हम आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं जिसके लिए जाने-पहचाने शहीदों के अलावा न मालूम कितने अनाम रणबांकुरों ने भी अपनी कुर्बानी दे दी. फिर आज़ाद होकर भारत एक लोकतंत्र (Democracy) बना, जिसके संविधान (Constitution) को आज भी दुनिया का सबसे अव्वल दर्जे का माना जाता है, जहां हर इंसान को बराबरी का हक़ मिला हुआ है.


उसी संविधान ने लोकतंत्र की नींव के चार स्तंभ इसलिए बनाये कि सत्ता में चाहे जिस पार्टी की सरकार बने, वो अपने दायरे में रहते हुए ही अपना काम करेगी और किसी दूसरे स्तंभ की स्वतंत्रता में कभी कोई हस्तक्षेप नहीं करेगी. मौजूदा माहौल में संविधान के उन चार स्तंभों का उल्लेख करना इसलिए जरुरी है कि ये आम जनता ही तय करेगी कि कौन, कब, कहां और किस तरह से अपनी हदों को पार कर रहा है. हमारे लोकतंत्र की बुनियाद सिर्फ चार स्तंभों पर ही टिकी हुई है और इनमें से कोई एक खंबा भी अगर जरा भी कमजोर होता है, तो समझ लीजिए कि उसी दिन से लोकतंत्र के भरभरा कर गिरने की जो शुरुआत होगी, और उसके बाद क्या होगा, इसकी कल्पना करते ही लोगों को चीन (China) व उत्तर कोरिया (North Korea) की याद आने लगेगी.


देश को आज़ादी दिलाने वालों में और उसके बाद हमारे संविधान का निर्माण करने वालों में से आज कोई भी हमारे बीच में नहीं है. लेकिन उनके बनाये चार स्तंभ आज भी उतनी ही शिद्दत के साथ मौजूद हैं-  विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और पत्रकारिता यानी मीडिया. लेकिन डॉ. भीमराव अंबेडकर (Dr. Bhimrao Ambedkar) की अगुवाई में संविधान बनाने वाली समिति ने पत्रकारिता को चौथे पायदान पर इसलिए रखा था कि वे पहले तीन स्तंभों में होने वाली किसी भी गड़बड़ी या गलत काम को जनता के सामने उज़ागर करने से डरेगी नहीं और पूरी निष्पक्षता के साथ अपनी इस जिम्मेदारी को निभाएगी.


फ़िलहाल बात करते हैं उस विधायिका की जिसे अपने लफड़े सुलझाने के लिए न्यायपालिका की चौखट पर आना ही पड़ता है और उसके आदेश को मानना भी पड़ता है.ये अलग बात है कि सुप्रीम कोर्ट का जो फैसला केंद्र में बैठी सरकार को नापसंद होता है, तो वह उसके जवाब में संसद के जरिये एक नया कानून बनाकर न्यायपालिका के मुंह पर तमाचा मारने में बहुत ज्यादा देर नहीं लगाती.


महाराष्ट्र की सरकर में सिर्फ दो लोग
ताजा मामला देश की आर्थिक राजधानी वाली मुंबई (Mumbai) के महाराष्ट्र (Maharashtra) से जुड़ा है, जहां अपने साथी विधायकों के साथ शिवसेना (शिवसेना) से बग़ावत करके एकनाथ शिंदे (Eknath Shinde) बीजपी के समर्थन से राज्य के मुख्यमंत्री तो बन गए लेकिन ये मामला इतना पेचीदा है कि इस पर अभी कानूनी मुहर लगना बाकी है. आपको ये जानकर भी ताज्जुब होगा कि देश के राजनीतिक इतिहास में ऐसा पहली बार देखने को मिल रहा है कि पिछले सवा महीने से सिर्फ दो लोग ही महाराष्ट्र की जनता के रहनुमा बने हुए हैं. 30 जून को सीएम पद की शपथ लेने वाले शिंदे और डिप्टी सीएम बने देवेंद्र फडणवीस ही अभी तक पूरी सरकार हैं. न कोई मंत्री है, न कोई कैबिनेट और जब इसका विस्तार करने की बारी आई, तो गुरूवार को सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश ने ही इतना डरा दिया कि आज यानी शुक्रवार को होने वाले मंत्रिमंडल के विस्तार को ही टालने पर मजबूर होना पड़ा.


