इरादा यही था कि बीजेपी इस लंबी चुनाव अवधि में अधिक से अधिक धन झोंकेगी और अपनी भारी-भरकम मशीनरी का इस्तेमाल करेगी, जिसका एकमात्र लक्ष्य चुनाव जीतने के अलावा कुछ नहीं है. इस तरह उसे तृणमूल और अन्य विपक्षी दलों के विरुद्ध बढ़त मिल जाएगी.


बावजूद इन बातों के बीजेपी और मोदी हार गए. तमाम केंद्रीय एजेंसियां मोदी की जेब में थीं और उनका इस्तेमाल भी किया गया. दशकों पुराने भ्रष्टाचार के मामलों में टीएमसी के नेताओं को पूछताछ के लिए बुलाया गया. कई तृणमूल नेताओं को सचमुच खरीदा गया और उनका इस्तेमाल अधिक से अधिक लोगों को बीजेपी में हांकने के लिए किया गया. तब भी बीजेपी और मोदी पराजित हो गए. ऐसा नहीं कि बीजेपी देश में सांप्रदायिक पत्ते खेलने वाली पहली पार्टी है, लेकिन मोदी और शाह ने प्रतिहिंसा की भावना से सांप्रदायिक पत्ते खेले. उन्होंने मुस्लिमों की खुलेआम अवमाना की और हिंदू गौरव पुनः जागृत करने के नाम पर हिंदुओं को उकसाया. चुनाव आयोग नेताओं को सांप्रदायिक भावनाओं से खिलवाड़ न करने की सलाह देता रहा परंतु कोई ठोस कदम नहीं उठाया. इन तमाम बातों के बाद भी बीजेपी और मोदी परास्त हो गए.


इसमें संदेह नहीं कि आने वाले दिनों में टीवी चैनलों, समाचार पत्रों और सोशल मीडिया में इन चुनावों का पूरा पोस्टमार्टम होगा. राजनीतिक पंडित और चुनाव विश्लेषक भारतीय राजनीति में सत्ता विरोधी लहर (एंटी-इनकंबेंसी) को लंबे समय से स्थापित करते हुए, इसे भारतीय राजनीति का प्रमुख लक्षण बताते रहे हैं लेकिन पश्चिम बंगाल और केरल के नतीजों ने ऐसी भविष्यवाणियों और समाज विज्ञान के इस पांडित्य को निरर्थक साबित कर दिया. इस चुनाव में कई सारी ‘गंदी बात’ थीं. बीजेपी ने सांप्रदायिक भावनाओं को बेशर्मी से इस्तेमाल करते हुए जन भावनाओं को उद्वेलित करने की कोशिश की, चुनावों में बेहिसाब पैसा फूंका गया, सोशल मीडिया पर बीजेपी ने अपनी ताकत और बढ़ाते हुए ऐसे ट्रोल्स को बैठाया जो लोगों में लगातार खौफ पैदा करते हुए लगातार उनका पीछा करते रहे और सबसे बुरा यह कि यह सब ऐसे दौर में होता रहा, जब देश में एक दैत्याकार महामारी की वजह से हजारों जानें जा रही थीं. एक प्रमुख निष्कर्ष यह भी निकला कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की येन-केन-प्रकारेण हर चुनाव जीतने में प्रवीण ‘महारथी’ की छवि इस बार ध्वस्त हो गई.


प्राचीन आर्यावर्त में सत्ता-नरेश अश्वमेध यज्ञ करते हुए अपने घोड़े को किसी भी राज्य या राष्ट्र की सीमा में प्रवेश करने के लिए आजाद कर देते थे. नरेंद मोदी ने ऐसा तो नहीं किया मगर उन्होंने कोविड को देश में खुला छोड़ दिया और कोविड ने हजारों जानें ले लीं ताकि वह और अमित शाह अपने रोड शो कर सकें. वैसे खास बात यह है कि अब भी यह कहना जल्दबाजी होगी कि बंगाल में मिली पराजय से उनकी छवि को धक्का पहुंचा है और कोरोना काल में फैली अव्यवस्था के कारण अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में उनकी चमक धुंधली पड़ी है. अपनी जीत के बाद ममता बनर्जी ने घोषणा की कि ‘बंगाल ने भारत को बचा लिया है.’ मगर ममता की यह बात क्षणिक उल्लासपूर्ण बयानबाजी से अधिक कुछ नहीं है. इसे गंभीरता से लेना गलती होगी.


एक बात साफ कहना जरूरी है कि तृणमूल कांग्रेस कोई बीजेपी से अधिक सिद्धांतवादी नहीं है. बंगाल में भले ही ‘दीदी’ की उपासना होती हो मगर शेष-भारत के लिए यही सुझाव है कि चुनाव के इन नतीजों को ममता के उद्भव की तरह देखने बजाय केवल मोदी-बीजेपी की पराजय और विभाजनकारी राजनीति की हार के रूप में देखे. मोदी निश्चित रूप से इसे गुजरे हुए कल के रूप में देखने का प्रयास करेंगे और उनके समर्थक अपने पुराने अंदाज को बरकरार रखते हुए देश को याद दिलाते रहेंगे कि उन्होंने सिर्फ एक लड़ाई हारी है और वह युद्ध को जीतने के लिए कटिबद्ध हैं. इस कड़वी सच्चाई से मुंह नहीं फेरा जा सकता कि देश को नई राजनीतिक कल्पनाशीलता की जरूरत है, जो इसे अधर्म और असत्य के वर्तमान जंजाल से बाहर निकाल सके. पश्चिम बंगाल के चुनावी नतीजे देश के हालिया अंधकारपूर्ण दौर में उम्मीद की किरणों जैसे हैं, जो बताते हैं कि आगे शायद ‘बेहतर दिन’ हैं.


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)