पटना हाईकोर्ट ने नीतीश सरकार को बड़ी राहत दी है. कोर्ट ने जातिगत सर्वे पर लगी अंतरिम रोक को हटा दिया है और बिहार सरकार को सर्वे पूरा करने की छूट मिल गयी है. हालांकि, बिहार सरकार की मानें तो जब रोक लगी, तब तक सर्वे का 80 फीसदी काम पूरा हो चुका था. इस मामले में कानूनी नुक्ता यहीं फंसा था कि सेंसस यानी जनगणना केंद्र सरकार का अधिकार है, और जातीय जनगणना केवल केंद्र करवा सकता है. बिहार सरकार ने कोर्ट में भी यह माना है कि वह सेंसस नहीं, बल्कि सर्वे करवाना चाह रही है. बिहार सरकार की यह भी दलील है कि ओबीसी के आंकड़ें चूंकि अब तक 1931 की जनगणना वाले ही चल रहे हैं, इसलिए उनको रिन्यू करने की सख्त जरूरत है. भारत में जनगणना के आंकड़े अब भी 2011 के ही इस्तेमाल हो रहे हैं, क्योंकि कोरोना की वजह से 2021 की जनगणना अब तक लंबित है. वहीं, एससी और एसटी जाति के आंकड़े हरेक जनगणना के बाद जारी कर दिए जाते हैं. 


देश में पहली बार जनगणना 1872 में हुई थी जिसमें जातिगत ब्यौरा भी जारी किया गया था. उसके बाद 1931 तक जितने भी जनगणना अंग्रेजो ने कराई उसमें जातिगत आंकड़े जारी किए गए, लेकिन 1951 में आजाद भारत में जो पहली जनगणना हुई,  उसमें एससी और एसटी की ही जानकारी थी. 1951 से अब तक देश में सात बार (हरेक दस साल बाद) जनगणना हो चुकी है, लेकिन नीतिगत फैसले के कारण जातिवार जनगणना के आंकड़े जारी नही हुए.  2011 में कांग्रेस सरकार ने भी कास्ट-सर्वे करवाया था. हालांकि, उसके आंकड़े भी जारी नहीं हुए. 2015 में कर्नाटक में भी जातिगत जनगणना हुई, लेकिन आंकड़े सार्वजनिक नही किए गए. मजेदार बात यह कि तब भी सीएम सिद्धारमैया थे और अब भी हैं. 


जातीय 'जनगणना' नहीं, जातिगत 'सर्वे' को मंजूरी


हाईकोर्ट ने बिहार में 'जातीय जनगणना' को नहीं, 'जातीय सर्वे' को मंजूरी दी है और यही कानूनी पेंच भी था. चूंकि जनगणना या सेंसस केंद्र सरकार का प्रेरोगेटिव है और उनकी कार्यसूची में आता है, तो यही कानूनी नुक्ता था. खुद बिहार सरकार के एडवोकेट जनरल पी के शाही ने सुप्रीम कोर्ट में एफिडेविट भी दिया था, हाईकोर्ट को भी बताया था कि बिहार सरकार जातीय जनगणना यानी सेंसस नहीं करवा रही है, जातीय सर्वे करा रही है और यह भी जबरन लोगों से नहीं करवाया जा रहा है, बल्कि ये लोगों की स्वेच्छा पर है कि वे जानकारी दें या नहीं दे. पांच या छह पीआईएल के जरिए इस सर्वे को चुनौती दी गयी थी और पटना हाईकोर्ट ने इस पर अंतरिम स्टे लगा दिया था. अब जाकर 2 महीने बाद यह स्टे हटा दिया गया है और हाईकोर्ट ने कहा है कि अब बिहार सरकार चाहे तो 'कास्ट सर्वे' करवा सकती है. यह तो कानूनी बात हो गयी. जहां तक राजनीतिक मसला है तो यह कैबिनेट और विधानसभा से भी पारित किया गया था. अभी बिहार में जो सत्ताधारी गठबंधन है, जेडीयू औऱ आरजेडी का, वह तो इस फैसले से बहुत खुश होंगे ही. याद करें कि नीतीश और तेजस्वी कैबिनेट से इस संदर्भ में प्रस्ताव पारित होने के बाद प्रधानमंत्री से भी मिलने गए थे और उनसे भी अनुरोध किया था कि देशव्यापी सर्वे करवाया जाए. 