सुप्रीम कोर्ट ने कही ये बात
दरअसल, सुप्रीम कोर्ट में एकनाथ शिंदे गुट की तरफ से याचिका दायर की गई थी कि उन्हें ही असली शिवसेना माना जाए और पार्टी के चुनाव चिन्ह यानी सिंबल का अधिकार भी उन्हें मिले, लेकिन गुरुवार को हुई सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने शिंदे गुट की इस मांग पर कोई विचार करने की बजाय उल्टे चुनाव आयोग को निर्देश दे दिए हैं कि एकनाथ शिंदे की याचिका पर अभी कोई फैसला नहीं लिया जाए. सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस एन वी रमना, न्यायमूर्ति कृष्ण मुरारी और न्यायमूर्ति हिमा कोहली की पीठ ने कहा कि वो महाराष्ट्र के हाल के राजनीतिक संकट से संबंधित मामलों को संविधान पीठ के पास भेजने पर सोमवार यानी 8 अगस्त तक फैसला लेगी. इसके अलावा कोर्ट ने ये भी साफ कर दिया की हम उसी दिन इस पर फैसला लेंगे कि इस मामले को पांच सदस्यीय संविधान पीठ के पास भेजा जाए या नहीं. लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने साफतौर पर ये भी कह दिया कि शिवसेना का  वारिस कौन है? इस पर चुनाव आयोग कोई फैसला न ले. हालांकि कोर्ट ने महाराष्ट्र में नए मंत्रियों की संभावित शपथ को लेकर कोई टिप्पणी नहीं की है.


लेकिन बावजूद इसके बीजेपी आलाकमान ने शुक्रवार को होने वाले कैबिनेट के विस्तार को इसलिए टाल दिया कि सुप्रीम कोर्ट का अंतिम फैसला आने के बाद ही आगे बढ़ने में भलाई है.


लेकिन गौर करने वाली बात ये है कि चीफ जस्टिस एन वी रमन्ना की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने ही महाराष्ट्र के मामले में ये आदेश दिया है. आने वाली 27 अगस्त को वे 65 साल की उम्र पूरी करते ही रिटायर हो जाएंगे .यानी 26 अगस्त को न्यायपालिका की उस सर्वोच्च कुर्सी के जरिये देश की सेवा करने का वह उनका आखिरी दिन होगा. बीते सात-आठ महीनों में जिन लोगों ने भी चीफ जस्टिस रमन्ना के सार्वजनिक मंचों से मुखर होकर दिए गए बयानों पर अगर गौर किया होगा, तो उन्हें ये याद दिलाने की कोई जरुरत नहीं है कि उन्होंने बेहद मुखरता से लोगों के मौलिक अधिकारों के सरंक्षण की खुलकर वकालत की है. उन्होंने तो बेख़ौफ़ होकर सरकार को भी ये अहसास दिलाने की हिम्मत की है कि वो अपनी हदों को पार न करे और बेवजह मीडिया की आज़ादी पर अंकुश लगाने की कोशिश न करे क्योंकि ये स्वस्थ लोकतंत्र के लिए कोई शुभ संकेत नहीं है.


आमतौर पर ये देखा गया है कि सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के पद से रिटायर होने वाले शख्स को सरकार किसी संवैधानिक आयोग का चेयरमैन बनाकर या फिर राज्यसभा में मनोनीत करके उन्हें एक तरह का पुरस्कार देती है. लेकिन जस्टिस रमन्ना के तेवरों को देखकर लगता नहीं कि वे सरकार से मिलने वाली ऐसी किसी रेवड़ी को पाने के लिए बेताब हैं. लिहाज़ा, 8 अगस्त की तारीख़ महाराष्ट्र के साथ ही केंद्र की राजनीति को भी एक नए मोड़ पर लाकर खड़ा कर दे, तो हैरानी नहीं होनी चाहिए !


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