लोकसभा चुनाव के पहले चरण का मतदान कल यानी 19 अप्रैल को हो चुका है. हालाँकि मतदान के कम प्रतिशत से सभी दलों की भौंहों पर बल पड़ गए हैं. इस बीच एक बार फिर समान नागरिक संहिता यानी यूसीसी का मसला गरम हो गया है. केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने एक बातचीत में कहा कि यूसीसी किसी भी प्रजातांत्रिक देश की पहली पहचान है और भारत शरिया या पर्सनल लॉ से नहीं चलेगा. विरोधी जहां इसे भाजपा की ध्रुवीकरण करने की कोशिशों का नतीजा मान रहे हैं, वहीं भाजपा नेता कहते हैं कि वे तो अपने कोर एजेंडे की बात कर रहे हैं, उससे कहीं भटके नहीं हैं. 


भाजपा का कोर मुद्दा यूसीसी


भारतीय जनता पार्टी ने अपने कोर मुद्दों पर दो कार्यकाल में कार्रवाई की है. पहला, राम मंदिर बन गया है. अनुच्छेद 370 जो कश्मीर को विशेष प्रावधान देने वाला था, उसका एक तरह से अपने वादे के मुताबिक हल कर दिया है. उसके कोर मुद्दों में अब एक ही मसला, समान नागरिक संहिता यानी यूसीसी बचा हुआ है. उस मुख्य मुद्दे पर तो भाजपा को अपने काडर वोटर्स को समझाना ही पड़ेगा. बीच चुनाव है. उसमें तो अपने वोटर्स को संदेश देना ही पड़ेगा कि वह आगे क्या-क्या करनेवाले हैं? अगर तीसरा कार्यकाल उसे मिलता है, जिसकी संभावना अभी बहुत अधिक है, तो वह इस मसले को भी सुलझा देगी. यह केवल एक चुनावी गिमिक नहीं है, बल्कि अमित शाह का बयान एक तरह से भाजपा की सैद्धांतिकी को वोटर्स के बीच ले जाना और मतदाताओं को आश्वस्त करना है कि वे भाजपा को तीसरा मौका दें और भाजपा इसे भी सुलझा देगी. चुनाव अभियान के बीच अगर वह ऐसा नहीं कहेंगे तो आखिर कब कहेंगे? अतीत में हम देख चुके हैं कि जब अटलजी की सरकार थी, जब वह गठबंधन की सरकार चला रहे थे, तो इन तीनों ही मुद्दों को किनारे रख दिया गया था, क्योंकि गठबंधन की मजबूरी थी. हालांकि, भाजपा का तो काडर वोटर हमेशा से ही यह चाहता था-जनसंघ के जमाने से ही-कि ये जो मुख्य मुद्दे थे, उनको मुख्यधारा में लाया जाए, उन पर बात हो, उनको पूरा किया जाए. अब वोटर चूंकि पिछले दो चुनाव से सधे ही हुए हैं, भाजपा को अपने दम पर पूर्ण बहुमत मिला है, तो बस सैचुरेशन-पॉइंट न आए, एक राजनीतिक दल के हिसाब से ही भारतीय जनता पार्टी ने अपने कोर वोट बैंक को अपने कोर इशू के जरिए साधने की कोशिश की है. 


