देश के इतिहास में शायद ऐसा पहली बार हुआ है कि एक पूर्व सेनाध्यक्ष व देश के पहले चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल बिपिन रावत को मरणोपरांत दूसरे बड़े नागरिक सम्मान यानी पद्म विभूषण देने का ऐलान किया गया है.सैन्य बलों में अपनी विशिष्ट सेवाएं देने या शौर्य का प्रदर्शन करने वाले सैनिकों को अब तक परमवीर चक्र,अशोक चक्र या महावीर चक्र जैसे सम्मान से नवाजने की ही परंपरा रही है,इसलिये उन्हें कभी नागरिक सम्मान प्रदान नहीं किया गया.लेकिन गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर पद्म पुरस्कारों के नामों की घोषणा करने के साथ ही मोदी सरकार ने उस परंपरा को तो तोड़ा ही,साथ ही विपक्षी दलों के दो प्रमुख नेताओं को तीसरे बड़े नागरिक सम्मान पद्मभूषण देने का फैसला लेकर सियासत की एक नई इबारत लिखने भी कोशिश कर डाली.


हालांकि पुरस्कारों के नामों का ऐलान होने के तुरंत बाद ही मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के वरिष्ठ नेता और पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने पद्म भूषण सम्मान लेने से किया इंकार कर दिया है.उन्होंने कहा है कि "अगर मुझे पद्म भूषण सम्मान दिया जा रहा है,तो मैं इसे अस्वीकार कर रहा हूं."सियासी तौर पर देखें,तो भट्टाचार्य का ये इनकार केंद्र सरकार के लिये थोड़ा शर्मिंदगी झेलने वाला फैसला ही समझा जाएगा.


वैसे भी पद्म पुरस्कारों का इतिहास रहा है कि इसकी चयन -प्रक्रिया को लेकर अक्सर पिछली सरकारों पर ये सवाल उठते रहे हैं कि इसे देने में भाई-भतीजावाद या अपनी पार्टी की विचारधारा से जुड़े लोगों को ही महत्व दिया जाता रहा है. लेकिन 2014 में सत्ता में आने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस परिपाटी को न सिर्फ बदला, बल्कि उनकी सरकार ने ऐसे गुमनाम लोगों को तलाशा, जो अपने-अपने क्षेत्रों में पिछले कई सालों से निस्वार्थ भाव से काम कर रहे थे.बीते कुछ सालों में ऐसे कई लोगों को ये सम्मान देकर उन्हें राष्ट्र के गौरव के असली प्रतीक के रुप में पहचान दी गई और मोदी सरकार के इस अकल्पनीय फैसले की चौतरफा तारीफ भी हुई.


पर,इस बार पुरुस्कारों का ऐलान होते ही इस पर विवादों के बादल मंडराने लगे हैं.सिर्फ भट्टाचार्य के इनकार से ही नहीं,बल्कि सवाल ये भी उठ रहा है कि  कांग्रेस के कद्दावर नेता गुलाम नबी आजाद को पद्मभूषण देने के पीछे आखिर कौन-सी सियासत है.हालांकि ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि सत्ता में बैठी पार्टी की विचारधारा के धुर विरोधी विपक्ष के एक नेता को ये सम्मान दिया जा रहा हो.इससे पहले अटल बिहारी वाजपेयी को साल 1992 में पद्मविभूषण से नवाजा गया था,तब केंद्र में प्रधानमंत्री नरसिंह राव के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार थी.


बेशक गुलाम नबी आजाद जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री रहे हैं और उन्होंने अपने कार्यकाल में आतंकवाद की मार झेल रहे उस सूबे में शांति बहाली के तमाम प्रयास भी किये हैं.लेकिन बावजूद इसके उनके नाम का ऐलान होते ही सियासी गलियारों में जो फुसफुसाहट हो रही है,उसकी वजह भी है.चूंकि वे कांग्रेस के उस ग्रुप-23 के नेताओं में शुमार है,जिन्होंने पार्टी में नेतृत्व परिवर्तन की पहली आवाज़ उठाई थी.हालांकि उन्होंने अभी तक बगावत नहीं की है और वे फिलहाल तो कांग्रेस में ही हैं लेकिन ये तो गांधी परिवार भी नहीं जानता कि वे अगले कितने दिनों तक पार्टी के साथ रहेंगे.


