तमिलनाडु के राज्यपाल रविन्द्र नारायण रवि ने विधान सभा के संबोधन में राज्य मंत्रिमंडल द्वारा भाषण में संसोधन कर अपने शब्दों को जोड़कर अपनी बातें विधानसभा को बताई. क्या तमिलनाडु के राज्यपाल सही है?  


संविधान के हिसाब से वे गलत तो नहीं है. परंपरा अलग रही है. सविंधान  176 अनुच्छेद के अनुसार उन्होंने जो किया उसे गलत नहीं कहा जा सकता है. अनुच्छेद 176 कहता है कि चुनाव के बाद के विधान सभा या विधान मंडल का प्रथम सत्र या वर्ष के प्रथम सत्र राज्यपाल के संबोधन से शुरू होगा. 


इसमें यह कही नहीं कहा गया है कि उनका भाषण राज्य मंत्रिमंडल उन्हें देगा और उन्हें वही पाठ करना है. इस प्रकार राज्यपाल रवि गलत तो नही है. परम्परा निश्चित रूप से अलग है. राज्य मंत्रिमंडल द्वारा प्रस्तुत भाषण ही सामान्य रूप से राज्यपाल संबोधित करते  आ रहें है. फिर विवाद क्यों? 


विवाद राजनीतिक है, परम्परा से हटने की वजह से है. संविधान में बहुत सी बातें नहीं लिखी होती पर सामान्य परंपराओं का पालन होता रहता है. इंग्लैंड में लिखित संविधान नहीं है पर अलिखित परम्पराओं का पालन होता है. यही सामान्य जनतांत्रिक प्रक्रिया माना जाता है. तो क्या राज्यपाल ने कुछ अपवाद किया? माना यही जा रहा है. और बहुतों का कहना है की उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था.


यहीं राजनीतिक संघर्ष की शुरुआत होती है. राज्यपाल केंद्र सरकार के प्रतिनिधि होते है. उन्हें राज्य के साथ सामंजस्य रख कर चलना होता है. दशकों से यह समस्या देखी जा रही है. जब कांग्रेस केंद्र की सत्ता में रही है तब भी अनेक अपवाद हुए और राज्यपालों के व्यवहार विवादस्पद रहें है. विरोधी दल इस पर चिंता जताते रहें है. पर सत्ता में आते ही वे भी वैसा ही करते देखे गए. यह भारतीय राजनीति की एक बड़ी कमी रही है. इसका सबसे विकट रूप 1977 में और 1980 में देखने को मिला. 1977 में जनता पार्टी की नई सरकार ने सात राज्यों में कांग्रेस के सरकारें बर्ख्वास्त कर दी. 1980 में कांग्रेस केंद्र में सत्ता आने के बाद नौ राज्यों में विरोधी दलों की सरकारों के साथ वैसा ही किया. इस पर बोम्मई केस के सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद ही विराम लग पाया. पर राज्यपाल के व्यवहार अनियंत्रित ही रहे है. और कई राज्यों में देखने को मिला कि राज्यपाल सतत राज्य की सरकारों से संघर्षरत रहें. पुदुचेरी के उप राज्यपाल किरण बेदी ने तो कांग्रेस के मुख्यमंत्री का जीना ही दूभर कर दिया था. उनके अनुमोदन अस्वीकार करना एक सामान्य प्रक्रिया रही. 


लंबे समय तक हमने पश्चिम बंगाल में राज्यपाल और निर्वाचित सरकार के बीच टकराव देखा तो केरल भी बीच-बीच में इसी वजह से सुर्खियों में रहा. केंद्र शासित क्षेत्र दिल्ली में तो सरकार और उप-राज्यपाल के बीच टकराव स्थायी भाव बन चुका है. पश्चिम बंगाल में यह संघर्ष 1969 में जब धर्मवीर राज्यपाल थे तब निरंतर देखा गया. केंद्र और राज्यों में सत्तारूढ़ दलों के राजनीतिक हित न सिर्फ अलग-अलग, बल्कि अक्सर परस्पर विरोधी भी होते हैं. फिर भी तमिलनाडु का मामला कुछ हटकर ही है.


राज्यपाल रवि बिहार से है और केरल में आई पी एस अफसर रहे रहें है. उनकों निश्चित रूप से पुलिसिया तरीके से काम नहीं करना चाहिए. उनका काम सामंजस्य स्थापन करना ही है. पर ऐसा नहीं हो रहा है क्योंकि तमिलनाडु चुनाव की ओर बढ़ रहा है. केंद्र की सरकार उन्हें ऐसा करने को तो नहीं कह रही होगी पर शायद बंगाल के राज्यपाल का जिस तरह प्रोन्नति हुई, हो सकता है वे भी  यह चाहते हों. मुख्यमंत्री ने सदन में मूल भाषण जो राज्यपाल को भेजा गया एक प्रस्ताव पारित कर उसे ही दर्ज करवाया. यह भी एक नई प्रक्रिया है. उन्हें जो निमंत्रण पोंगल के लिए भेजा गया उस पर भी डी एम के और ए आई डी एम् के बीच अलग विचार दिखते है.


कुछ भी है परंपरा लेकिन संविधान के बीच सामंजस्य स्थापित होना जरूरी है. केंद्र और राज्यों में अलग दलों की सरकारें रहेंगी. सभी राज्य और देशहित में काम करते है. राजनितिक विरोध के बावजूद उनको साथ काम करने की आदत बनानी होगी और देश को सुचारू रूप से चलाना होगा. इस विषय पर एक राजनीतिक सोच बनाने की जरूरत. संविधान और परम्पराएं जनतंत्र में एक दूसरे के परिपूरक हैं. इसे सामान्य प्रक्रिया बनाने की जरूरत है.


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