लहर या ध्रुवीकरण की कोशिश 


भाजपा अपने मुख्य मुद्दों पर तो बनी ही हुई है. अब वे राम मंदिर पर क्या बोलेंगे, अनुच्छेद 370 पर क्या वादा करेंगे? तो, तीसरा जो बचा हुआ मुद्दा था, उस पर लौटना ही था. आज के राजनीतिक दलों की मुख्य बात तो सत्ता पाने की लालसा है ही. आज के दौर में तो राजनीति सत्ता हासिल कर सत्ता के जरिए सेवा करने का जरिया है. इसलिए, उन मुद्दों पर तो राजनीतिक दल आते ही हैं, जिनसे वह शुरुआत करती है. भाजपा में वैसे भी हार्डकोर नेता की छवि अमित शाह की है. उनसे आप किसी नरम मुद्दे की बात नहीं कर सकते हैं. जहां तक ध्रुवीकरण की बात है, तो पिछले दो चुनावों की तरह इस बार तो नहीं दिख रहा है. यह भी सच है कि जमीन पर मतदाता उस तरह से मुखर नहीं हैं. इसका एक कारण यह है कि 2004 से 2014 तक जो तत्कालीनी यूपीए सरकारें थीं, उन पर भ्रष्टाचार के बड़े आरोप लगे थे, वे साबित भी हो रहे थे, कोर्ट भी लगातार हमलावार था. जनता के मन में बदलाव की आकांक्षा थी और उस बदलाव के वाहक बनकर नरेंद्र मोदी उभरे थे, तो जनता भी काफी मुखर थी. 2019 तक भाजपा का कोई भी कोर ईशू सुलझा नहीं था, हालांकि नरेंद्र मोदी को लेकर एक धारणा यह भी बन रही थी कि ये बाकी दलों के नेता से अलग हैं और इनको एक मौका और देना चाहिए. जनता की मुखरता इसीलिए नजर आ रही थी. अब 10 वर्षों में यह विकसित हो चुकी है कि भारतीय जनमानस के बड़े हिस्से ने मान लिया है कि नरेंद्र मोदी के हाथ में बाकी नेताओं की तुलना में स्थितियां ठीक हैं, देश का मतदाता एक आश्वस्ति-बोध में है और वह एक तरह से आलस्य की ओर भी ले जाता है. मतदाता का वही आलस्य बोध उसकी चुप्पी के कारण के मूल में है. हालांकि, हरेक राजनीतिक दल अपना दांव चल ही रहा है. समान नागरिक संहिता पर कांग्रेस भले नहीं बोली है, लेकिन वह यह तो कह ही रही है कि पर्सनल लॉ का अधिकार अल्पसंख्यकों को रहेगा. ममता बनर्जी ने खुलकर बोल ही दिया है कि वह सीएए को खत्म कर देंगी, भले ही उनकी सरकार बनने की संभावना नहीं है. तो, ध्रुवीकरण की कोशिश तो सारे दल कर ही रहे हैं. भाजपा ने भी कोई संन्यास तो लिया हुआ नहीं है. 


कम मतदान से भाजपा को खतरा


वोटिंग के कम होने का एक दूसरा आयाम भी है. बिहार विधानसभा चुनाव 2010 से पहले यह माना जाता था कि मतदान अगर पहले की तुलना में बहुत अधिक होता है, तो इसका मतलब बदलाव की वोटिंग होती है, लेकिन 2010 के मतदान ने साबित किया कि नहीं, यह यथास्थिति बनाए रखने की भी वोटिंग होती है. आप देखेंगे कि यह केवल बिहार चुनाव में नहीं हुआ, बल्कि कई चुनाव में हुआ. मध्य प्रदेश में अभी जो विधानसभा चुनाव हुए, उसमें भी बहुत जमकर मतदान हुआ और भाजपा की सरकार झूमकर आयी. तो, अभी सारे राजनीतिक दल अपना दावा कर रहे हैं, लेकिन हां अभी के मतदाताओं को किसी एक फॉर्मूले में बांधना ठीक नहीं है. राजनीतिक दल अपने हिसाब से व्याख्या करते हैं, लेकिन जमीन पर मसला कुछ और होता है और इसीलिए पहले दौर के मतदान के बाद अभी कुछ साफ तौर पर कहना ठीक नहीं होगा. भारत विविधताओं का देश है, मतदाताओं के पास लगातार तमाम तरह की सूचनाएं हो रही हैं और वह लेयर्स में सूचना पाता है और रिएक्ट भी करता है. अभी किसको फायदा होगा औऱ किसको घाटा होगा, यह कहना थोड़ी जल्दबाजी होगी. 


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