बिहार ही नहीं, राष्ट्रीय महत्व का मुद्दा


पटना हाईकोर्ट के फैसले के बाद अब पेटिशनर आगे सुप्रीम कोर्ट जाते हैं या नहीं, आगे कैसे काम होता है, यह सब तो भविष्य की बात है. यह बात जरूर है कि जातीय सर्वे का काम 80 फीसदी तक पूरा हो चुका है. आज 1 अगस्त के आदेश के बाद बिहार सरकार चाहेगी कि वह तुरंत इस काम को पूरा करे और डाटा को जारी करे. इसकी वजह है. वह वजह है कि कांग्रेस और उसके नेता राहुल गांधी भी खुलेआम इसका समर्थन कर चुके हैं, जो विदेशी गठबंधन बन रहा है इंडिया के नाम से, वह भी इस मांग का समर्थन कर चुका है. तो, अपनी राजनीति को चमकाने के लिए कांग्रेस और उसके साथी दल जरूर ही इस मुद्दे को खुलकर भुनाएंगे और वह जल्द से जल्द इस काम को पूरा करना चाहेंगे.



मूलतः जो जातीय सर्वे का पेंच फंसा है, उसको समझना चाहिए. बिहार सरकार ने दलील दी है कि लोग नौकरी के लिए या अन्य कामों के लिए अपनी जाति बताते हैं और हम किसी को मजबूर भी नहीं कर रहे हैं. साथ ही, तर्क ये है कि अनुसूचित जाति और जनजाति की जो गणना है, वह हरेक जनगणना के बाद जारी किया जाता है. वह पब्लिक डोमेन में है, लेकिन ओबीसी का जो आंकड़ा है, वह अभी भी 1931 की जनगणना का ही है. 1990 में जब वीपी सिंह ओबीसी आरक्षण की बात कर रहे थे, तो उस समय माना गया था कि ओबीसी लगभग 52 फीसदी हैं और उसी के आधार पर बात भी हो रही थी. एससी और एसटी को जो आरक्षण दिया जाता है, वह पॉपुलेशन के आधार पर ही. जनसंख्या बहुत बड़ा फैक्टर है और इनकी संख्या सार्वजनिक की जाती है. ओबीसी के साथ ऐसा नहीं है. इसी नुक्ते को बिहार सरकार ने भी आधार बनाया था. सरकार का कहना है कि आंकड़ा बहुत पुराना यानी 1931 का है, तो उसको रिन्यू करने की जरूरत है. यह लेकिन केवल बिहार का मसला नहीं है. यह पैन इंडिया मसला था और इस पर बहस देशव्यापी है. बिहार सरकार ने थोड़ा चतुराई भरा कदम उठाया और कास्ट-सेंसस की जगह कास्ट-सर्वे करवा लिया. यही वजह है कि हाईकोर्ट ने रोक हटा भी ली. वैसे, पटना हाईकोर्ट का पूरा ऑर्डर अभी अपलोड होना है और उसके बाद ही पता चलेगा कि हाईकोर्ट ने किस नुक्ते को आधार मानकर ये फैसला दिया है. क्या केवल ये सर्वे और सेंसस का मसला था या कुछ और भी मसले इसमें आए हैं? 


भाजपा के लिए बढ़ेगी मुश्किल 


यूनिफॉर्म सिविल कोड भाजपा के लिए एक ऐसा मुद्दा है, जिसके जरिए वह लार्जर या कहें तो मतदाताओं के बहुमत को, 70-80 फीसदी वोटर्स को एड्रेस करना चाहती है. वह मनोवैज्ञानिक तरीके से आबादी के बड़े हिस्से को प्रभावित करना चाहती है. यूसीसी ऐसा मसला है जो सामूहिक तौर पर उनको प्रभावित, प्रोत्साहित, उत्साहित या निराश कर सकती है. सवाल अब ये था कि इंडिया गठबंधन क्या करेगा, राहुल गांधी क्या करेंगे? उसकी काट के लिए क्या उनके पास कोई ऐसा मुद्दा है, जो मतदाताओं के बड़े हिस्से को प्रभावित करे? यहीं आता है जातीय जनगणना का कार्ड. आप अगर 1931 के आंकड़े को भी मानें तो भी बहुसंख्यक आबादी के भीतर बहुसंख्यक तो ओबीसी हैं. तो, 70-80 फीसदी हिंदू वोटर्स के बीच करीबन बहुसंख्यक आबादी तो पिछड़ा वर्ग की है. इसलिए, राहुल गांधी या इंडिया गठबंधन के लिए तो वही एक मुद्दा बचता है, जिसके जरिए वो यूसीसी की काट खोज सकते हैं. इस बात को हम लोगों से दस गुणा बेहतर राहुल गांधी, नीतीश कुमार और विपक्ष के लोग समझते हैं और यही वजह है कि वे इस मुद्दे को इतना जोर-शोर से उठा रहे हैं, उसके जरिए भाजपा की काट खोज रहे हैं. जाहिर तौर पर, इससे भाजपा की मुश्किलें तो बढेंगी ही. 




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