इसलिये कांग्रेस खेमे के नेताओं को लगता है कि वे जम्मू-कश्मीर में तीसरी ताकत बनने के लिए अपनी अलग पार्टी बनाना चाहते हैं,इसलिये पिछले साल भर से वे पीएम मोदी से अपनी पींगे बढ़ा रहे हैं.हालांकि राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि अगर बीजेपी वहां आज़ाद को तीसरी ताकत में उभरने के लिए मदद करती है,तो सियासी तौर पर ये बिल्कुल सही रणनीति होगी क्योंकि कश्मीर घाटी में बीजेपी का कोई प्रभाव नहीं है और वह दो परिवारों-फारूक अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती के राजनीतिक साये से घाटी को पूरी तरह से आज़ाद करना चाहती है.लिहाज़ा,वहां गुलाम नबी से बेहतर विकल्प बीजेपी के लिए और कौन हो सकता है.


लेकिन पीएम मोदी और आज़ाद की केमिस्ट्री को समझने के लिए हमें तकरीबन साल भर पीछे जाना होगा,जब गुलाम नबी राज्यसभा का अपना कार्यकाल पूरा करके रिटायर हो रहे थे.राज्यसभा के इतिहास में वो पहला ऐसा अवसर था,जब सदन में एक प्रधानमंत्री विपक्ष के नेता की तारीफ करते हुए इतने भावुक हो उठे हों कि उनकी आंखों से आंसू छलक पड़े. पिछले साल 9 फरवरी को राज्यसभा के चार सदस्य रिटायर हुए थे,जिनमें से एक सदन में विपक्ष के नेता गुलाम नबी आज़ाद भी थे.आजाद की विदाई पर पीएम मोदी ने अपने भाषण में एक आतंकी घटना का जिक्र करते हुए आज़ाद की तारीफ में जो कुछ कहा था,वह देश को ये समझने के लिए पर्याप्त है कि मोदी सरकार न उन्हें पद्मभूषण देने का फैसला आखिर क्यों लिया.


तब गुलाम नबी की तारीफ करते हुए प्रधानमंत्री ने जो कहा था,वह यहां हूबहू प्रस्तुत है- "गुलाम नबी जी जब मुख्यमंत्री थे, तो मैं भी एक राज्य का मुख्यमंत्री था. हमारी बहुत गहरी निकटता रही.एक बार गुजरात के कुछ यात्रियों पर आतंकवादियों ने हमला कर दिया, 8 लोग उसमें मारे गए.सबसे पहले गुलाम नबी जी का मुझे फोन आया.उनके आंसू रुक नहीं रहे थे. गुलाम नबी जी लगातार इस घटना की निगरानी कर रहे थे.वे उन्हें लेकर इस तरह से चिंतित थे जैसे वे उनके परिवार के सदस्य हों.मैं श्री आजाद के प्रयासों और श्री प्रणब मुखर्जी के प्रयासों को कभी नहीं भूलूंगा.उस समय प्रणब मुखर्जी जी रक्षा मंत्री थे. मैंने उनसे कहा कि अगर मृतक शवों को लाने के लिए सेना का हवाई जहाज मिल जाए तो उन्होंने कहा कि चिंता मत करिए मैं करता हूं व्यवस्था. वहीं गुलाम नबी जी उस रात को एयरपोर्ट पर थे."


लेकिन बात यहीं खत्म नहीं हुई.प्रधानमंत्री मोदी गुलाम नबी आजाद के योगदान का जिक्र करते हुए इतने भावुक हो गए थे कि वे बोलते-बोलते ही रुक गए.उन्होंने अपने आंसू पोछे. फिर टेबल पर रखे गिलास से पानी पिया और कहा सॉरी.उसके बाद उन्होंने फिर अपना संबोधन शुरू किया और कहा कि 'पद आते हैं, उच्च पद आते हैं, सत्ता आती है और इन्हें किस तरह से संभालना है, यह गुलाम नबी आजाद जी से सीखना चाहिए. मैं उन्हें सदा सच्चा दोस्त समझूंगा. प्रधानमंत्री ने कहा कि उनके एक जुनून के बारे में बहुत से लोग नहीं जानते हैं, वो है बागवानी. वो यहां के घर में बगीचे को संभालते हैं, जो कश्मीर की याद दिलाता है. मुझे चिंता इस बात की है कि गुलाम नबी जी के बाद जो भी इस पद को संभालेंगे, उनको गुलाम नबी जी से मैच करने में बहुत दिक्कत पड़ेगी क्योंकि गुलाम नबी जी अपने दल की चिंता करते थे, लेकिन देश और सदन की भी उतनी ही चिंता करते थे. श्री गुलाम नबी आजाद ने सांसद और विपक्ष के नेता के रूप में बहुत उच्च मानक स्थापित किए हैं. उनका काम सांसदों की आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करेगा.मैं अपने अनुभवों और स्थितियों के आधार पर गुलाम नबी आजाद जी का सम्मान करता हूं." देश के प्रधानमंत्री जिस शख्स की तारीफ में इतने कसीदे पढ़ रहे हों, तो क्या वह नागरिक सम्मान पाने का हकदार नहीं हो सकता? यह आप ही तय कीजिये.


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